शिक्षा
भारत में शिक्षा का तेजी से विस्तार हुआ किन्तु ज्ञान तेजी से घटता गया। शिक्षा विस्तार ने भौतिक प्रगति में मदद की किन्तु नैतिक पतन रोकने में कोई सहायता नहीं की। ज्ञान तीन जगह से मिलता है 1. जन्म पूर्व के संस्कार 2. पारिवारिक वातावरण 3. सामाजिक परिवेश। शिक्षा दूसरों के द्वारा दी जाती है किन्तु ज्ञान स्वयं का अनुभव होता है। पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करके तंत्र ने जिस तरह सब कुछ अपने हाथ में ले लिया उसका दुष्परिणाम ज्ञान की गिरावट के रुप में देखा जा सकता है।
नई व्यवस्था में शिक्षा पूरी तरह तंत्र के हस्तक्षेप से मुक्त होगी। तंत्र न शिक्षा पर कोई खर्च करेगा न ही कोई हस्तक्षेप करेगा। शिक्षण संस्थाएँ दो प्रकार की होंगी- 1. प्राथमिक 2. उच्च। उच्च शिक्षण संस्थान केन्द्र सभा द्वारा बनाये नियमों से संचालित होंगे। प्राथमिक विद्यालय की व्यवस्था स्थानीय एकाइयाँ करेंगी। उच्च विद्यालय भी तीन प्रकार के होंगे जिसमें अलग-अलग गुण और स्वभाव के ऑकलन के बाद उसी प्रकार की शिक्षा दी जायेंगी। 1. ब्राम्हण गुण स्वभाव प्रधान 2. क्षत्रिय गुण स्वभाव प्रधान 3 वैष्य गुण स्वभाव प्रधान। उच्च विद्यालय में प्रवेश के पूर्व प्रत्येक बालक-बालिका की टेस्ट परीक्षा होगी, जिसमें बालक के ज्ञान और त्याग अर्थात् ब्राह्मण वृत्ति की क्षमता का टेस्ट होगा। उत्तीर्ण बालक उच्च विद्यालय में प्रवेश कर सकेंगे। दो वर्ष बाद शेष बालकों का दूसरा टेस्ट होगा जो क्षत्रिय वृत्ति और क्षमता का होगा उत्तीर्ण बालक उस उच्च विद्यालय मे प्रवेश लेंगे। शेष बालक दो वर्ष बाद अर्थात् बारहवें वर्ष में तीसरा टेस्ट कृषि, वाणिज्य, गो पालन अर्थात् वैष्य प्रवृत्ति का देंगे। सभी परीक्षाओं में फेल बालक अथवा अधिक उम्र के लोग या तो आगे नहीं पढ़ सकेंगे अथवा उनके लिये कोई विशेष टेस्ट के नियम बनेंगे। प्राथमिक विद्यालय में बालक-बालिका साथ-साथ पढ़ सकते है किन्तु उच्च विद्यालय दोनों के पृथक-पृथक ही होंगे।
इस शिक्षण व्यवस्था से आत्महत्याएँ भी कम होंगी। आत्महत्याएँ होने का मुख्य कारण यह होता है कि व्यक्ति अपनी क्षमता का आकलन किये बिना उपलब्धि की अपेक्षा पालकर बहुत प्रयत्न करता है किन्तु एकाएक उसका सपना टूटता है तो वह आत्महत्या की दिशा में बढ़ जाता है। परिवार या समाज भी बिना क्षमता का आकलन किये ऐसा मानता है, जिसके अनुसार उच्च प्रगति के लिये उच्चत्तम उपलब्धि के सपने देखना प्रगति में सहायक होता है। यह सिद्धांत ठीक भी है किन्तु इसमें खतरे भी बहुत है। नई व्यवस्था से व्यक्ति, परिवार और समाज को योग्यता की सीमा का आभास हो जायेगा। साथ ही ऐसी परीक्षा विवाह चयन में भी सहायक होगी। यदि कोई बालक बारह वर्ष के बाद किसी योग्यता की परीक्षा देना चाहे और उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहे तो उसके लिये परीक्षा की विशेष व्यवस्था होगी।
दूसरी ओर परिवार व्यवस्था समाज व्यवस्था का फिर से मजबूत होना ज्ञान विस्तार में भी सहायक होगा। प्रत्येक बालक को प्रारंभ से ही परिवार और समाज से सीधा सम्पर्क होता रहेगा ।
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