वर्त्तमान समस्याओं का समाधान न गांधीवाद न सावरकरवाद

वर्त्तमान समस्याओं का समाधान न गांधीवाद न सावरकरवाद

     जिस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई वह आज से करीब 100 वर्ष पूर्व का समय था। उस समय भारत में तीन विचारधाराएं सक्रिय हो गई थी। एक विचारधारा मुस्लिम लीग की थी जो यह मानती थी कि अंग्रेजों ने भारत का शासन मुसलमानों से छीना है और अब मुसलमानों का इस पर पहला अधिकार बनता है। दूसरा संगठन हिंदू महासभा के रूप में था जो यह मानता था कि भारत की अधिकांश आबादी हिंदुओं की है इसलिए हिंदुओं का इस पर पहला अधिकार बनता है। तीसरी एक और विचारधारा कांग्रेस पार्टी की थी जिसका यह मानना था कि भारत को धर्म के आधार पर नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्षता के आधार पर स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। यह तीनों ही संगठन अलग-अलग अपना काम कर रहे थे। ऐसे ही वातावरण में डॉ हेडगेवार ने एक चौथा संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नाम से शुरू किया। इस नए संगठन की यह विशेषता थी कि यह संगठन किसी भी संघर्ष में भाग नहीं लेगा। यदि कोई संघर्ष में शामिल भी होता है तो वह व्यक्तिगत रूप से शामिल हो सकता है संगठन के सदस्य के रूप में नहीं। इस नए संगठन का अधिक तालमेल हिंदू महासभा के साथ था लेकिन कांग्रेस पार्टी के साथ भी इस संगठन के लोग व्यक्तिगत रूप से तालमेल बनाकर रखते थे। इसके पहले इस संगठन के संस्थापक हेडगेवार जी कांग्रेस के साथ भी रह चुके थे तथा गांधी के साथ भी समय-समय पर तालमेल बिठाए रखे थे। व्यक्तिगत रूप से हेडगेवार जी हिंदू महासभा के उच्च पदाधिकारियों में भी शामिल रहे थे। संघ बनने के कुछ वर्षों के बाद ही हिंदू महासभा का नेतृत्व सावरकर जी के पास आया तो मुस्लिम लीग का नेतृत्व जिन्ना के पास चला गया और कांग्रेस पार्टी ने अघोषित रूप से महात्मा गांधी को अपना नेता मान लिया। हेडगेवार जी संघ के प्रमुख थे ही। हिंदू महासभा तथा सावरकर से हेडगेवार जी के अच्छे संबंध भी थे और तालमेल भी था। लेकिन साबरकर के उग्र हिंदुत्व को हेडगेवार पसंद नहीं करते थे। साथ ही हेडगेवार जी संघ को राजनीतिक संगठन से भी दूर रखना चाहते थे। हेडगेवार जी हिंदू राज्य की बात ना करके हिंदू राष्ट्र की बात करते थे। हेडगेवार जी आंदोलनों से दूर रहकर हिंदुओं को संगठित करने पर अधिक जोर दे रहे थे। हेडगेवार जी का मानना था कि भारत की सामाजिक व्यवस्था के लिए मुसलमान अंग्रेजों की तुलना में अधिक खतरनाक है। लेकिन समाधान के लिए किसी प्रत्यक्ष टकराव की आवश्यकता नहीं है। इसके बदले यदि हिंदू एकजुट हो जाएगा तो अपने आप शांति पूर्वक सब निपट जाएगा। सावरकर की मान्यता इसके विपरीत थी। यहां तक कि सावरकर तो हिंदू मुसलमान के बीच भी प्रत्यक्ष टकराव के पक्षधर थे तो गांधी के विरुद्ध भी आंदोलन करने में निरंतर सक्रिय रहते थे। हेडगेवार जी ने गांधी और सावरकर दोनों से तालमेल बनाकर रखा। लेकिन सावरकर ने हमेशा गांधी की सिर्फ विचारधारा ही नहीं बल्कि गांधी का व्यक्तिगत विरोध भी किया। यह अलग बात है कि हेडगेवार जी 51 वर्ष की बहुत कम उम्र में ही स्वर्गवासी हो गए जबकि सावरकर स्वतंत्रता के बाद तक जीवित रहे। लेकिन इतनी कम उम्र में भी हेडगेवार जी ने हिंदू महासभा की तुलना में संघ को कई गुना आगे बढ़ा दिया। यह हेडगेवार जी की व्यक्तिगत योग्यता और उपलब्धि ही मानी जाएगी।

     1940 ईस्वी में हेडगेवार जी की मृत्यु हो गई और गुरु गोलवलकर संघ के प्रमुख बन गए। हेडगेवार जी में जो संगठनात्मक क्षमता थी वह गुरुजी में नहीं थी। गुरुजी वैचारिक धरातल पर मजबूत माने जाते थे, संगठनात्मक धरातल पर कमजोर। फिर भी हेडगेवार जी की क्षमता के आधार पर संघ मजबूत होता जा रहा था और सावरकर की उग्रता से प्रभावित होकर हिंदू महासभा कमजोर होती जा रही थी। इसका परिणाम हुआ कि हिंदू महासभा के अनेक लोग वहां से टूट-टूट कर संघ में शामिल हो गए। जो भी लोग संघ में शामिल हुए उनमें संगठनात्मक निष्ठा तो संघ के साथ हो गई लेकिन उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता उसी तरह गांधी के विरुद्ध बनी रही जैसी हिंदू महासभा में थी। हेडगेवार जी सावरकर के उग्रवाद से संघ को बचाना चाहते थे लेकिन हेडगेवार जी के अभाव में पूरा का पूरा संघ ही सावरकरवादी उग्रवाद की चपेट में आ गया। जो संघ गांधी को प्रातः स्मरणीय मानता था वही संघ अब दिन-रात गांधी को गालियां देने लगा।

     मेरा संघ के साथ अच्छा संबंध रहा है और मैंने एक भी ऐसा कार्यकर्ता संघ का नहीं पाया जो दिन भर में गांधी के विरुद्ध सौ से कम बातें बोलता हो। यहां तक कि गांधी के खिलाफ दिन-रात झूठी कहानियां बनाई गई। मैंने तो यह भी पाया कि संघ का आम कार्यकर्ता तानाशाही के पक्ष में दिखने लगा था। गांधी को गालियां देने के लिए सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों के नामों का भी सहारा लिया गया। संघ को ना हिंदुत्व से ज्यादा मतलब रहा ना देश की ज्यादा चिंता रही। सिर्फ चिंता थी तो एकमात्र गांधी और गांधी विचार का विरोध करने की। कुछ अतिवादी संघी लोग तो इंदिरा गांधी के आपातकाल की भी प्रशंसा करने लगे। गांधी के लोक स्वराज्य, ग्राम स्वराज्य, आदर्श परिवार व्यवस्था और श्रम शोषण मुक्ति के विरुद्ध भी संघ ने एकात्मक शासन प्रणाली का समर्थन शुरू कर दिया था। मैं समझता हूँ कि संघ पर सावरकरवादियों का एक छत्र प्रभाव स्थापित हो गया। संघ ने सिर्फ झंडे और नाम से ही अपनी पहचान बनाए रखी अन्यथा संघ पूरी तरह सावरकरवादी उग्रवाद का प्रचारक बन गया। संघ का यह बदलाव कांग्रेस पार्टी को भी पसंद आता था क्योंकि गांधी को दिन-रात गालियां देने के कारण कांग्रेस पार्टी अपने को गांधीवादी सिद्ध करने में पूरी तरह सफल हो जाती थी। मूलतः संघ साम्यवाद विरोधी है लेकिन संघ के एकतरफा गांधी विरोध के कारण साम्यवादियों को भी यह सुविधा हुई कि गांधीवादियों को अपने साथ पूरी तरह जोड़ सके। अब तक मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि उस समय संघ की सोच सिर्फ गांधी और गांधी विचारों के विरोध तक संकुचित हो गई थी।

     मैं अपने सार्वजनिक जीवन के प्रारंभ में ही समाजवादी विचारधारा से जुड़ा और 25 वर्ष की उम्र में जनसंघ के साथ जुड़ गया था। मैं भारतीय जनता पार्टी के भी अनेक उच्च पदों पर रहा। 1984 में मैंने राजनीति छोड़ दी और सामाजिक समस्याओं पर चिंतन करने लगा। अब तक के जीवन में मेरा संघ के अनेक लोगों से अच्छा परिचय हुआ है। जहां तक मेरी धारणा की बात है तो वह यही बनी है कि संघ दुनिया का पहला संगठन है जिसमें सबसे अधिक चरित्रवान और ईमानदार लोग हैं। संघ में स्वतंत्र विचारकों का अभाव है किंतु चरित्र के मामले में संघ की तुलना और कहीं नहीं हो सकती है। सन 77 में जब मैं राजनीति के उच्च पदों पर गया तो उस समय भी संघ के लोग सत्ता से जुड़े हुए थे और वो पूरी तरह ईमानदार रहे। मेरे व्यक्तिगत जीवन में भी ईमानदारी की धारणा संघ के माध्यम से अधिक मजबूत हुई। संघ के लोग समाज के लिए अपना व्यक्तिगत नुकसान भी करते रहते हैं। संघ में एक दूसरे के प्रति त्याग की भावना बहुत मजबूती से भरी हुई है। मैं जब 30 वर्ष पूर्व गांधीवादियों के संपर्क में आया तब मुझे यह अनुभव हुआ कि गांधीवादी भी बहुत ईमानदार होते हैं। उनका जीवन भी बहुत त्यागमयी होता है। यद्यपि संघ की तुलना में गांधीवादियों में ईमानदारों का प्रतिशत कम है। लेकिन संघ की तुलना में गांधीवादी अधिक स्वतंत्र विचारक होते हैं। संघ में अनुशासन पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है जबकि गांधीवादियों में अनुशासन नाम की कोई चीज नहीं होती। मैं गांधीवादियों के साथ भी पूरी तरह एकाकार होकर रहता था और संघ के साथ भी। मैंने 25 वर्ष पूर्व ही यह निष्कर्ष निकाला था कि गांधीवादियों में भी ईमानदार और त्यागी लोगों की एक बहुत बड़ी संख्या है और संघ में भी ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है। मैं अंतिम रूप से यह निष्कर्ष निकाल चुका था कि यदि सभी अच्छे लोग एकजुट हो जाएं तब समस्याओं का समाधान अधिक आसानी से हो सकता है। वहीं मैंने लगभग 1993 में यह निश्चय कर लिया था कि मैं संघ और गांधीवादियों के बीच एक ऐसे पुल का काम करूं जो सभी अच्छे लोगों को एकजुट करने में मदद कर सकें।

     मेरा अपना अनुभव तो यही बताता है कि यदि बारूद और आग अनियंत्रित होंगे तो विध्वंस होगा लेकिन यदि दोनों को संतुलित तरीके से एकजुट कर दिया जाए तब दोनों की सामाजिक उपयोगिता कई गुना अधिक बढ़ जाती है। गांधी एक विख्यात समाजशास्त्री थे और सावरकर एक क्रांतिकारी राजनेता। दोनों के बीच टकराव स्वाभाविक था लेकिन यदि दोनों के बीच एकता होती तो वो लोग और अधिक उपयोगी सिद्ध होते। अब दोनों ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन दोनों के ही मानने वालों में अधिकांश अच्छे लोग हैं जिनकी शक्ति आपसी टकराव में नष्ट हो रही थी। मैंने योजनापूर्वक आग और बारूद को एक साथ जोड़ने का प्रयत्न किया। पहली बार संघ ने 2002 में नरेंद्र मोदी को आगे किया। साथ ही संघ ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच बनाकर भी एक नई पहल की। जिसका गंभीर विरोध प्रवीण तोगड़िया तथा कुछ अन्य लोगों ने किया। संघ अपने मार्ग पर चलता रहा और धीरे-धीरे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया गया। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच को भी लगातार आगे बढ़ाया गया तथा प्रवीण तोगड़िया या उद्धव ठाकरे जैसे कट्टरवादियों से किनारा किया गया। गांधीवादियों ने भी नानाजी देशमुख अथवा मेरे सरीखे संघ से जुड़े लोगों को पूरा-पूरा महत्व दिया। परिणाम हुआ कि गांधीवाद और सावरकरवाद के बीच की लड़ाई छोड़कर देश नरेंद्र मोदी, मोहन भागवत की लाइन पर चलने लगा। जो लोग गांधी या सावरकर के नाम की दुकानदारी करते थे वह कमजोर पड़ने लगे और गांधी सावरकर के बीच मोदीवाद तेज गति से आगे बढ़ने लगा। मैं समझता हूँ कि वर्तमान समय में हमें मृत महापुरुषों के विचारों को बिना विचारे अंतिम सत्य नहीं मान लेना चाहिए। बल्कि वर्तमान के साथ तालमेल बिठाकर हमें वर्तमान की सक्रियता पर विचार करना चाहिए। इतिहास से सीखा जा सकता है, अंधानुकरण नहीं किया जा सकता। जो भी लोग गांधी या सावरकर की आंख बंद करके आलोचना करते हैं वह या तो गलत है या बुरी नीयत के लोग हैं। वर्तमान परिस्थितियों की समीक्षा करके आगे का मार्ग खोजना चाहिए। गांधी का अंधानुकरण ही गांधीवादियों को समाप्त होते तक कमजोर कर चुका है। गांधी को आंख बंद करके गाली देना ही हिंदू महासभा को भी समाप्त कर रहा है। गांधीवादियों के पास गांधी जैसा महापुरुष था लेकिन गांधीवादी अतीत से चिपक कर वर्तमान के अनुसार अपने को नहीं ढाल सके हैं। जबकि संघ ने अतीत से अनुभव लेकर वर्तमान के साथ अपने को बदलने की कोशिश की है। आज नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत की जोड़ी देश, राष्ट्र, समाज और विश्व का मार्गदर्शन करने की दिशा में आगे बढ़ रही है एवं मैं वर्तमान राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थिति से पूरी तरह संतुष्ट हूँ। राष्ट्रीय मुस्लिम मंच कासामाजिक समरसता की दिशा में आगे बढ़ना हिंदू मुस्लिम टकराव का सर्वश्रेष्ठ समाधान है।