भारत: मानव सभ्यता की जननी
भारत: मानव सभ्यता की जननी
भारत को मानव सभ्यता की जननी कहा जाता है। इसका अर्थ है कि सभ्यता का प्रारम्भ यहीं से हुआ होगा। प्राचीन समय में यहाँ एक ही जाति प्रचलित थी, जिसे शूद्र कहा जाता था। शूद्र का अर्थ था श्रमिक। ये लोग खेती करते थे और मांसाहार भी करते थे।
समय के साथ जब सभ्यता का विकास हुआ, तब उन्नत समाज को द्विज कहा जाने लगा। यही द्विज आगे चलकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कहलाए। द्विजों ने वेद और अन्य शास्त्रों की रचना की, और वहीं लिखा गया – “जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात् द्विज उच्यते।”
अर्थात जन्म से हर मनुष्य शूद्र होता है, संस्कार से वह द्विज कहलाता है।
यही वह समय था जब समाज में शूद्र और द्विज का विभाजन स्पष्ट हुआ। द्विज बहुविवाह की ओर बढ़े और एक से अधिक स्त्रियों से संतान उत्पन्न करने लगे। इसके परिणामस्वरूप, जब शूद्र समाज में महिलाओं की संख्या घटने लगी तो उन्होंने भी बहुपति प्रथा अपनाई। इन दोनों परंपराओं के अवशेष आज भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ में कुछ ग्रामीण समुदाय आज भी प्राचीन भागडांड प्रथा को जीवित रखे हुए हैं। इस प्रथा के अंतर्गत किसान खेत में तेंदू की लकड़ी की एक दगाल गाड़ते हैं और उसके ऊपरी भाग को चीरकर उसमें भेलवा और शतावर की लकड़ी लगाते हैं। माना जाता है कि इससे खेत में कीड़े नहीं लगते। इसी प्रकार कुछ आदिवासी समाजों में महिला प्रधान परिवार व्यवस्था प्रचलित है। हिमाचल प्रदेश में भी इस तरह की प्रथाओं को आज सम्मानपूर्वक संरक्षित किया जा रहा है।
यह स्पष्ट है कि प्राचीन शूद्र संस्कृति किसी भी दृष्टि से हीन या बुरी नहीं थी, बल्कि परिस्थितियों से उत्पन्न एक सामाजिक व्यवस्था थी। आज जिस प्रकार महिलाओं की संख्या घट रही है, संभव है कि भविष्य में तथाकथित “द्विज” समाज को भी कभी इन परंपराओं से सीख लेनी पड़े।
दुर्भाग्यवश, अंग्रेजों ने आकर इस संस्कृति को विकृत रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने यह मिथक फैलाया कि भारत के मूल निवासी शूद्र थे और आर्य बाहर से आए। यह पूर्णतः असत्य है। अंग्रेजों ने हमारे भागडांड प्रतीक को भी गलत अर्थ दिया और इसे “क्रॉस” का चिन्ह बताकर भ्रामक प्रचार किया, जबकि किसान इसे केवल खेत की सुरक्षा के लिए लगाते थे।
अतः, हमें चाहिए कि हम अपने वास्तविक इतिहास और संस्कृति को समझें और उसकी सही पहचान स्थापित करें।
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