लेकिन इसका वास्तविक कारण क्या है—क्या विपक्षी दल हिंदुओं से नफरत करते हैं
संशोधित पाठ (भाषा-सुधारित संस्करण)
आज यह आम धारणा बन गई है कि भारत का अधिकांश विपक्ष मुस्लिम समुदाय के साथ खड़ा दिखाई देता है। लेकिन इसका वास्तविक कारण क्या है—क्या विपक्षी दल हिंदुओं से नफरत करते हैं, इस्लाम से प्रेम रखते हैं, या फिर यह केवल एक राजनीतिक-सामयिक रणनीति है—इन प्रश्नों पर लोग स्पष्ट उत्तर चाहते हैं।
मेरे विचार से भारत के अधिकांश विपक्षी दलों को हिंदुओं से किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं है। उनका आकलन यह है कि हिंदू समाज को जाति, वर्ग, क्षेत्र और आर्थिक स्तर के आधार पर विभाजित किया जा सकता है, जबकि मुस्लिम समुदाय अपेक्षाकृत अधिक एकजुट होकर वोट करता है। इसीलिए विपक्षी दल उसे एक संगठित राजनीतिक शक्ति के रूप में देखते हैं और उसके साथ खड़े रहते हैं।
कम्युनिस्ट पार्टियों का दृष्टिकोण अलग है। उनके लिए धार्मिक पहचान का प्रश्न उतना महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि वे सामाजिक-राजनीतिक संरचना को अपने वैचारिक दृष्टिकोण से देखते हैं। उनके मतानुसार किसी भी बहुसंख्यक प्रभुत्व को संतुलित किए बिना साम्यवादी राजनीति सफल नहीं हो सकती; इसलिए वे उन समूहों के साथ जुड़ने का प्रयास करते हैं जिन्हें वे “संतुलनकारी शक्ति” मानते हैं।
कांग्रेस पार्टी की स्थिति भी समय के साथ बदली है। नेहरू और इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस मुस्लिम समुदाय के हितों के प्रति संवेदनशील तो थी, लेकिन उसका रुख संतुलन पर आधारित था। सोनिया गांधी के नेतृत्व आने के बाद पार्टी की रणनीति में बदलाव आया और हिंदुत्व को लेकर उसका दृष्टिकोण अधिक आलोचनात्मक हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि सोनिया गांधी की व्यक्तिगत झुकाव और राहुल गांधी के वैचारिक प्रभाव ने पार्टी को एक ऐसे रास्ते पर ला दिया है जहाँ वह हिंदुत्व का विरोध करने के परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय के साथ अधिक दृढ़ता से खड़ी दिखाई देती है।
मेरे मत में, हिंदुत्व एक सांस्कृतिक और दार्शनिक परंपरा है जिसके अनेक सकारात्मक पक्ष हैं। उसका विरोध केवल राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के कारण करना न तो कांग्रेस के हित में है और न ही व्यापक विपक्ष के। वर्तमान परिस्थिति में कांग्रेस नेतृत्व को यह स्वीकार करना चाहिए कि भारत मूलतः “हिंदुस्तान” की सांस्कृतिक पहचान के साथ ही आगे बढ़ता है और आगे भी बढ़ेगा।
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