हमारी प्राथमिकता चरित्र निर्माण या व्यवस्था परिवर्तन
कुछ निष्कर्ष हैं।
- मानवीय चेतना से नियंत्रित व्यवहार को चरित्र कहते हैं। चरित्र मानवता और नैतिकता से जुडा हुआ होता हैं;
- किये जाने योग्य कार्य करना नैतिकता हैं, किये जाने वाले कार्य न करना अनैतिक हैं न करने योग्य कार्य करना अपराध होता हैं;
- प्रत्येक व्यक्ति किसी व्यवस्था से संचालित होता हैं और व्यवस्था व्यक्ति समूह से जिस समूह में वह स्वयं शामिल होता हैं;
- व्यवस्था पारिवारिक, समाजिक तथा राजनीतिक होती हैं। तीनों व्यवस्थायें अगल-अगल होते हुये भी एक-दूसरे की पूरक होती हैं;
- स्वतंत्रता, अनुशासन और शासन का स्वरूप भिन्न-भिन्न होता हैं। स्वतंत्रता व्यक्ति की व्यक्तिगत होती हैं, किसी अन्य से जुडते ही वह अनुशासन में बंध जाती हैं। स्वतंत्रता शासन व्यवस्था से बाध्य होती हैं;
- प्रत्येक व्यक्ति का यह स्वभाव होता हैं कि वह स्वयं दूसरों से अधिकाधिक स्वतंत्रता चाहता हैं और दूसरों को कम से कम स्वतंत्रता देना चाहता हैं;
- सारी दुनियां में व्यवस्था का केन्द्रीयकरण हो रहा हैं। राजनीतिक सत्ता समाजिक तथा पारिवारिक व्यवस्था को अपने नियंत्रण में ले रही हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी संकुचित होती जा रही हैं;
- परंपरागत परिवार व्यवस्था दोषपूर्ण हैं उससे व्यक्ति पर व्यवस्था का अनुशासन तो हैं किन्तु व्यवस्था पर व्यक्ति समूह का नियंत्रण नहीं हैं;
- साम्यवादी तथा इस्लामिक व्यवस्थायें व्यक्ति को स्वतंत्रता को न मानने के कारण त्यागने योग्य हैं। भारतीय परिवार व्यवस्था संशोधन योग्य हैं और लोकतांत्रिक व्यवस्था अनुकरणीय हैं;
- व्यवस्था से चरित्र बनता हैं। चरित्र से व्यवस्था नही। जो लोग व्यवस्था में चरित्र को महत्वपूर्ण मानते हैं वे गलत हैं क्योंकि व्यवस्था व्यक्ति से नहीं व्यवस्था से व्यक्ति संचालित होता हैं;
- नीति निमार्ण में विचार महत्वपूर्ण होता हैं और क्रियान्वय में चरित्र की भूमिका प्रमुख होती हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में नीति-निमार्ण विधायिका का और क्रियान्वन कार्यपालिका का कार्य माना जाता हैं;
- संघ परिवार चरित्र को हर मामले में महत्वपूर्ण मानता हैं तो साम्यवाद किसी मामले में चरित्र को महत्वपूर्ण नहीं मानता मेरे विचार से दोनो गलत हैं;
- यदि व्यवस्था ठीक हो तो हमें चरित्र निमार्ण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिये यदि अव्यवस्था या कुव्यवस्था हो तो चरित्र निमार्ण को रोक कर व्यवस्था परिवर्तन का कार्य करना चाहिये;
- यदि अपराध अनियंत्रित हो तो शराब, जुआ, वैष्यावृत्य जैसे अनैतिक कार्यो करने वालों से दूरी घटा लेनी चाहिये। चरित्र निमार्ण के प्रयत्न घातक होते हैं;
- यदि गाडी का ड्राइवर गलत हो तब भी अव्यवस्था होगी और गाडी खराब हो तो भी। वर्तमान समय मेें व्यवस्था रूपी गाडी ही गडबड हैं इसलिये गाडी ठीक करना आवश्यक हैं।
- क्या करना चाहिये इसका निर्णय व्यक्ति के चरित्र पर निर्भर करता हैं। न करने योग्य कार्य करने से रोकने का काम व्यवस्था का हैं। चरित्र व्यक्तिगत होता हैं और व्यवस्थाा सामुहिक होती हैं;
वैसे तो सारे विश्व की ही व्यवस्था गडबड हैं क्योंकि जब तक साम्यवाद और इस्लाम से व्यवस्था मुुक्त नहीं होती तब तक व्यवस्था में सुधार सम्भव नहीं। सौभाग्य से भारत की व्यवस्था इन दोनों से बहुत कम प्रभावित हैं फिर भी पिछले समय में जो अव्यवस्था विकसित हुयी हैं उसे व्यवस्था परिवर्तन से ही सुधारा जा सफल हैं चरित्र निमार्ण से नहीं। क्योंकि तानाशाही में चरित्र से व्यवस्था सुधरती हैं और लोकतंत्र में व्यवस्था से चरित्र सुधरता हैं। भारत सैकडो वर्षो तक गुलाम रहने के कारण व्यक्ति के नेतृत्व से व्यवस्था के संचालन का अभयस्त हो गया हैं जो उचित नहीं हैं। व्यवस्था निरंतर प्रभावहीन होती जा रही हैं दूसरी ओर अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, संघ परिवार, गायत्री परिवार या आर्य समाज पूरी ईमानदारी और सक्रीयता से चरित्र निमार्ण के कार्य में लगे हुये हैं किन्तु औसत चरित्र गिरता जा रहा हैं क्योंकि व्यवस्था दोषपूर्ण हैं और जितनी गति से चरित्र निमार्ण हो रहा हैं उसकी तुलना में कई गुना अधिक चरित्रपतन राजनीतिक व्यवस्था कर रही हैं। कुल मिलाकर चरित्र गिर रहा हैं किन्तु हमारा दुर्भाग्य हैं कि हम व्यवस्था परिवर्तन के महत्व को नहीं समझ पा रहैं हैं। व्यवस्था में भी पारिवारिक आर्थिक, समाजिक व्यवस्था को राजनीतिक व्यवस्था ने इतना गुलाम बना लिया हैं कि सब प्रकार की व्यवस्थाये राजनीतिक अव्यवस्था से प्रभावित हो रही हैं। राजनीतिक व्यवस्था को ठीक किये बिना चरित्र पतन रूक नही सकता भले ही हम चरित्र निमार्ण द्वारा आंशिक रूप से उस पतन को गति को कम कर सके। इसके बाद भी व्यवस्था परिवर्तन के महत्व को न समझकर चरित्र निमार्ण पर अधिकतम शक्ति लगाना ना समझी का कार्य हैं जो हम लगातार किये जा रहैं हैं। राजनीतिक व्यवस्था में भी हमने कई बार ड्राइवर बदलने का प्रयास किया किन्तु गाडी आगे बढकर पीछे ही जा रही हैं क्योंकि हम समझ ही नहीं रहैं हैं कि गाडी खराब हैं ड्राइवर नहीं।
आवश्यकता इस बात की हैं कि महत्वपूर्ण लोगो को चरित्र निमार्ण की तुलना में व्यवस्था परिवर्तन पर अधिक शक्ति लगानी चाहिये और समझना चाहिये कि लोकतंत्र में चरित्र से व्यवस्था नहीं बल्कि व्यवस्था से चरित्र बनता हैं। जब यह अंतिम सत्य हैं कि व्यक्ति के उपर व्यवस्था और व्यवस्था के उपर व्यक्ति समूह अर्थात समाज होता हैं तब हम उल्टी दिशा में चलकर समाज के उपर व्यवस्था और व्यवस्था के उपर व्यक्ति का प्रयोग क्यों करें। उचित होगा कि इस वर्तमान प्रणाली को पलटकर व्यक्ति के उपर व्यवस्था और व्यवस्था और व्यवस्था के उपर समाज का प्रयोग करें।
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