दान चंदा और भीख
कुछ सिद्धान्त है।
1 बाधा रहित प्रतिस्पर्धा और सहजीवन के बीच समन्वय ही आदर्श व्यवस्था मानी जाती है। प्रतिस्पर्धा के लिये असीम स्वतंत्रता और सहजीवन के लिये अनुशासन अनिवार्य है।
2 समाज को एक बृहद परिवार कहा जा सकता है। जिस तरह की संरचना परिवार की होती है वैसी ही समाज की भी होती है।
3 स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है तो सहजीवन और परिवार भावना विकसित करना उसका कर्तब्य ।
4 समाज मे कुछ परिवार अक्षम और कुछ सक्षम होते है। सक्षम परिवारो का कर्तव्य है कि वे अक्षम लोगो की सहायता करे।
5 वर्ण व्यवस्था के अनुसार वैश्य को छोडकर शेष तीन वर्ण के लोग आर्थिक दृष्टि से अक्षम माने जाते है। दान चंदा और भीख इन तीन वर्णो की व्यवस्था के आधार होते है।
6 कर्तव्य और अधिकार एक दूसरे के पूरक होते है। किसी के सामाजिक अधिकार तब तक पूरे नही हो सकते जब तक अन्य लोग कर्तव्य न करे।
7 वर्तमान समय मे दान चंदा और भीख का निरंतर दुरूपयोग हो रहा है। इसलिये इसपर नये तरीके से सोचने की आवश्यकता है। इन तीन मे भी चंदा अधिक बडा व्यवसाय बनता जा रहा है। दान चंदा और भीख अलग अलग अर्थ और प्रभाव रखते है । दान स्वेच्छा से और अपनी क्षमतानुसार दिया जाता है। दान पर दान लेने वाले का पूरा अधिकार होता है । देने के बाद देने वाले का कोई अधिकार या हस्तक्षेप नही होता। यहां तक कि देने वाला उसका कोई हिसाब भी नही पूछ सकता। दान बिना मांगे दिया जाता है और देने के बाद किसी भी परिस्थिति मे वापस नही लिया जा सकता। किसी भी प्रकार का दान देने वाला कर्तव्य भावना से देता है। चंदा और दान मे बहुत फर्क होता है। चंदा दिया और लिया नही जाता बल्कि इकठठा किया जाता है। चंदे पर देने वाले का पूरा अधिकार होता है । वह कभी भी हिसाब मांग सकता है और विशेष परिस्थिति मे वापस भी ले सकता है। चंदा एक आपसी समझौता है जिसे हम सहभागिता भी कह सकते है। भीख एक भिन्न प्रकार की प्रक्रिया है । भीख मांगने पर दी जाती है। आवश्यकता का आकलन करके दी जा सकती हैं तथा भीख पर देने वाले का कोई अधिकार नही होता। भीख आमतौर पर दया की भावना से दी जाती है। भीख भी दान की तरह स्वेच्छा से दी जाती है जिसका न कभी हिसाब लिया जा सकता है न ही वापस मांगा जा सकता हैं।
यदि हम भारत की पुरानी व्यवस्था का आकलन करे तो दान चंदा और भीख एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था के रूप मे माना जा सकता है। प्रत्येक सक्षम व्यक्ति अपना कर्तव्य समझता है कि वह परिस्थिति अनुसार तीनो मे सहयोग करे। सरकार द्वारा लिया जाने वाला टैक्स भी चंदा की ही श्रेणी मे आता है। यदि हम भारत की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था की समीक्षा करें तो दान चंदा और भीख का पूरी तरह दुरूपयोग हो रहा है। अधिकांश लोगो ने तीनो को अपना व्यवसाय बना लिया है। वास्तविक भिखारी तो अब शायद ही दिखते है । पेशेवर भिखारी ही मिलते है यहां तक कि शारीरिक दृष्टि से पूरी तरह अक्षम और कुछ सक्षम लोग भी इसे व्यवसाय समझ लिये है। मैने तो सुना है कि कुछ गरीब लोगो को भीख मांगने के लिये जान बूझकर अपाहिज बनाया जाता है और उससे यह व्यापार कराया जाता है। चंदा मांगना तो एक धंधा बन ही गया है। चंदे के नाम पर अधिकांश धूर्त अपनी दुकानदारी चला रहे है। मैने अपने 60 वर्षो के कार्यकाल मे अपने रामानुजगंज शहर मे जब भी चंदा करने वालो के कार्य का आकलन किया तो एक दो सामाजिक संस्थाओ को छोडकर बाकी सब जगह आर्थिक घपला मिला चाहे वह यज्ञ के नाम पर होता हो या मंदिर या पूजा के नाम पर । यहां तक कि राष्टीय सुरक्षा के नाम पर भी किये गये धन संग्रह मे कई प्रकार की गडबडी प्रमाणित हो गई । अच्छी अच्छी नामी संस्थाओ के नाम पर भी होने वाले धन संग्रह मे भ्रष्टाचार प्रमाणित हुआ। सरकारें जो टैक्स के रूप मे चंदा लेती है उनमे भ्रष्टाचार तो जग जाहिर है। इसी तरह दान के नाम पर भी दुर्गति देखी जा रही है। बडे बडे मठाधीश आम लोगो को दान के लिये प्रेरित करते है और उस प्राप्त दान का दुरूपयोग करते है। धर्म के नाम पर या समाज सेवा के नाम पर दान मांगना फैशन बन गया है। सिद्धान्त रूप से दान मांगा नही जाता किन्तु वर्तमान समय मे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दान मांगने वालो की समाज मे भीड लगी हुई है।
किसी महापुरूष ने कहा था कि जो मागने जाता है वह तो एक प्रकार से मर ही जाता है किन्तु जो मांगने पर भी नही देता उसकी मृत्यु मांगने वाले से भी पहले हो जाती है । आदर्श स्थिति मे इस कहावत का बहुत महत्व है। किन्तु वर्तमान परिस्थितियों मे यह कहावत बहुत अधिक हानिकारक है। हर धूर्त इस कहावत का पूरा पूरा दुरूपयोग करता है । इसलिये किसी अन्य महापुरूष को यह सलाह देनी पडी कि कुपात्र को दिया गया दान दाता को भी नर्क मे ले जाता है। इसका अर्थ हुआ कि दान बहुत ही सोच समझकर दिया जाना चाहिये क्योकि यदि दान का दुरूपयोग हुआ तो उसके पाप मे दान दाता भी हिस्सेदार माना जायेगा। इसी तरह चंदा भी बहुत सोच समझकर ही देना चाहिये। और दिये जाने के बाद उसपर अपनी नजर अवश्य रखनी चाहिये। क्योकि बिना सोचे समझे चंदा देना भी एक प्रकार से असामाजिक तत्वो का प्रोत्साहन माना जायेगा। भीख के मामले मे हम उस समय दया कर सकते है जब कोई अक्षम और अपंग हो और उसके पास अपने भरण पोषण का कोई अन्य मार्ग उपलब्ध न हो । वर्तमान समय मे सरकार सबको भरण पोषण के पर्याप्त साधन उपलब्ध करा रही है। मै नही समझता कि ऐसी परिस्थिति मे भीख मांगने का भी कोई औचित्य बचा है। दान चंदा या भीख न देना उतना हानिकर नही है जितना गलत व्यक्ति को देना। सरकार के टैक्स के मामले मे भी सतर्क रहने की आवश्यकता है । सरकारे मनमाना टैक्स लगाकर उसका भरपूर दुरूपयोग कर रही है। कोई ऐसी व्यवस्था सोची जानी चाहिये जिसमे सरकारी टैक्स पर भी कुछ अंकुश लग सके।
आजकल तो मतदान को भी दान कहकर प्रचारित किया जा रहा है। सिद्धान्त रूप से दान मांगा नही जाता किन्तु वोट के भिखारी दिन रात वोट मांगते भी है और उसे दान भी कहते है। वोट न तो दान है न ही भीख है । उसे आप चंदे की श्रेणी मे रख सकते है। मतदान का भी पूरा पूरा दुरूपयोग हो रहा है । इसे भी एक व्यवसाय बना दिया गया है। मेरा सुझाव है कि दान बहुत सोच समझकर दिया जाना चाहिये। दान और भीख की तुलना मे चंदा लेना देना अधिक घातक सिद्ध हो रहा है। चंदे का धंधा दान की प्रवृत्ति को भी निरूत्साहित कर रहा है। चंदा मांगना एक बुरी आदत है किन्तु बहुत बडे बडे लोग भी चंदा मांगकर अपने को गौरवान्वित महसूस करते है। कहते है मालवीय जी ने चंदे के माध्यम से बनारस हिन्दू विश्व विधालय खडा कर दिया। यह बात सच होते हुए भी मै किसी भी प्रकार के चंदा लेने और देने के विरूद्ध हॅू क्योकि चंदा का कोई न तो हिसाब किताब रखा जाता है न ही किसी को दिखाया जाता है। यदि किसी कार्य के लिये धन संग्रह आवश्यक है और उसमे कोई घपला नही करना है तो उसे अधिकतम पारदर्शी होना चाहिये। साथ ही ऐसा धन संग्रह सिर्फ सहमत और सम्बंद्ध लोगो के बीच ही हो सकता है। दूसरे लोगो से नही मांगा जा सकता। वर्तमान समय मे दान चंदा और भीख के नाम पर जो खरपतवार खेतो मे पैदा हो गये है इन सबको नष्ट करने के लिये एक बार पूरे खेत की जुताई कर दी जाये और कोई बहुत आवश्यक पौधा हो तो उसे ही सुरक्षित रखा जाये । याद रखिये कि दान चंदा या भीख का दुरूपयोग आपके लिये भी घातक है और समाज के लिये भी ।
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