बालिग मताधिकार या सीमित मताधिकार

कुछ सर्वस्वीकृत निष्कर्ष हैं।


1. किसी भी इकाई के संचालन के लिए एक सर्वस्वीकृत संविधान होता है जिसे मानना इकाई के प्रत्येक व्यक्ति के लिए बाध्यकारी होता है।
2. किसी भी संविधान के निर्माण में इस इकाई के प्रत्येक व्यक्ति की सहभागिता अनिवार्य होती है। इकाई के सब लोग मिलकर भी किसी व्यक्ति को संविधान निर्माण से अलग नहीं रख सकते।
3. व्यवस्था चाहे कोई भी हो, कैसी भी हो, किन्तु वह संविधान के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है।
4. वर्तमान समय में लोकतंत्र सबसे कम बुरी व्यवस्था है। इसे लोकस्वराज की दिशा में जाना चाहिए।
5. प्रत्येक व्यक्ति के कुछ प्राकृतिक अधिकार होते हैं। इन अधिकारों को उसकी सहमति के बिना संविधान भी नहीं छीन सकता।
6. किसी भी संविधान में सर्वसम्मति से भी किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता में किसी दीर्घकालिक कटौती का नियम नहीं बन सकता।
7. व्यक्ति समूह अर्थात समाज के अनुसार व्यवस्था कार्य करने के लिए बाध्य होती है और व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति बाध्य होता है। व्यक्ति और व्यक्ति समूह के
बीच अंतर करना आवश्यक है।
8 संविधान व्यक्तियों की अपेक्षा सर्वोच्च होता है किन्तु व्यक्ति समूह की तुलना में सर्वोच्च नहीं होता। व्यक्ति समूह सर्वोच्च होता है। जब भारत का संविधान बन रहा था उस समय भी यह चर्चा मजबूती से उठी थी कि मतदान का अधिकार सिर्फ योग्य लोगों तक सीमित होना चाहिए और योग्यता का कोई एक मापदंड बनना चाहिए। अशिक्षित, अयोग्य, पागल या अपराधी यदि मतदान करेंगे तो संपूर्ण राष्ट्रीय व्यवस्था पर इसका दुष्प्रभाव निश्चित है। इस प्रकार का तर्क देने वालों में सरदार पटेल प्रमुख व्यक्ति थे। दूसरी ओर एक पक्ष ऐसा था जो बालिग मताधिकार का पक्षधर था और प्रत्येक व्यक्ति को व्यवस्था में समान रूप से भागीदार बनाना चाहता था चाहे किसी मापदंड के आधार पर अयोग्य ही क्यों न हो। इस पक्ष के प्रमुख पैरवीकार पंडित नेहरू को माना जाता है। बालिग मताधिकार को स्वीकार करते हुए सीमित मताधिकार की मांग छोड दी गई फिर भी कभी-कभी इस तरह की मांग उठती रहती है और अब तक उठ रही है। यदि मताधिकार के लिए किसी योग्यता को आधार बनाया गया तो सबसे पहला प्रश्न यह खडा होता है कि इस आधार को बनाने का निर्णय कौन-सी इकाई करेगी और उस इकाई के चयन में भारत के प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका होगी या नहीं। यदि इस इकाई ने गलत निर्णय लिए तो उसकी समीक्षा कौन करेगा? जो भी सर्वोच्च इकाई होगी उस सर्वोच्च इकाई के निर्माण में प्रत्येक व्यक्ति भूमिका ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र में संविधान का शासन होता है शासन का संविधान नहीं। संपूर्ण राजनैतिक व्यवस्था एक संविधान के द्वारा संचालित होती है और संविधान से उपर लोक होता है। जिसका अर्थ होता है भारत के प्रत्येक नागरिक का संयुक्त समूह। इस संविधान निर्माण या संशोधन से किसी भी नागरिक को अलग नहीं किया जा सकता चाहे वह कोई भी हो क्योंकि प्राकृतिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार, समान स्वतंत्रता प्राप्त है और वह व्यक्ति मतदान द्वारा अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संविधान में शामिल करके स्वयं को व्यक्ति से नागरिक घोषित करता है। यह सारा कार्य उसकी सहमति से होता है। तर्क दिया जाता है कि अशिक्षित लोग जब संविधान और व्यवस्था का अर्थ ही नहीं जानते तो उनके वोट देने का क्या लाभ है। ऐसे लोग किसी भी रुप में बहकाये जा सकते हैं जिसका दुष्परिणाम सब को भोगना पड़ता है। प्रश्न महत्वपूर्ण है क्योंकि ऐसे लोग बहकाये जा सकते हैं किंतु एक दूसरा प्रश्न भी खड़ा होता है कि यदि बहकाने की क्षमता रखने वाले लोग ही सर्वशक्तिमान हो जाए तब समाज का क्या होगा। जिनकी नीयत पर संदेह है उन्हें सारी शक्ति नहीं दी जा सकती। लोकतंत्र में विधायिका और कार्यपालिका के बीच भिन्न प्रकार की योग्यताओं का समन्वय होना चाहिए। विधायिका में सम्मिलित लोग सिर्फ संविधान और कानून बनाते हैं किंतु क्रियान्वित नहीं कर सकते इसलिए उनकी नीयत पर विश्वास अधिक महत्व रखता है। कार्यक्षमता कम महत्व की मानी जाती है। कार्यपालिका के लोगों की कार्यक्षमता विशेष महत्व रखती है। नीयत का कम महत्व माना जाता है। यदि विधायिका के चयन में भी कार्यपालिका के समान ही नीयत की तुलना में कार्यक्षमता को अधिक महत्वपूर्ण मान लिया गया तब चेक एंड बैलेंस का महत्व समाप्त हो जाएगा। हरियाणा सरकार तथा अन्य कई प्रदेशों में विधायकों के लिए न्यूनतम शिक्षा का प्रावधान लागू किया गया है। यह प्रावधान पूरी तरह गलत है क्योंकि विधायिका सिर्फ कानून बनाने वाली इकाई है, क्रियान्वित करने वाली नहीं। विधायिका की नीयत सर्वोच्च मापदंड है कार्यक्षमता नहीं। यदि शिक्षा को मापदंड घोषित किया गया तब कबीर दास कभी विधायक या विधायिका के आगे नहीं बन सकते। यह भी साफ दिख रहा है कि समाज को बहकाने और ठगने में शिक्षित लोग अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। ऐसी स्थिति में ऐसे चालाक और धूर्त नीयत के लोगों को विधायिका में पहुॅचने की प्राथमिकता पूरी तरह घातक सिद्ध होगी। अब तक भारत में बालिग मताधिकार की छूट दी गई है। पागल को मताधिकार से वंचित किया गया है। अपराधी को भी चुनाव लड़ने से रोका गया है। मेरे विचार से यह सारे नियम आकर्षक दिखते हैं किंतु न्याय संगत नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त है चाहे वह पागल और अपराधी क्यों ना हो। कल्पना करिए कि यदि कुछ डॉक्टरों ने मिलकर किसी व्यक्ति को षड्यंत्र पूर्वक पागल घोषित कर दिया तब क्या उसकी स्वतंत्रता छीन ली जाएगी और ऐसी स्वतंत्रता छीनने का नियम कानून बनाने की व्यवस्था से भी उसे बाहर कर दिया जाएगा। बालिग मताधिकार भी क्यों न्याय संगत माना जाए? क्यों नहीं जन्म लेते ही मत का अधिकार दे दिया जाए। हो सकता है यह आंशिक रूप से अव्यावहारिक लगे किंतु इसका कोई बहुत बड़ा दुष्प्रभाव नहीं हो सकता। हो सकता है कि इस तरह की प्रणाली कुछ अधिक खर्चीली हो किंतु यह मताधिकार सर्वोच्च व्यवस्था अर्थात संविधान के लिए होता है, न कि सरकार के लिए। सरकार के लिए तो प्रति 5 वर्ष में चुनाव करा सकते हैं और उसके लिए मतदान के नियम अलग तरह के भी बना सकते हैं किंतु संविधान निर्माण अथवा संविधान संशोधन के लिए आप किसी व्यक्ति को मतदान से वंचित नहीं कर सकते। भारत में संविधान निर्माण और संशोधन में भी विधायिका की अंतिम भूमिका होती है इसलिए आवश्यक है कि चुनावों में प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता पूर्वक भाग लेने का अधिकार दिया जाए। यदि आपने मतदाताओं की क्षमता पर संदेह व्यक्त किया तो यह उचित नहीं। भारत का मतदाता किसी अपराधी, पागल व विदेशी को योग्य मानता हैं तब मतदाताओं की इच्छा को ही सर्वोच्च सक्षम मापदंड मानना चाहिए। मतदाताओं की इच्छा और क्षमता के उपर कोई अन्य नियम कानून या मापदंड नहीं बनाया जा सकता। यदि आप मतदाताओं की योग्यता का कोई भी मापदंड बनाते हैं तो वह पूरी तरह गलत होगा और भविष्य में इसका दुरुपयोग भी हो सकता है। हो सकता है कि उसका दुरूपयोग कभी लोकतंत्र को तानाशाही में बदल दे और आप इसे किसी भी रुप में न रोक सके। मैं तो इस मत का हूं कि सारी दुनियां के संचालन के लिए ऐसा संविधान बनना चाहिए जिसके बनाने में दुनियां के प्रत्येक व्यक्ति की समान भूमिका हो अर्थात 6 अरब व्यक्ति मतदान द्वारा ऐसा संविधान बना सके। इस संविधान के आधार पर ही विश्व सरकार की कल्पना की जा सकती है जो सिर्फ राष्ट्रो का ही प्रतिनिधित्व नहीं करेगी बल्कि व्यक्ति से लेकर विश्व तक के बीच कार्य कर रही इकाईयों का संघ होगी। इसका अर्थ हुआ कि विष्व व्यवस्था एक अरब परिवारो, कुछ करोड गांवो और इसी तरह प्रदेशो और राष्ट्रो का संघ होगी। ऐसी व्यवस्था में नीचे से लेकर ऊपर तक बने हुए छोटे से बड़े सभी संविधानों की व्यवस्था का समावेश होगा। मैं स्पष्ट हूं कि मताधिकार को सीमित करने की मांग बहुत ही खतरनाक है और ऐसे प्रयत्न को पूरी तरह खारिज किया जाना चाहिए। मंथन का अगला विषय: दान, चंदा और भीख का फर्क