डालर और रूपये की तुलना कितना वास्तविक कितना प्रचार”

कुछ सर्व स्वीकृत सिद्धान्त है।

1 समाज को धोखा देने के लिये चालाक लोग परिभाषाओ को ही विकृत कर देते है उससे पूरा अर्थ भी बदल जाता है। ऐसी विकृत परिभाषा को प्रचार के माध्यम से सत्य के समान स्थापित कर दिया जाता है। 2 दुनियां मे परिभाषाओ को विकृत करने का सबसे अधिक प्रयास साम्यवादियो ने किया और सबसे कम मुसलमानो ने। 3 दुनियां मे योजना पूर्वक पचासो परिभाषाए पूरी तरह बदल दी गई है। इनमे मंहगाई बेरोजगारी गरीबी महिला उत्पीडन आदि अनेक परिभाषाए शामिल है। 4 गुलामी के बाद भारत मे अपना चिंतन बंद हो गया और भारत सिर्फ नकल करने लगा। साम्यवाद और पश्चिम की विकृत परिभाषाओ को भारत मे सत्य के समान मान लिया गया जो अब तक जारी है। 5 मंहगाई सेन्सेक्स बेरोजगारी जी डी पी रूपये का मूल्य ह्रास आदि से सारा भारत चिंतित है जबकि उनमे से किसी का भारत की सामान्य जनता पर अब तक कोई अच्छा बुरा प्रभाव नही पडा। 6 मंहगाई जी डी पी बेरोजगारी रूपये का मूल्य ह्रास सेन्सेक्स आदि का सामान्य अर्थ व्यवस्था पर बुरा प्रभाव पडने का प्रचार काल्पनिक है यथार्थ नही। अपने 65 वर्षो के लगातार चिंतन के बाद भी मै कभी नही समझा कि मंहगाई बेरोजगारी जी डी पी का भारत के सामान्य जन जीवन पर क्या और कितना अच्छा बुरा प्रभाव पडा। स्वतंत्रता के बाद मंहगाई कितनी बढी और उसका क्या प्रभाव पडा यह बताने वाला कोई नही। कौवा कान ले गया और अपना कान न देखकर कौवे के पीछे पूरा भारत भाग रहा है। भारत मे आवश्यक वस्तुओ मे मंहगाई स्वतंत्रता के बाद करीब 60 गुनी बढी है और औसत जीवन स्तर इसके बाद भी सुधर कर करीब चार गुना बढ गया। सेन्सेक्स घटने बढने का तो प्रभाव कुछ समझ मे ही नही आता। जी डी पी भी हर साल घटते बढते रहता है लेकिन न कभी अच्छा प्रभाव दिखा न कभी बुरा। बेरोजगारी घटने बढने का भी कोई अच्छा बुरा प्रभाव आज तक स्पष्ट नही हुआ क्योकि इन सबकी जान बुझकर परिभाषाए बदलने मे पश्चिम की नकल की गई । जब परिभाषा ही बदल दी गई तब वास्तविक अर्थ का पता ही नही चलेगा। यदि आपको दो और दो पांच लगातार पढाया जाये तो उससे आपके निष्कर्ष गलत होना स्वाभाविक है। दोष निष्कर्ष निकालने वाले का नही है बल्कि गलत परिभाषा का है। भारत मे डालर की तुलना मे रूपये के गिरते मूल्य की बहुत चिंता हो रही है। देश का हर आदमी चिंता कर रहा है कि रूपये का मूल्य गिरकर 70 रूपये के आस पास हो गया है। मै तो भावनात्मक रूप से इन सारे प्रचार को षणयंत्र मानता हॅू क्योकि यदि वास्तव मे डालर की तुलना मे रूपया स्वतंत्रता के बाद 70 गुना गिर गया तो उसका प्रभाव भारत की अर्थ व्यवस्था पर अब तक कितना पडा यह बताने वाला कोई नही है। आर्थिक दृष्टि से जो भी लोग अखबारो मे या इस मूल्य ह्रास की चर्चा करते है वे पश्चिम की कितावे पढकर उस गलत परिभाषा के आधार पर परिस्थितियो का आकलन करते है जबकि परिभाषा गलत होने से सारे परिणाम भी गलत हो जाते है । मै दशको से सुनता रहा हूॅ कि डालर की तुलना मे रूपया गिर गया और उसके प्रभाव से भारत पर विदेशों का कर्ज बढ गया । लेकिन मै आज तक नही समझा कि कर्ज बढा या नही और यदि बढा तो कितना बढा और उसका भारत की अर्थ व्यवस्था पर बुरा प्रभाव क्यो नही दिखा। सन 47 मे एक डालर का मूल्य एक रूपये के बराबर था जो आज करीब 70 रूपये के बराबर हो गया है तो क्या भारत पर विदेशों का कर्ज 70 गुना बढ गया । मैने इस संबंध मे जब अपनी परिभाषाओ के आधार पर सोचना समझना शुरू किया तो मुझे स्पष्ट दिखा कि ये सब कुछ भ्रम पैदा करने का प्रभाव है । न तो भारत पर कोई कर्ज बढा है न कोई उसका प्रभाव पडा है। एक आकलन के अनुसार स्वतंत्रता के बाद भारत मे अपने रूपये का आंतरिक मूल्य करीब 95 रूपये के बराबर हो गया है । इसका अर्थ हुआ कि भारत मे जो औसत वस्तुए उस समय एक रूपये मे मिलती थी वे यदि आज 95 रूपये मे मिलती है तो इस प्रकार का कोई बदलाव नही हुआ है। न कोई चीज सस्ती हुई है न मंहगी। स्पष्ट है कि इस आधार पर भारत मे डालर का मूल्य भी 95 रूपये होना चाहिये था जो अभी 70 रूपये के आस पास है। इसका भी एक कारण है भारत मे स्वतंत्रता के बाद औसत मूल्य वृद्धि साढे छ प्रतिशत वार्षिक की है । प्रत्येक 10 वर्ष मे रूपये की किमत आधी हो जाती है अमेरिका मे डालर का मूल्य 10वर्षो मे 10 प्रतिशत के आसपास ही घटता है । यही कारण है कि जहां रूपये का आंतरिक मूल्य 10 वर्षो मे दो गुना हो जाता है वही डालर की तुलना मे रूपये का मूल्य 12 वर्षो मे दो गुना होता है। अर्थात यदि सन 47 मे डालर एक रूपया के बराबर था तो बारह वर्षो के बाद दो के बराबर चालिस वर्षो के बाद करीब आठ के बराबर और अब सत्तर वर्षो के बाद करीब 75 रूपये के बराबर होना चाहिये था जो अभी 70 के आस पास है। स्पष्ट है कि रूपया अब भी डालर की तुलना मे कुछ मजबूत है। यह अलग बात है कि मनमोहन सिंह के कार्य काल मे डालर को साठ होना चाहिये था किन्तु 44 पर रूका था। स्पष्ट है कि आर्थिक मामलो मे मनमोहन सिंह बहुत अधिक सिद्ध हस्त थे। विदेशी कर्ज रूपये के आधार पर कभी घटता बढता नही है। कल्पना करिये कि सन 47 मे शक्कर एक रूपया अर्थात डालर की दो किलो उपलब्ध थी। यदि हम पर 100 डालर का कर्ज था तो उसके बदले हमे दो सौ किलो शक्कर देनी पडेगी। आज भी यदि हम पर 100 डालर का कर्ज है और शक्कर 70 रूपये के बराबर है तो हमे 200 किलो ही शक्कर देनी है। रूपया वस्तु का स्थान नही ले सकता । बल्कि वह तो सिर्फ एक विनिमय माध्यम है। रूपये के आंतरिक मूल्य घटने बढने का विदेशी लेने देन पर कोई अच्छा बुरा प्रभाव तब तक नही होता जब तक लेन देन विदेशी मुद्रा मे न होकर भारतीय मुद्रा मे न हो । आम लोगो को आर्थिक मामलो मे धोखा देने के लिये घाटे का बजट जान बूझकर बनाया जाता है जिससे मंहगाई मुद्रा स्फीति और अन्य अनेक आर्थिक भ्रम फैलाने मे सुविधा हो । आयात निर्यात भी इसमे बहुत प्रभाव डालता है। यदि आयात अधिक होगा और निर्यात कम तो अर्थ व्यवस्था पर प्रभाव पडना निश्चित है। सरकारे राजनैतिक लाभ के लिये कभी नही चाहती हैं कि आयात निर्यात का संतुलन हो । क्योकि यदि आयात कम होगा तो सुविधाएं घटेगी। झुठे वादे और यथार्थ के बीच अंतर बढ जायेगा। इसका राजनैतिक दुष्प्रभाव स्वाभाविक है। स्पष्ट दिखता है कि डीजल पेट्रोल का आयात सबसे बडी समस्या है। वर्तमान समय मे इसे कम करने का किसी तरह का कोई प्रयास नही हो रहा है क्योकि खाडी देशों से संबंध भी सुधारने है । साथ ही डीजल पेट्रोल के आयात के खेल मे दो नम्बर का भी काम बहुत होता है और आयात कम करने से आवागमन मंहगा होगा जिससे मध्यम उच्च वर्ग का आक्रोश झेलना पडेगा। इसलिये कोई भी सरकार सब कुछ कर सकती है किन्तु डीजल पेट्रोल का आयात घटने नही देगी। आवागमन कभी मंहगा नही होने देगी। मैन यह लेख मंथन के अंतर्गत लिखा गया है कोई अंतिम निष्कर्ष नही है । मै नही कह सकता कि मेरे लेख मे सभी निष्कर्ष सही होंगे किन्तु मै अपने साथियो से जानना चाहता हूॅ के मेरे चिंतन मे कहां गलत है और क्या गलत है । यदि कोई बात गलत होगी तो मै सुधारने के लिये सहमत हॅू। मेरी हार्दिक इच्छा है कि विदेशो की नकल करके असत्य को सत्य के समान स्थापित करने की भारतीय आदत को चुनौती देनी चाहिये । इसी उद्देश्य से मंथन के अंतर्गत यह लेख लिखा गया है। नोट- मंथन का अलगा विषय हिंसा या अहिंसा होगा।