बेरोजगारी

बेरोजगारी

व्यक्ति को रोजगार प्राप्त कराना राज्य का स्वैच्छिक  कर्तव्य होता है, दायित्व नहीं। क्योंकि रोजगार व्यक्ति  का मौलिक अधिकार नहीं होता, बल्कि संवैधानिक अधिकार मात्र होता है। रोजगार की स्वतंत्रता व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है। हमारे संविधान विशेषज्ञों की नासमझी के कारण कभी कभी रोजगार को मौलिक अधिकार कह कर संविधान में शामिल कर लिया जाता है।

        रोजगार देना राज्य का दायित्व न होते हुए भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मानी जाती है। क्योंकि मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में व्यक्ति कभी कभी अपराध करने  को मजबूर हो जाता है। ऐसे अपराध राज्य के लिए समस्या पैदा करते है। इसलिए राज्य का महत्वपूर्ण  कार्य है कि वह अभावग्रस्त लोगों की मजबूरी को  दूर करे। ऐसी मजबूरी यदि मुफ्त में बांटकर दूर की जायेगी तो वह एक नई समस्या पैदा करेगी। इसलिए राज्य बेरोजगारी को एक समस्या मानकर उसे दूर करने का प्रयास करता है।

         पिछले कई सौ वर्षो से समाज व्यवस्था पर बुद्धिजीवियों का विशेष हस्तक्षेप रहा है। किन्तु स्वतंत्रता के बाद तो भारत की सम्पूर्ण संवैधानिक व्यवस्था में बुद्धिजीवियों तथा पॅूजीपतियों का एकाधिकार हो गया है। वैसे तो दुनिया के अन्य अनेक देशो में भी ऐसा है किन्तु भारत में तो यह स्थिति विशेष रुप से दिखती है। बुद्धिजीवियों ने सबसे पहले  बेरोजगारी शब्द की परिभाषा बदल दी। आज बेरोजगारी की क्या परिभाषा है, यही अब तब स्पष्ट  नहीं है। कहा जाता है कि योग्यतानुसार कार्य  का अभाव बेरोजगारी है। प्रश्न उठता है कि एक श्रमिक भूख की मजबूरी में 100 रु में कहीं दिनभर  काम कर रहा है,और एक इन्जीनियर 500 रु प्रतिदिन में भी काम न करके बेरोजगार बैठा है क्योकि 500 रु प्रतिदिन उसकी योग्यता की तुलना में बहुत कम है। सच्चाई तो यह है कि एक सीमा से नीचे श्रम मुल्य पर काम करने वाले मजबूर श्रमिक को बेरोजगार माना जाये तथा उससे उपर प्राप्त करने की प्रतिक्षा में बेरोजगार बैठे इन्जीनियर को बेरोजगार न मानकर उचित रोजगार की प्रतिक्षा में माना जाये। किन्तु बुद्धिजीवियों ने धुर्ततापूर्वक रोजगार की ऐसी परिभाषा बना दी कि मजबूरी में काम कर रहे को रोजगार प्राप्त तथा उचित रोजगार की प्रतिक्षा में बैठे को बेरोजगार घोषित कर दिया। बेरोजगारी की वर्तमान भ्रमपूर्ण परिभाषा को बदलने की जरुरत है। किसी स्थापित व्यवस्था द्वारा घोषित न्युनतम श्रम मुल्य पर योग्यतानुसार कार्य का अभाव ही बेरोजगारी की ठीक परिभाषा हो सकती है। किन्तु मैं जानता हॅू कि इस परिभाषा को न बुद्धिजीवी स्वीकार करेंगे, न ही सरकार।

             व्यक्ति के भरण पोषण के लिए तीन माध्यम होते है- 1 शारीरिक श्रम 2 बुद्धि  3 धन। श्रम तो सबके पास होता है किन्तु बुद्धि प्रधानता कुछ लोगों के पास होती है तथा धन प्रधानता तो और भी कम लोगों के पास होती है। एक व्यक्ति के पास जीवनयापन के लिए सिर्फ श्रम है। दूसरे के पास श्रम और बुद्धि भी है। तीसरे के पास श्रम बुद्धि और धन भी है। मैं आज तक नहीं समझा कि शिक्षित बेरोजगार कैसे माना जा सकता है क्योंकि उसके पास तो श्रम और बुद्धि दोनों रहना प्रमाणित है। सच्चाई यह है कि बुद्धिजीवियों ने श्रम शोषण के लिए चार सिद्धांत बनाये है-1 कृत्रिम उर्जा मुल्य नियंत्रण 2 शिक्षित बेरोजगारी को मान्यता 3 श्रम मुल्य वृद्धि की सरकारी घोषणाएं 4 जातीय आरक्षण। स्पष्ट है कि भारत की बुद्धि प्रधान अर्थव्यवस्था श्रम शोषण के लिए चारों सिद्धांतो पर पूरी इमानदारी से अमल करती है। यह स्पष्ट है कि न्यायपूर्ण तरीके से बेरोजगारी दूर करने का एकमात्र माध्यम है, श्रम की मांग बढे किन्तु हमारे देश के आर्थिक विशेषज्ञ सारी शक्ति लगाकर श्रम की मांग नहीं बढने से रोकने का प्रयत्न करते रहते है। 70 वर्ष की स्वतंत्रता के बाद भारत दुनिया के देशों से आर्थिक  प्रतिस्पर्धा की चुनौती दे रहा है। तो दूसरी ओर भारत में आज भी ऐसे बेरोजगारों की संख्या करीब 15 प्रतिशत है,  जो 30 रु प्रतिदिन से कम पर अपना गुजारा करने के लिए मजबूर है। आज भी भारत सरकार ने 5 व्यक्ति को परिवार मानकर 160 रु प्रतिदिन का न्यूनतम श्रममूल्य घोषित किया है। किन्तु इस श्रम मूल्य पर भी सरकार सबको रोजगार की गारण्टी नहीं दे पा रही। मुझे जानकारी है कि सरकारी बेरोजगारों की सूची में ऐसे वास्तविक बेरोजगारों का नाम शामिल नहीं है। दूसरी ओर  इस सूची में उन सब लोगों के नाम शामिल है जो उचित रोजगार की प्रतिक्षा में काम करने के अभाव में घर बैठे है।

           श्रम की मांग बढे बिना न तो बेरोजगारी दूर हो सकती है, न ही न्यायपूर्ण अर्थव्यवस्था कही जा सकती है। यदि भारत सरकार वास्तव में वास्तविक बेरोजगारी को दूर करना चाहती है तो उसे कृत्रिम उर्जा की भारी मूल्यवृद्धि कर देनी चाहिए। साथ ही उसे शिक्षा पर लगने वाला पूरा खर्च बंद करके कृषि की ओर स्थानान्तरित कर देना चाहिए। तीसरी बात यह भी है कि उसे श्रम के वास्तविक मूल्य से अधिक बढाकर घोषणा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि एक मान्य सिद्धांत है कि किसी वस्तु का मूल्य बढता है तो मांग घटती है और मांग घटती है तो मूल्य घटता है। जब श्रम मूल्य वृद्धि की घोषणा होती है तथा उस वृद्धि के अनुसार रोजगार की गारण्टी नहीं होती, तब दो प्रकार के श्रम मूल्य प्रचलित हो जाते है। ऐसी स्थिति में श्रम की मांग घटती है और बेरोजगारी बढती है।

          मेरे विचार से बेरोजगारी की परिभाषा बदल देनी चाहिए। कृत्रिम उर्जा की मूल्यवृद्धि कर देनी चाहिए तथा भारत की अर्थव्यवस्था पर बुद्धिजीवियों के एकाधिकार को समाप्त कर देना चाहिए। तब भारत बहुत कम समय में ही बेरोजगारी से मुक्त होने का दावा कर सकेगा। जब तक भारत में वास्तविक बेरोजगारी है, तब तक हमारी कितनी भी आर्थिक उन्नति, हमारी सर गर्व से उंचा करने में बाधक बनी रहेगी।