विचार और साहित्य

विचार और साहित्य


साहित्य और विचार एक दूसरे के पूरक होते हैं। एक के अभाव में दूसरे की शक्ति का प्रभाव नही होता। विचार तत्व होता है, मंथन का परिणाम होता है, मस्तिष्क ग्राह्य होता है तो साहित्य विचारक के निष्कर्षों को आधार बनाता है मंथन का अभाव होता है, हृदय ग्राह्य है, कला प्रधान होता है। विचार घी है तो साहित्य मट्ठा, विचार लंगड़ा है तो साहित्य अँधा, बिना साहित्य के विचार की स्थिति एक वस्त्रहीन नारी के समान है और बिना विचार के साहित्य वस्त्रालंकृत मट्टी की मूर्ति। दोनों का प्रभाव एक साथ जोड़कर ही हो सकता है। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो विचार और साहित्य किसी एक ही व्यक्ति में पूरा नहीं पाया जाता। किसी भी व्यक्ति में साहित्य या विचार में से कोई एक अधिक होता है तो दूसरा कम। विचारकों द्वारा गंभीर विचार मंथन के बाद निकाले हुए निष्कर्ष को समाज तक पहुंचाने का दायित्व साहित्यकार का है। इस तरह विचार फल का बीज है और साहित्य पेड़। साहित्य अपने परिणाम समाज में इस प्रकार देता है कि वह परिणाम अंत में विचार तक पहुंच जाये। न तो साहित्य के अभाव में विचारक का विचार समाज तक पहुँच पाता है न ही विचारों के अभावों में साहित्य अंत में समाज में विचार का स्वरुप ग्रहण कर पाता है। साहित्य और समाज एक दूसरे के पूरक होते हैं साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है। यदि साहित्य में कोई विकृति दिखती है तो वह समाज की विकृति है, साहित्य की नहीं क्योंकि साहित्य तो समाज का दर्पण होता है। जो समाज के चेहरे को स्पष्ट मात्र करता है। दूसरी ओर ऐसा भी माना जाता है कि साहित्य ही समाज के स्वरुप का निर्माण करता है। साहित्य वह कारीगर है जो समाजरुपी मूर्ति को निरंतर काट-छांटकर उसे समझने योग्य स्वरुप देने में लगा रहता है। इन दोनों ही सिद्धान्तों की मान्यता है भले ही इनके अर्थ भिन्न-भिन्न ही क्यों न हों।

साहित्य पर विचारों का भी बहुत प्रभाव पड़ता है तथा सामाजिक मान्यताओं का भी। साहित्यकार कभी-कभी महत्वपूर्ण विचारों से प्रभावित होकर साहित्य की रचना करता है तो कभी-कभी सामाजिक मान्यताओं से प्रभावित होकर भले ही ऐसी मान्यताएं या ऐसे विचार विकार ग्रस्त ही क्यों न हों। वर्तमान समय में भारत में सभी सामाजिक इकाईयों का अथःपतन हुआ है। साहित्य भी इस अध:पतन से अछूता नही है। साहित्य में भी वैसी ही गिरावट आयी है। आदर्श स्थिति वह होती है जब विचारक और साहित्यकार दोनों ही स्वतंत्र हों, बीच की स्थिति वह होती है जब विचारक और साहित्यकार दोनों स्वेच्छा से किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध हो जावें, और सबसे बुरी स्थिति वह होती है जब विचारधाराएं अपने-अपने स्वार्थ के आधार पर विचारक और साहित्यकार तैयार करने लगे तथा ऐसे साहित्यकार चारण या भाट के रूप में उन विचारधाराओं का गुणगान करने पर उतर आवें। वर्तमान समय में समाज में विचारकों का अभाव हो गया है, मंथन प्रक्रिया मृतप्राय है, निष्कर्ष नही निकल रहे हैं, राजनेता या संगठन प्रमुख ही विचारक बन बैठे हैं। ये राजनेता जो निष्कर्ष निकालते हैं वही साहित्यकार के लिए विचार बन जाता है और साहित्यकार उसे निष्कर्ष मानकर पूरी ईमानदारी से समाज तक पहुंचा देता है। उक्त विचार न तो निष्कर्ष होता है न ही मंथन प्रक्रिया होती है अतः ऐसे संगठनो द्वारा निकाले गए निष्कर्ष साहित्यकारों द्वारा समाज तक पहुँचाने के बाद भी परिणाम शून्य या विपरीत भी होते हैं। राजनेता या धर्मगुरु दिल्ली से दहेज चिल्लाते हैं तो साहित्यकार भी दहेज ही दहेज को समस्या के रूप में समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। जब राजनेता महंगाई, गरीबी, महिला अत्याचार का हल्ला करते हैं तब भी साहित्यकार इन मुद्दों को समाज तक पहुँचाने में देर नही करता जबकि स्वतंत्र विचारकों के विचार मंथन के बाद पाया गया कि महंगाई, गरीबी, महिला अत्याचार, दहेज, शिक्षित बेरोजगारी जैसी समस्याएं पूरी तरह अस्तित्वहीन हैं किन्तु साहित्य ने उसे इस तरह समाज के समक्ष प्रस्तुत किया है कि पूरा समाज इन अस्तित्वहीन समस्याओं से भी स्वयं को पीड़ित करता है। इसका प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर वर्ग संघर्ष के रूप में दिख रहा है। दोष तो यह है कि विचारकों के अभाव में राजनेता ही विचारक बन बैठे हैं।
तीसरी तरह के साहित्यकार भी समाज की समस्याएं नही हैं क्योंकि सब लोग उन्हें व्यक्ति पूजक चारण या भाट जानते हैं और मानते भी हैं। ऐसे घोषित प्रतिबद्ध साहित्यकारों तथा विचारकों का समाज पर विशेष प्रभाव नही होता। किन्तु दूसरे तरह के साहित्यकार बहुत घातक प्रभाव छोड़ रहे हैं। ये लोग स्वतंत्र न होकर किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं। स्वतंत्र साहित्यकार किसी से बंधा नही होता किन्तु ये लोग पूरी तरह बंधे होते हैं। इन प्रतिबद्ध साहित्यकारों में कई लोग मूल रूप से साहित्यकार नही होते बल्कि संस्थाएं ऐसे लोगों की पहचान करके उन्हें दीक्षित करती है और धीरे-धीरे साहित्य के क्षेत्र में स्थापित कर देती हैं। कई विदेशी एजेंट भी ऐसे प्रतिबद्ध लोगों को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान देकर उन्हें और बड़ी पहचान दिलाते हैं। ये लोग साहित्य के लिए विचारों का चयन नही कर पाते बल्कि साहित्य की विधा का अपने लिए उपयोग करते हैं। प्राचीनकाल में ऐसी समस्या यदा-कदा ही होती थी किन्तु वामपंथ ने इसका भरपूर उपयोग किया। वामपंथ ने साहित्यकारों का एक अलग वर्ग बना दिया जिसने प्रगतिशील या जनवादी जैसे नामों से साहित्यकारों के गुट खड़े कर लिए। साहित्यकार की स्वतंत्रता पूरी तरह प्रतिबद्ध हो गई। इन साहित्यकारों ने ऐसा ताना-बाना बुना कि धर्मनिरपेक्षता, अमेरिका विरोध आदि विचार इनके बंधक बन गए। ये वामपंथी साहित्यकार धीरे-धीरे साहित्य पर इस तरह छा गए कि स्वतंत्र साहित्य तो दिखना ही बन्द हो गया और धीरे-धीरे दक्षिणपंथी साहित्यकारों ने भी वही मार्ग चुना है। अब संस्कृति और राष्ट्रीयता शब्द इनके गुलाम बन गये हैं। किसी भी बात को किसी भी तरह तोड़-मरोड़कर संघ परिवार के पक्ष में स्थापित करना इनकी साहित्यकला मानी जा रही है। भारत का साहित्यिक परिवेश दो विचारधाराओं के साहित्य युद्ध में फंस गया है। अब तक जिस तरह साहित्य पर वामपंथियों का कब्ज़ा रहा किन्तु प्रारम्भ में महाश्वेता देवी को नारंग जी के माध्यम से चुनाव में हराकर दक्षिण पंथ ने वामपंथी साहित्य को चुनौती दी तथा अब जे. एन. यू. टकराव के माध्यम से हार-जीत का खेल चल रहा है वह न साहित्य के लिए शुभ लक्षण है न विचारों के लिए। स्वतंत्र साहित्यकार को किसी राजनैतिक, धार्मिक विचारधारा मात्र का गुलाम नही होना चाहिये। वामपंथ पूरी तरह राजनैतिक उद्देश्यों के लिए साहित्य का उपयोग कर रहा है। दक्षिणपंथ भी अब संघ परिवार के राजनैतिक उद्देश्यों के लिए समर्पित है। नये-नये शोध, नये-नये निष्कर्षों को समाज तक पहुंचाने के लिए स्वतंत्र साहित्यकार कहाँ मिलेंगे। क्या अब नए विचार इसलिये समाज से बाहर हो जायेंगे कि उसे स्थापित करने के लिए उसके साथ स्वतंत्र साहित्यकारों का अभाव है। आज की जो स्थिति है इसके लिए वामपंथी दोषी हैं कि दक्षिणपंथी यह मेरी चिंता का विषय नहीं है, मेरी चिंता तो यह है कि स्वतंत्रता कहाँ जाकर पैर जमा सकेगी।

मै चाहता हूँ की साहित्य समाज में विचारों का संवाहक बने और रहे। किन्तु वह किसी पेशेवर दुकान का ट्रेडमार्क बनने से बचे अन्यथा साहित्य भी उसी तरह दलदल में फंस जाएगा जिस तरह धर्मनिर्पेक्षता या भारतीय संस्कृति।

पिछले कई सौ वर्षों से भारत में विचार मंथन का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। नए स्वतंत्र और गंभीर विचारक निकल नही पा रहे हैं। और यदि अपवाद स्वरुप कोई निकलता भी है तो उसका स्तर पिछले विचारकों की तुलना में बहुत कमजोर होता है। क्योंकि न तो ऐसे विचारकों को साहित्य का कोई सहारा मिल पाता है, न ही समाज का बल्कि प्रतिबद्ध संगठन ऐसे गंभीर विचारकों के प्राथमिक लक्षण दिखते ही उन्हें अपना पिछलग्गू बनाने के लिए येन-केन प्रकारेण प्रयासरत हो जाते हैं। स्थिति निराशाजनक है। फिर भी पिछले एक दो वर्षों से कुछ अप्रतिबद्ध विचारक सोशल मीडिया तथा अन्य माध्यमों से स्वतंत्र विचार के क्षेत्र में आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। यद्यपि कभी-कभी ऐसा दिखता है कि ऐसे स्वतंत्र विचारों को प्रतिबद्ध वामपंथी या दक्षिणपंथी साहित्यकारों का विरोध भी झेलना पड़ता है, किन्तु सामाजिक जागरूकता ऐसे स्वतंत्र विचारों को धीरे-धीरे आगे बढा रही है। निराश होने की कोई बात नही है। फिर से विचारकों का स्तर और प्रभाव बढ़ेगा। साहित्य ऐसे स्वतंत्र विचारों को आगे बढ़ाएगा। और समाज का अथःपतन रूककर उत्थान की दिशा में जायेगा।