क्षेत्रीयता कितनी समाधान कितनी समस्या

आदर्श व्यवस्था के लिये नीचे वाली और उपर वाली इकाईयों के बीच तालमेल आवश्यक है, यदि यह तालमेल बिगड़ जाये तो अव्यवस्था होती है, जो आगे बढकर टकराव के रूप में सामने आती है । वर्तमान भारत की शासन व्यवस्था में प्रदेश और केन्द्र दो ऐसी ही अलग-अलग इकाईयां हैं । प्रदेशो को अनेक प्रकार की स्वतंत्रताएं दी जाती हैं । इन स्वतंत्रताओं का दुरूपयोग करके प्रदेश यदि अन्य प्रदेशो से टकराव का स्वरूप ग्रहण कर लें तब पूरी राष्ट्रीय एकता पर बुरा प्रभाव पडता है ।

राज्य अर्थात राष्ट्रीय सरकारें यह प्रयत्न करती हैं कि समाज कभी एकजुट न हो जाये । यदि समाज एकजुट हो जाये तब राज्य को अपने उपर खतरा दिखने लगता है । इस सामाजिक एकता को छिन्न-भिन्न करने के लिये राज्य फूट डालों और राज करों की नीति पर निरंतर चलता रहता है । इसके लिये राज्य अनेक शस्त्रों का उपयोग करता है । ऐसे शस्त्रों में आठ प्रमुख माने जाते है । 1. धर्म 2. जाति 3. भाषा 4. क्षेत्रियता 5. उम्रभेद 6. लिंग भेद 7. आर्थिक भेद 8. उत्पादक/उपभोक्ता । इन आठों में से प्रत्येक पर राज्य निरंतर सक्रिय रहता है । चाहे सरकार किसी भी दल की क्यों न हो किन्तु पूरी ईमानदारी से सभी दल इस फूट डालो की नीति पर मिल-जुलकर काम करते हैं । कभी किसी एक मुद्दे को आगे बढाकर वर्ग संघर्ष को बढाया जाता है तो उस मुददे को ठंडा होते ही कोई एक नये वर्ग संघर्ष की तैयारी होने लगती है निरंतर वर्ग संघर्ष के माध्यम से समाज में टकराव चलता रहे इसके लिये लगातार किसी न किसी मुददे को आगे बढाना ही सफल राजनीति मानी जाती है । क्षेत्रीयता अर्थात प्रादेशिकता भी इन आठ प्रकार के टकरावों में एक महत्व पूर्ण स्थान रखती है । हर एक-दो वर्ष में कहीं न कही क्षेत्रीयता के नाम पर जन उभार का प्रयत्न शुरू किया जाता है । सभी राजनैतिक दल दो गुटों में बंटकर आपस में टकराव का नाटक करते है और उस नाटक के दर्शक भावनाओं में बहकर आपस में वास्तविक टकराव में उलझ जाते हैं । परिणाम होता है कि दोनो सामाजिक समूहों में स्थायी रूप से वैमनस्यं की मजबूत दीवार खडी हो जाती है । राजनैतिक दल इस प्रकार के क्षेत्रीय संघर्ष को रोकने के नाम पर कुछ नये कानून बनाकर अपनी शक्ति बढ़ा लेते हैं तथा कुछ वर्षो के बाद किसी दूसरे क्षेत्र में पुनः उस शस्त्र का उपयोग करते है ।

हम वर्तमान भारत का आंकलन करें तो स्वतंत्रता के बाद लगातार पूरे देश में क्षेत्रीयता का विस्तार किया गया । शान्त वातावरण में पंडित नेहरू ने सबसे पहले भाषावार प्रांत रचना के नाम से ऐसा बीच बोया जिसने भारत को स्थायी रूप से उत्तर और दक्षिण में बाँट दिया । वह खाई अब तक नहीं मिटी है । इस क्षेत्रीय विभाजन के प्रमुख सूत्रधार एम करूणा निधि जी इसी माध्यम से सत्ता के शीर्ष तक बनें रहने में कामयाब रहे । उनकी सबसे बडी खूबी यही मानी जाती है कि उन्होंने क्षेत्रीयता को सत्ता का माध्यम मान लिया और सफल हुये । इसी प्रकार बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र और मराठी के नारे को सत्ता का माध्यम बना लिया और सफल भी हुये, इन लोगो ने खुले आम हिंसा को प्रोत्साहित किया । उन्होंने सारी संवैधानिक और सामाजिक मान्यताओं का उल्लंघन किया यहाँ तक कि बाल ठाकरे तो अपनी तुलना शेर से करने लगे थे । किसी लोकतांत्रिक देश में कोई दादा समाज की तुलना गाय से और स्वयं की शेर से करे और वह व्यक्ति सम्मानित हो यह लोकतंत्र का खुला अपमान है । इस सीमा तक क्षेत्रीयता का नंगा नाच हम सबने देखा है । यदि हम व्यक्तिगत आधार को छोड़ दे और सामान्य जन मानस में क्षेत्रीयता के जहर का आंकलन करें तो इसमें सबसे ऊपर नंबर बिहार का आता है । आबादी बढाने में भी बिहार आगे रहता है तो दूसरे प्रदेशो में रहते हुये क्षेत्रीय एकता का दुरूपयोग करने में भी बिहार की अग्रिम भूमिका रहती है । जब क्षेत्रीयता के नाम पर सारे नियम कानून को किनारे करके कोई व्यक्ति या समूह समाज में प्रगति करने लगता है तो अन्य लोग भी उस मार्ग पर चलना शुरू कर देते है । इस प्रकार अन्य प्रदेशो में भी छत्तीसगढी या गढवाली के नाम पर क्षेत्रियता के विष बीज अंकुरित होने लगते है । स्वाभाविक है कि राजनीतिज्ञ ऐसे अंकुरण का लाभ उठाने को तैयार दिखते हैं और खाद पानी देकर उस विष वृक्ष को इतना मजबूत कर देते है कि वह उन लोगो के लिये छाया बन जाता है । मैंने स्वयं देखा है कि क्षेत्रीयता की आवाज मजबूत करने वाला हर व्यक्ति कहीं न कहीं राजनैतिक व्यवसाय से जुड़ने की इच्छा रखता है । कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिलता जो सामाजिक धारणा भी रखता हो और क्षेत्रियता को भी प्रोत्साहन दे । राजनीति का तो क्षेत्रियता के प्रोत्साहन देना मुख्य आधार ही माना जाता है ।

क्षेत्रीयता के विस्तार में मुख्य रूप से बुद्धिजीवियों का स्वार्थ छिपा होता है, किन्तु बहुत चालाकी से ऐसे लोग भावना प्रधान लोगो को आगे करके उन्हें टकराव के लिये प्रोत्साहित करते हैं । समाज के लोग दो गुटों में बंटकर टकराते हैं तथा दोनो गुट अपना नुकसान करते है किन्तु राजनेता इस टकराव का लाभ उठाते हैं । समस्या बहुत जटिल हो गयी है, अब तो पूरे भारत में क्षेत्रीयता की भावना बढती जा रही हैं । योग्यता के स्थान पर स्थानीय लोगों को रोजगार में प्राथमिकताये दी जाये इसकी मांग खुलेआम होने लगी है । क्षेत्रीयता और भाषा को भावनात्मक मुददा बनाने के लिये उसके साथ संस्कृति को भी जोड लिया जाता है । इस तरह भाषा और संस्कृति को जोड़कर क्षेत्रीयता की आग जलाई जाती है जबकि न भाषा का क्षेत्रीयता से कोई संबंध होता है न संस्कृति का ।

समस्या जटिल है किन्तु बहुत खतरनाक है । समस्या लगातार बढती जा रही है राजनीति से जुडे लोग इस समस्या को उभार कर अपनी राजनीतिक रोटी सेकने में लगे हैं । समाज के ही विद्वानों को इसका समाधान खोजना चाहिये । सबसे बडी भूल संविधान निर्माताओं से हुई कि उन्होंने प्रदेशो को अंतिम अधिकार दे दियें । यदि केन्द्र से लेकर कुछ अधिकार प्रदेशो को दिये गये थे तो प्रदेशो से लेकर कुछ अधिकार जिला, गांव और परिवार तक विकेंद्रित करने चाहिये थे । यदि अधिकारों का केन्द्रीयकरण प्रदेश और केन्द्र तक नहीं होता तो न राष्ट्रवाद पनपता न ही क्षेत्रवाद । अधिकारों का इकट्ठा होना ही राजनेताओं को आकर्षित करता है और ऐसे राजनेता अपने स्वार्थ के लिये इन भावनात्मक मुददों को उछालकर उनका लाभ उठाते हैंै। इसलिये अधिकारों का विकेन्द्रीयकरण इस समस्या का सबसे अच्छा समाधान है । समान नागरिक संहिता भी इस समाधान में सहायक हो सकती है । हमें चाहिये कि हम क्षेत्रीयता के नाम पर लाभ उठाने वाले राजनेताओं की मंशा को समझें और ऐसे प्रयत्नों से अपने को दूर रखें ।