आश्रमों में व्यभिचार

आश्रमों में व्यभिचार

किसी सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत बने धर्म स्थानों में कुछ स्थानों को मंदिर या आश्रम कहते है। मंदिर सामाजिक व्यवस्था से संचालित होते है तो आश्रम व्यक्तियों द्वारा स्वतंत्रतापूर्वक चलाये जाते है। सामाजिक व्यवस्था में कई सर्व स्वीकृत सिद्धांत प्रचलित होते हैं-

(1) बलात्कार अपराध होता है और व्याभिचार अनैतिक।

(2) व्याभिचार अनुशासन से नियंत्रित किया जा सकता है, कानून से नहीं। बलात्कार शासन से नियंत्रित किया जाता है।

(3) साम्यवाद ने इस संबंध में सबसे अधिक नुकसान किया । साम्यवाद किसी भी तरह परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को तोडना चाहता था। भारत में इस संबंध में साम्यवाद सफल भी हुआ।

(4) नैतिकता के मापदण्ड यदि अव्यावहारिक होते है तो व्याभिचार और बलात्कार बढते जाते हैं।

(5) राजनीति,धर्म,समाज, बाजार पूरी तरह स्वतंत्र रहते हुए एक दूसरे के पूरक होना ही आदर्श व्यवस्था है। किसी भी एक को शेष तीन की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। वर्तमान भारत में राजनीति, राज्य, सरकार, न्यायालय, मीडिया आदि ने शेष तीन की कमजोरियों का लाभ उठाकर उन्हे गुलाम बना लिया जो घातक है। आश्रम धर्म और समाज की संयुक्त व्यवस्था के अन्तर्गत आते हैं।

(6)यह एक गंभीर सवाल है कि आज भी आश्रमों में अनेक गंभीर विकृतियां आने के बाद भी भारत उन्हें अन्य की तुलना में अधिक अच्छा मानती है। विकृत धार्मिक, सामाजिक व्यवस्था को बिना मांगे इमानदारी से धन देना और सरकारी कार्यो में सभी कानूनों के बाद भी सभी खतरे उठाकर भी टैक्स चोरी करना आम बात है। इस विपरीत अवधारणा में समाज की अपेक्षा राजनैतिक व्यवस्था ही अधिक दोषी हैं।

(7) कहीं कहीं तो ऐसी भी गुप्त व्यवस्था थी कि गांव में किसी योग्य व्यक्ति को अविवाहित रखकर उसका महिलाओं की इच्छापूर्ति के लिए उपयोग किया जाता था। महिलाओं को भी नगर वधु के रुप में रखने की परम्परा रही हैं।

                 भारतीय सामाजिक व्यवस्था में धर्म से प्रारंभ करके मोक्ष तक जाने के बीच में अर्थ और काम की संतुलित सुविधा स्वीकार की गई है। काम इच्छा मानवीय कमजोरी या कोई विकृति नहीं है बल्कि एक स्वाभाविक भूख है जिसे बलपूर्वक नहीं रोका जा सकता। इसका अर्थ यह नहीं है कि अपनी भूख मिटाने के लिए बलात्कार में भी छूट है। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि आप बलात्कार के अतिरिक्त भूख मिटाने के अन्य तरीको को अनैतिक घोषित करके उसमें बाधा उत्पन्न करें। प्राचीन समय में काम को संतुलित किन्तु बाधा रहित रखने के अनेक तरीके बताये गये। ऐसे ही तरीको में विवाह पद्धति सबसे अच्छा तरीका माना गया। विवाह के माध्यम से कामतुष्टि, संतान उत्पत्ति, परिवार का सफल संचालन तथा परस्पर विश्वास को एक साथ जोडकर देखा गया। जिस परिवार में ये सब कुछ अनुशाषित तरीके से चलता रहा उसे आदर्श व्यवस्था माना गया । किन्तु यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति इस व्यवस्था से अपनी काम इच्छा से संतुष्ट हो ही जायेगा । संभव है कि इस परिवार व्यवस्था में कोई आकास्मिक बाधा भी आ जाये अथवा किसी सदस्य की किसी कारणवश पूर्ण संतुष्टि न हो पावे। ऐसी परिस्थिति  में ही समाज ने परिवार के अंदर देवर भाभी के कुछ अनैतिक संबंधो की छूट भी दी थी । फिर भी यदि विशेष परिस्थिति हो तो आश्रमों या धर्म स्थानों को भी इसके लिए विशेष छूट प्राप्त थी। व्यवस्था कुछ इस प्रकार थी कि ऐसे स्थानों से काम इच्छा की पूर्ति तो हो जाये किन्तु परिवार व्यवस्था पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े। आमतौर पर इस प्रकार की आंतरिक स्थिति की समाज में कोई बुराई के रुप में चर्चा नहीं होती थी। अनेक महिलायें किसी कारणवष संतान पैदा नहीं कर पाती थी तो उन्हें भी इस प्रकार की गुप्त सुविधा प्राप्त थी। मैंने तो सुना है कि अनेक आश्रमों ने इस आधार पर कई अच्छे बच्चों को जन्म दिया किन्तु वे बच्चे माता पिता के माने गये। इस तरह आश्रमों के व्याभिचार को एक आपातकालीन विशेष सुविधा के रुप में माना गया। अधिकांश आश्रमों में इस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था मानी जाती है और आज तक चल रही है।

                   प्राचीन समय में इस व्यवस्था में कुछ सतर्कताये भी थी अर्थात् आश्रम संचालक अपनी इच्छापूर्ति के लिए किसी महिला से निवेदन नहीं कर सकता था बल्कि किसी के निवेदन पर ही उसकी इच्छापूर्ति कर सकता था। बाद में इस व्यवस्था में कुछ विकृति आयी और आश्रम प्रमुख अथवा धर्म स्थान प्रमुख अपनी इच्छापूर्ति के लिए इस व्यवस्था का दुरुपयोग करने लगे। इस दुरुपयोग को ही व्याभिचार माना गया। फिर भी यह चलता रहा और आज भी चल रहा है जो एक विकृति कहा जा सकता है किन्तु बलात्कार नहीं, अपराध नहीं।

                  यह सच है कि वर्तमान समय में बलात्कारों की संख्या बढ रही है क्योंकि काम की भूख को बलपूर्वक रोकना संभव नहीं है और वर्तमान सामाजिक राजनैतिक अव्यवस्था उसे बलपूर्वक रोकना चाहती है। एक भूखे को यदि बिना उसे स्वाभाविक भोजन की व्यवस्था किये रोकने का प्रयास किया जायेगा तो वह चोरी भी कर सकता है, लूट भी सकता है। आवश्यकता यह नहीं है कि उसे चोरी करने या लूटने की छूट दी जाये। बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि उसकी मजबूरी का ऐसा सामाजिक मार्ग हो जिसके कारण वह भूखा रहने के कारण चोरी या लूट के लिए मजबूर न हो। कामइच्छा पूर्ति की भूख के संबंध में भी यही स्थिति बनती है अर्थात् व्यक्ति को किसी भी स्थिति में ऐसी मजबूरी का सामना न करना पडे कि वह बलात्कार अथवा व्याभिचार के रास्ते पर जाने को मजबूर हो जाये । इसी व्यवस्था के अन्तर्गत चोरी छिपे सहमत सेक्स को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी। जब से भारत में साम्यवादी विचारधारा बढने लगी तब से परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को तोडने के उददेष्य से इस सामाजिक व्यवस्था के साथ छेडछाड हुई। छोटी छोटी अनैतिकताओं की घटनाओं को बढा चढा कर उसे कानूनी अपराध बनाने का प्रयास हुआ। आज भी अनेक ऐसे साधु संत आपराधिक कानूनी समस्याओं से जूझ रहे है जिन्होने सहमत सेक्स  किया और बलात्कार नहीं किया।

                 मैं समझता हॅू कि यह एक अति संवेदनशील विषय है जिसकी चर्चा कई लोगों को अनावश्यक या अव्यवहारिक भी लग सकती है किन्तु जानबूझकर मैंने इस चर्चा को शुरु किया है । मैं मानता हॅू कि इस सामाजिक व्यवस्था में विकृति बढते बढते गंभीर होती चली गई। जब धर्म स्थानों और आश्रमों के नाम पर धन सम्मान और काम इच्छा पूर्ति के असीमित साधन एक जगह उपलब्ध होने लगे तो लंपट व्यसनी और आपराधिक चरित्र के लोग आश्रम प्रमुख बनने लगे । पुराने जमाने की कठोर सामाजिक व्यवस्था टूट गई और ऐसे आश्रमों का दुरुपयोग भी होने लगा । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि इस व्यवस्था को ही खराब मान लिया जाये। यदि कोई बलात्कार होता है तो उसके लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिये। किन्तु यदि कोई व्याभिचार होता है तो उसके लिए सामाजिक अनुशासन तक ही सीमित रहना चाहिए, कानूनी अपराध तक नहीं। यह तथ्य स्वीकार किया जाना चाहिए कि काम इच्छा पूर्ति प्रत्येक व्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता है और उसमें किसी तरह की बाधा पहुचाना तब तक अपराध है जब तक उसने किसी अन्य की वैसी ही स्वतंत्रता में बाधा पैदा न की हो। आये दिन ना समझ राजनेता काम व्यवस्था से छेडछाड के जो कानून बनाते रहते है वे कानून ही वास्तव में आपराधिक कृत्य माने जाने चाहिए।

                 इस संबंध में मेरा सुझाव है कि साम्यवादियों की खराब नीयत को ठीक से पहचानने की जरुरत है। सरकार को ऐसे मामलों में कानून बनाने से बचना चाहिये। निकम्मे और प्रभाव शून्य धर्म गुरु नैतिकता का बहुत उंचा मापदण्ड बनाकर उसे समाज पर कानून द्वारा थोपने की वकालत करते है उनसे भी हमें बचना चाहिये। धर्म और संस्कृति की रक्षा के नाम पर कुछ गुण्डे समाज मे उछलकूद मचाते रहते है ऐसे लोगो से भी दूरी बनानी चाहिये। साथ ही व्याभिचार और बलात्कार को अलग अलग मानने और समझने की आवष्यकता है। व्याभिचार कोई अच्छा काम नहीं किन्तु व्याभिचार कोई ऐसा अपराधिक कार्य भी नहीं है जिसे बलपूर्वक रोका जा सके। इस प्रकार का समाज में संतुलन बनाने की आवश्यकता है। धर्म स्थानों अथवा आश्रमों में जब तक स्पष्ट बलात्कार न हो तब तक उसकी चर्चा करने में आनंद का अनुभव करना कोई अच्छी बात नहीं है। आश्रमों में बढता व्याभिचार एक सामाजिक समस्या है उसे एक तरफ व्यावस्थागत तरीके से पूर्ति के माध्यम खोजकर तथा दूसरी ओर नैतिक षिक्षा के माध्यम से नियंत्रित करने का प्रयास होना चाहिए। मेरा यह स्पष्ट मत है कि बलात्कार को छोडकर किसी भी अन्य सहमत सेक्स के मामले से सरकार को पूरी तरह बाहर हो जाना चाहिए।