पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद
पूंजीवाद, समाजवाद और साम्यवाद
कुछ सर्वस्वीकृत सिद्धांत हैं-
1 न्याय और व्यवस्था एक दूसरे के पूरक होते है । दोनों का अस्तित्व भी एक दूसरे पर निर्भर होता है ।
2 तीन असमानतायें घातक होती हैं-(1) सामाजिक असमानता (2) आर्थिक असमानता (3) राजनैतिक असमानता । सुव्यवस्था के लिए तीनों का संतुलन आवश्यक है ।
3 राज्य के पास शक्ति होने से वह सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थाओं को हमेशा दबाने का प्रयास करता है । इसलिए राज्य के प्रति अन्य दो को हमेशा सतर्क रहना चाहिए ।
4 साम्यवाद दुनिया की सबसे अधिक खतरनाक विचारधारा है । दुनिया में साम्यवाद में सबसे अधिक बुद्धिजीवी और चालाक लोग पाये जाते हैं ।
5 किसी सफल व्यवस्था की पहचान जिस शब्द के साथ हो जाती है उसकी नकल करके अर्थ बदलने का प्रयास होता है । धर्म के साथ भी यही हुआ और समाज शब्द के साथ भी ।
6 दुनिया में सम्पत्ति अधिकार संबंधी तीन प्रकार की व्यवस्थायें प्रचलित हैं-(1) व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार (2) सरकारी सम्पत्ति का अधिकार (3) ट्रस्टीशिप का सिद्धांत । पुंजीवाद में व्यक्तिगत, साम्यवाद में राष्ट्रीय तथा गांधीवाद में ट्रस्टीशिप का सम्पत्ति सिद्धांत प्रचलित है ।
7 सम्पत्ति व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कोई भी व्यवस्था वैध तरीके से अर्जित सम्पत्ति की अधिकतम सीमा नहीं बना सकती ।
8 आर्थिक समस्याओं का आर्थिक समाधान ही उचित होता है प्रशासनिक नहीं । राज्य आर्थिक समस्याओं का प्रशासनिक समाधान खोजने का असफल प्रयास करता है ।
प्राचीन समय में आर्थिक, राजनैतिक और समाजिक व्यवस्था में पूरी तरह समाजवाद था । राजतंत्र आया तो व्यवस्था में विकृतियां पैदा हुईं । राजतंत्र के बाद लोकतंत्र आया जिसमें श्रमशोषण का समाधान नहीं हो सका । इस कमजोरी का लाभ उठाकर साम्यवाद ने अपने पैर फैलाये । पूंजीवाद ने लोकतंत्र के साथ तालमेल किया तो साम्यवाद ने तानाशाही के साथ । स्पष्ट है कि तानाशाही बहुत कम समय में सफल होती है किन्तु वह समाज को गुलाम बना लेने के कारण सबसे बुरा सिद्धांत है । स्पष्ट है कि साम्यवाद तानाशाही के साथ तालमेल करने के कारण सफलता की सीढियां चढ़ने लगा । लोकतंत्र और पॅूजीवाद को खतरा दिखा । तब समाजवाद नामक एक बीच का मार्ग निकला जो आर्थिक मामलों में साम्यवाद के निकट था तो राजनैतिक मामलों में लोकतंत्र के निकट । साम्यवाद केन्द्रियकरण तथा हिंसा पर विश्वास करता है । पॅूजीवाद अकेन्द्रियकरण तथा अहिंसा पर विश्वास करता है । समाजवाद विकेन्द्रीयकरण तथा अहिंसा का पक्षधर है किन्तु राष्ट्रीयकरण वर्ग विद्वेष अथवा अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप के मामले में समाजवाद, पॅूजीवाद विरोधी है ।
हम वर्तमान भारत की समीक्षा करें । साम्यवाद आर्थिक और राजनैतिक स्तर पर समाप्ति की ओर है । साम्यवादी अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए नये-नये तरीके खोज रहे हैं । साम्यवादी की कुछ विशेष पहचान होती हैं-
1 वह सिर्फ न्याय की बात करता है व्यवस्था की बात नहीं करता । अधिकार की बात करता है, कर्तव्य की नहीं ।
2 वह आर्थिक और सामाजिक असामानता का खुला विरोध करता है किन्तु राजनैतिक असमानता के विषय में चुप रहता है । बल्कि आमतौर पर वह सत्ता संघर्ष में सक्रिय तत्वों से तालमेल करता है ।
3 वह वर्ग विद्वेष बढाने के हर प्रयास में निरंतर सक्रिय रहता है । विशेष रुप से अमीरी और गरीबी के नाम पर वह दिन रात प्रयत्नशील रहता है । कुछ लोग तो अमीरी गरीबी को एकमात्र मुददा मानकर सक्रिय रहते है ।
4 वह गरीब अमीर के बीच की खाई को कभी कम नहीं होने देता इसलिए वह डीजल, पेट्रोल की मूल्यवृद्धि का सबसे अधिक विरोध करता है । क्योकि यदि खाई घट गई तो उनका राजनैतिक जीवन ही अंधकार मय हो जायेगा ।
5 वह पुंजीवाद का खुलकर विरोध करता है किन्तु कोई विकल्प की चर्चा नहीं करता ।
आज भारत में गली-गली में आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो उपरोक्त पांच पहचानो पर खरे उतरते है । ऐसे लोग साम्यवाद की प्रशंसा भी नहीं कर पाते । ऐसे लोगों को ही प्रच्छन्न साम्यवादी मानना चाहिये । समाजवादी भी ऐसे कुछ मामलों में साम्यवादियों के साथ तालमेल करते दिखते है । आजकल तो कुछ प्रछन्न साम्यवादी साम्यवाद शब्द का विरोध भी करते दिखते है किन्तु आर्थिक और राजनैतिक मामलों में उनकी पूरी कार्यप्रणाली साम्यवाद के समान दिखती है । इसलिए वर्तमान समय में खतरा घोषित साम्यवादियों से कम और अघोषित साम्यवादियों से अधिक है । समाजवाद अपने आप भारत में असफल दिखने लगा है । इन परिस्थितियों में साफ दिखता है कि पूरी दुनिया और विशेषकर भारत में भी आर्थिक और लोकतांत्रिक मामले में पॅूजीवाद एकमात्र सफल व्यवस्था के रुप में आगे बढ़ रहा है । उसे कोई चुनौती नहीं है ।
पॅूजीवाद और लोकतंत्र की संयुक्त व्यवस्था भले ही साम्यवाद और तानाशाही की संयुक्त व्यवस्था की तुलना में सर्वस्वीकृत दिखने लगी हो किन्तु यह आदर्श व्यवस्था नहीं हो सकती । आदर्श व्यवस्था तो भारत की प्राचीन समाजवादी व्यवस्था ही हो सकती है जिसकी नकल करके समाजवाद शब्द ने उसे विकृत कर दिया । इसलिए अब आवश्यक होगा कि सामाजवादी शब्द के स्थान पर समाजीकरण शब्द का प्रयोग किया जाये । मेरे विचार में समाजीकरण लोकतंत्र और पूंजीवाद की संयुक्त व्यवस्था का अच्छा समाधान हो सकता है । इसमें अर्थव्यवस्था, शासन व्यवस्था तथा समाजव्यवस्था का अकेन्द्रित स्वरुप एक जगह पर इकट्ठा दिखता है । जिसका अर्थ है परिवार और गांवो को अपने-अपने आंतरिक मामलो में सब प्रकार की आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था करने की असीम स्वतंत्रता । परिवार और गांव के आंतरिक मामलों में बिना उनकी सहमति के राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता । यह व्यवस्था सब प्रकार की समस्याओं का समाधान बन सकती है । इसमें पॅूजीवाद के समान सम्पत्ति पर व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार नहीं होगा तथा सम्पत्ति सरकार की भी नहीं होगी । सम्पत्ति परिवार की संयुक्त होगी । यदि गांव मिलकर सर्वसम्मति से सम्पत्ति को गांव की घोषित करे तो उसे छूट होगी । परिवार भारत की पारिवारिक परिवार व्यवस्था और साम्यवाद की कम्यून व्यवस्था के बीच का स्वरुप ग्रहण करेगा । जिसका स्वरुप होगा संयुक्त सम्पत्ति और संयुक्त उत्तरदायित्व के आधार पर एक साथ रहने के लिए सहमत व्यक्तियों का समूह । समाजीकरण में सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के संचालन में राज्य की जगह गांव को अपनी आंतरिक स्वतंत्रता होगी । यह व्यवस्था आदर्ष हो सकती है । इसे लोक स्वराज्य शब्द से भी जोडकर देख सकते है । मैं जानता हॅू कि समाजीकरण को कोई भी अन्य व्यवस्था आगे नहीं बढने देगी किन्तु यह एक आदर्ष व्यवस्था है और समाज धीरे-धीरे इस दिशा में बढ़ सकता है जिसकी शुरुवात भारत से हो सकती है हमारा कर्तव्य है कि हम साम्यवाद को तो अपना प्रमुख शत्रु माने ही समाजवाद को भी अपना विरोधी माने । पॅूजीवाद को अपना प्रतिस्पर्धी माने और धीरे धीरे समाजीकरण की ओर एक नई वैचारिक बहस को विस्तार देने का प्रयास करें ।
Comments