जीवन पथ भाग 4 GT 447
क्रमशः३ जीवन पथ
पूर्व के भाग में नरेन्द्र जी के उपन्यास “जीवन पथ” में हमने पढ़ा कि आतंकवाद से दुष्प्रभावित अफगानिस्तान से विस्थापित हो दिल्ली में अपनी गुजर-बशर कर रहे ‘मसूद खां’ वहां के बिगड़ते हालत से चिंतित हैं और अपनी बेटी ‘सिमी’ से चर्चा करते हैं। अब आगे...
“ये आप से बेहतर कौन समझ सकता है पापा,” सिमी बड़े सहज भाव से कहती है-आपके पास तो जिन्दगी के बहुत से तजुरबे हैं। वैसे भी वहाँ के बारे में मैं क्या कहूँ? क्योंकि हमें तो आपने इस अजीम मुल्क मे जीवन दिया है। माना कि यहाँ कुछ कमियाँ हैं लेकिन वे नायाब खूबियाँ भी हैं, दुनिया में और कहीं जिनकी कल्पना भी नहीं हो पाती होगी। यहाँ जैसा सरल जीवन दर्शन कहीं और नहीं हो सकता है। वास्तव में भारतीय दर्शन तो भावनाओं और विचारों का ऐसा अदभुत समन्वय है जिसकी मैं तो कोई तुलना ही नहीं कर पाती हूँ।
सिमी की बात सुनकर ‘खां‘ उसके सर को दुलारते हुए कहते हैं- जितनी अजीज तुझे अपनी सरजमीन है क्या वह हक मुझे अपनी से लगाव का नहीं है?
आप काबुल मे पैदा हुए थे, इसलिए आपको वहाँ की याद आज भी सताती है। मैं दिल्ली में पैदा हुई हूँ, लिहाजा मुझे यहाँ के रिवाज पसन्द है। यह तो कुदरत की अजीम कारगुजारी है। क्योंकि उसने तो तमाम जमीन को आबाद किया है, पर लोगों ने इसे भला मुल्कों की सरहदों में तकसीम क्यों कर दिया?क्या काबुल और दिल्ली के लोग अलग-अलग ढंग से साँस लेते हैं। ... सिमी का मासूम सा सवाल खां के वजूद को झंझोडकर रख देता है। जिसे सुनकर वह बुद-बुदा पड़ते हैं- दुनिया को तो सत्ता के हबशियों ने सियासत के उस मोहरे से बांट दिया है जिसे इसके निजाम का जिम्मेदार बनना था। पता नहीं लोग इस बात को कब समझेंगें कि कोई भी निजाम लोगों को इंसाफ और हिफाजत देने के लिए होता है न कि उन्हें हदों में बांधने के लिए! लोग निजाम को हुकूमत का दर्जा देकर इसे बेईज्जत करते हैं। ये तो बस जालिमों की कारगुजारी है। लोग इस फर्क को कब समझेंगें, ये मलाल दिल मे रहता है और खां अपने उत्तर में बहुत से जीवित सवाल छोड़कर चुप हो जाते हैं। जिसे सुनकर सिमी स्वयं से कहती है - दुनिया में हुकूमत के आलमबरदारों ने जहर से सने फाहों से लोगों के आँसू पोंछे हैं और इस जहर से हुए दर्द से जब लोग कराहे हैं तो उन्हें जीने के नाकाबिल करार दिया है। मूल बात तो यह है कि निजाम और हुकूमत के बीच का फर्क तो हमें पहचानना ही होगा और फिर आवाम की इच्छाओं के निजाम को अम्ल में लाना होगा। वरना जिन्दगी को कभी गुलामी से मुक्ति नहीं मिल सकेगी!...... खैर! सिमी अपनी बात के नजरिए को बदलकर कहती है-लोग जब तक इस बात को आचरणगत रूप से स्वीकार नहीं कर लेगें तब तक ये बहस तो खत्म नहीं होने वाली। लेकिन अब आप अपने इस तनाव से मुक्त हो जाईए पापा। ये मेरी आपसे इल्तजा है।...... खां उसकी बात स्वीकार करते हैं तो वह आगे कहती है-पापा! आज मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि जब आप भारत आए थे तो आपको यह देश कैसा लगा था?क्या तब आपके साथ यहाँ के लोगों ने ऐसा ही व्यवहार किया था जैसा कि अक्सर विस्थापित लोगों के साथ होता है? तब आपके सामने समस्याएं तो बहुत आयी होगें, उन्हें आपने कैसे झेला होगा?..........सिमी बात बदलते हुए कहती है।
खां प्रत्युत्तर देते हैं- देश कौन सा खुद में अच्छा या बुरा होता है बेटी! जमीन की सीने पर कब अच्छाई और बुराई की फसल पैदा होती है। अच्छाई और बुराई की पैदाइश तो लोगों द्वारा उनकी इच्छाओं पर होने वाले अम्ल का नतीजा होती है। न तो मैं बुरे देश को छोड़कर आया था और न बुरे देश में आकर बसा था। हाँ हर तरह के लोग हर जगह मिल जाते हैं।....... जब हम यहाँ आए थे तो किसी ने शरणार्थी कहकर हम पर दया की थी, किसी ने ताना कसा था और कुछ ऐसे भी मिले जिन्होने आगे बढ़कर हमारे दुखों को बाँट लिया। खुदा की सबसे खूब इनायत ‘इंसानियत’ के ऐसे कद्रदान कितने अजीम होते हैं!
खां एक दार्शनिक की तरह अपनी बात कहकर चुप हो जाते हैं तो सिमी उन्हें पुनः टोकती है- लेकिन उस दौर में आपके सामने मुसीबतें तो बहुत आयी होगें! आप अपने गुजरे हुए वक्त के बारे में किसी से कोई जिक्र नहीं करते हैं। हाँ उस दौर की घुटन में आप जब भी खोए हुए होते हैं तो मुझे बहुत दर्द महसूस होता है!..... अलबत्ता उस दौर में भारत में आपको ऐसा क्या मिल गया था जो आप यहीं के होकर रह गए?
तूने उन गुजरी हुई मुसीबतों के बारें में जानने से अपनी बात शुरू की है और भारत में बस जाने पर खत्म। ... एक लम्बी साँस खींचकर, खां पुनः बोलते हैं ... उस दौर में मेरे सामने सबसे बड़ी मुसीबत तो तू थी जो अपनी माँ के गर्भ में पल रही थी। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी जब कभी मुझे मुसीबत भरे वे दिन याद आते हैं तो मेरी रूह कांप उठती है। तेरी पैदाइश के दिन का वह मंजर कितना खौफनाक था? मैं अपने बारे में तो सोचता भी कैसे, तारिक और रियाज के लिए भी भरपेट खांने का बंदोबस्त नहीं कर सका था और तब यहाँ हमारा कोई मद्दगार भी नहीं था। तेरी वालिदा की तबियत नाशाद चल रही थी। ऐसे हालात में मैं तुम लोगों को छोड़कर कई रोज से मजदूरी पर भी नहीं जा सका था। उस रोज शाम ढलने को थी, खुले मैदान के एक कोने मे बनी जरा सी सिरकी, और उसमें भूख और बेबसी के दर्द से बिलखता हुआ मेरा परिवार! अपनी बेबसी का मेरे पास केवल यह जवाब था कि एक शरणार्थी को भला इससे मुकम्मल सजा और क्या मिल सकती है?हकीकत में वह वक्त मुझसे भुलाए नहीं भूलता। तब मैने खुद से पूछा कि यहाँ आकर भूख से मरना बेहतर रहेगा या उस युद्ध की विभीषिका में खुद को झोंक देना बेहतर रहता जिसके लड़ने वाले उसे इंसानियत की हिफाजत का जरिया बता रहे थे। उस दिन मैंने एहसास किया कि मैंने जिन्दगी में जिस सुकून की चाह में मादरेवतन छोड़ा था वह भूख मिटाने की ख्वाइश में खत्म हो जाएगी। खुदा की बनाई इस दुनिया में न जाने किस दिन शान्ति स्थापित होगी?क्योंकि लोग इंसानियत की हिफाजत सभ्यता की कसौटी पर नहीं हथियारों से करना चाहते हैं। इसका क्या कारण है? सिर्फ यह कि लोगों को अपना हक न मिलने का तो मलाल होता है लेकिन अपनी जिम्मेदारियां निभाने के मामले में वे समाज के साथ जाहिलों जैसा सुलूक करते हैं। मैं इस बात का कायल होकर ही वह युद्ध छोड़कर यहाँ आया था। सच में ऐसे युद्धों में मरने वालों की मौत गाजियों के लिए नहीं होती है।..... अलबत्ता यहाँ आकर भी मुझे अपने इस फलसफे की तौहीन होती हुई नजर आयी। मैंने तुम लोगों को देख-देखकर वे जिल्लत भरे दिन काटे हैं, वरना खुदकुशी आदमी का अगर कहीं जायज हक होता है तो वह ऐसे ही हालात के लिए होता है। ... क्षणभर चुप रहकर वह पुनः बोलते हैं- पर ऐसा भी नहीं होता है बेटी कि खुदा अपने बन्दो को यूँ ही भुला देता है। उसने मेरे उस रंज को महसूस किया कि मेरा जो हुआ सो हुआ लेकिन इन बच्चों का क्या होगा?उस दौर में दर्द भरे वे लम्हे मेरी सहनशक्ति का इम्तिहान ले रहे थे। तब मुझे पता भी नहीं चला कि उन दर्द भरे लम्हों के बीच खुदा का भेजा हुआ एक फरिश्ता कब मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और कहने लगा- उठो खां! तुम्हारा ये जिल्लत भरा वक्त बीत चुका है, अब तुम्हें समाज के बीच फिर से अपना मुकाम बनाना है। ... खां, सिमी की तरफ देखते हुए कहते हैं-क्या तू यह नहीं जानना चाहेगी कि उस रोज कौन हमारी मदद करने के लिए आया था?
जी! वह उत्सुकतावश पूछती है।
तेरे श्रीवास्तव अंकल! ... वह अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं- मुझे आज भी याद है, उस नेक इंसान ने हमारी सिरकी के नीचे से मुहाने से झांकते हुए कहा था- “मेरी बातों को अन्यथा मत लेना दोस्त और न यह मानना कि मैं जो तुम्हारी मदद करना चाहता हूँ वह दया की भीख है। मैंने वास्तव में जीवन में कभी किसी को भीख नहीं दी है। ... ... हाँ मैंने तुम्हारे बारे में पता किया है कि तुम समस्या ग्रस्त हो। मैं पेशे से स्कूल टीचर हूँ और तुम्हारे सामने आयी इन मुश्किल परिस्थितियों में मैं तुम्हारी मद्द केवल इसलिए करना चाहता हूँ ताकि तुम मेरे देश पर और इसमें रहने वाले समाज पर उतना ही विश्वास करते रहो जितने की उम्मीद लेकर अपने देश से यहाँ तक आए हो।“ ... ... क्षण भर चुप रहकर खॉन पुनः बोलते हैं- मैं एकदम से उस मर्मस्पर्शी इंसान की भावनाओं को न समझ सका और मैंने उससे पूछा- क्या आप हमारी ऐसी किसी सरकारी योजना के मार्फत मदद करा सकते हैं जो विभिन्न देशों की सरकारें हमारे जैसे मुसीबत के मारे शरणार्थियों के लिए चलाती हैं?
“मैं सरकार का प्रतिनिधि बनकर आप लोगों के पास नहीं आया हूँ दोस्त! सरकार से पहले समाज है और आप मेरे लिए शरणार्थी नहीं इंसान हैं। मैं किसी भी औपचारिकता पर ध्यान न देते हुए आपके परिवार की मद्द केवल इसलिए करना चाहता हूँ ताकि समाज की मर्यादा बनी रहे। हालांकि मैं राष्ट्रीय स्वाभिमान का भी प्रबल पक्षधर हूँ लेकिन सामाजिक जिम्मेदारियों की पूर्ति के लिए क्या व्यक्ति को केवल राज्य के तत्वावधान में ही कार्य करना चाहिए? ... मैं, परिस्थिति की भंगिमा को समझते हुए इस समय यह कहना चाहता हूँ कि समाज तथा राज्य की संयुक्त तथा स्वतन्त्र जिम्मेदारियों की समीक्षा बाद में कर लेंगे, पहले वह कर लेते हैं जिसे इंसानियत की गरिमा हमसे कह रही है।“
उसकी तमाम बातें सुनकर मैंने एकबारगी तुम सब लोगों की तरफ देखा और फिर उस अंजान इंसान की तरफ। उसकी नजरों में मैंने सच्चाई की झलक पायी और मेरे हाँ कहने पर उसने साबित कर दिया कि मैं न सिर्फ इस देश की आबोहवा पर बल्कि इसके बाशिंदो की नीयत पर भी पूरा भरोसा कर सकता हूं। ... और वक्त गुजरता गया। श्रीवास्तव ने मेरे उजड़े हुए जीवन में फिर से बहार ला दी। कितना निःस्वार्थ है वह, उसे न तो अपने वजूद का गुमान है और न उसके मन में ऐसी कोई सोच है जिसमें लेस मात्र भी भेदभाव हो। इतने मुकम्मल वजूद का आदमी हर रोज एक अदने से मजदूर की बेटी को अपनी गोद में उठाकर कहा करता था- “खां! कुदरत अपने बनाए हुए इन छोटे-छोटे खिलौनों को बड़े क्यों कर देती है? क्या कभी ऐसा भी दिन आएगा, जब मैं इस नन्हीं-मुन्नी को अपनी गोद में उठाकर नहीं खिला सकुँगा?” ..... और उसके प्रश्न का जब मैंने जवाब खोजा तो केवल यह पाया कि क्या कुदरत इस इंसान की इंसानियत में ही समाई हुई है!
वक्त के साथ श्रीवास्तव की मदद से मुझे न सिर्फ गुजारे का साधन मयस्सर हुआ बल्कि उसने भारतीय दर्शन की सौम्य यथार्थपरकता का ऐसा एहसास कराया कि मैं आचरण से शुद्ध भारतीय बन गया। ऐसे में इस देश को छोड़कर जाने का तो प्रश्न ही खत्म हो गया था। खां अपनी बात पूरी कर पाते हैं कि तभी रियाज (खां का छोटा बेटा) उन दोनों की बातों के बीच हस्तक्षेप करते हुए कहता है - सिमी क्या आज कॉलिज नहीं चलना है? अगर तुझे याद रहा हो तो हमारे प्यारे श्रीवास्तव अंकल आज हमे आखिरी बार अटेन्ड करेगें!
क्यो?... रियाज की बात सुनकर खां पूछते हैं!
क्योंकि आज कॉलिज में हमारा विदाई समारोह है पापा। आपको इस बात से सुकून मिलना चाहिए कि अब आपकी जिम्मेदारियाँ बाँटने के लिए आपकी औलाद तैयार है। ... सिमी उन्हें भावपूर्ण उत्तर देती है। लेकिन वह रियाज से उसके बात कहने के ढंग पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए नसीहत देते हैं- आदमी का व्यवहार समाज में उसके चरित्र का आयीना होता है रियाज। इसलिए मेरी तुम्हे यह नसीहत है कि हमे समाज द्वारा निर्धारित मर्यादाओं के प्रति उत्तरदायी होने ही चाहिए। मैं यह बात सिर्फ आज के लिए ही नहीं कह रहा हूँ। अक्सर तुम्हारा संस्कारों के विरूद्ध रहना मुझे अच्छा नहीं लगता है।
लेकिन आज तो मैंने ऐसा कुछ नहीं कहा है पापा! वह प्रतिवाद करता है।
ऐसा तुम सिर्फ अपनी अज्ञानतावश कह रहे हो। क्योंकि तुमने अपने श्रीवास्तव अंकल द्वारा खुद को आखिरी बार अटेन्ड करने की जो बात कही है क्या वह तुम्हें उन संस्कारों के विरूद्ध नहीं कर देती है जिन्हें इस अजीम मुल्क में सीखकर मैंने हमेशा तुम लोगों के विचारों में रोपने का प्रयास किया है। श्रीवास्तव तुम लोगों के गुरू हैं, क्या तुम आज तक इस बात को नहीं समझ सके हो कि शिष्य की अव्यावहारिकता गुरू की योग्यता का भी अपमान करती है?
लेकिन मैंने इतना गम्भीर अपराध तो नहीं किया है जिसके लिए आप मुझे इस कद्र डांट रहे हैं!
क्रमशः ...
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