सर्वोत्तम संभव का सिद्धान्त

आदर्शवाद और व्यावहारिकता बिल्कुल भिन्न-भिन्न होते है । आदर्श का अर्थ होता है क्या करना उचित है और व्यावहारिकता का अर्थ होता है कि क्या होना आसान है । उच्च आदर्श अव्यावहारिक हो सकता है और किसी भी व्यक्ति को असफल बना सकता है । उच्च व्यावहारिकता व्यक्ति को पतित बना सकती है और सफलता के कीर्तिमान बना सकती है । सर्वोत्तम का सफल होना कभी संभव नहीं होता और जो आसानी से होना संभव है, वह सर्वोत्तम नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की सोच नीयत और क्षमता अलग-अलग होती है । चाहे आदर्श हो अथवा व्यवहार कोई भी कभी भी व्यक्तिगत नहीं हो सकता । एक से अधिक व्यक्ति जुड़ते ही है इसलिये सबके तरीके और परिणाम अलग-अलग होते है ।

व्यक्ति दो प्रकार होते है-1. बुद्धि प्रधान और 2. भावना प्रधान । बुद्धि प्रधान व्यक्ति व्यावहारिक अधिक होते है और सैद्धांतिक कम । दूसरी ओर भावना प्रधान व्यक्ति आदर्शवादी अधिक होते है, व्यावहारिक कम । इस प्रकार के लोगो को व्यावहारिकता सिखाने के लिये संस्कारित किया जाता है और संस्कार ही आदर्श को व्यावहारिकता से तालमेल की ट्रेनिंग देता है । दुनियां की सभी व्यवस्थाओं में भारतीय सामाजिक व्यवस्था एक मात्र ऐसी रही है जिसमें वर्ण व्यवस्था के माध्यम से आदर्श और व्यवहार के सामन्जस्य का प्रयास किया गया । मार्गदर्शक अर्थात ब्राह्मण आदर्श की ट्रेनिंग देते थे तो अन्य तीन रक्षक, पालक और सेवक अर्थात क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र उस आदर्श के साथ व्यावहारिकता का तालमेल करके उसे प्रयोग में लाते थे । आदर्श और व्यवहार का वर्ण व्यवस्था में अच्छा तालमेल था । जब वर्ण व्यवस्था विकृत हुयी और उसकी जगह कोई अधिक अच्छी व्यवस्था नहीं आ सकी तब आदर्श और व्यवहार का तालमेल टूट गया । परिणाम हुआ कि आदर्शवादी लोग अपने जीवन में अव्यावहारिक होकर असफल होने लगे तो उच्च व्यावहारिक लोग अपने जीवन में आदर्श को त्याग कर सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगे । स्पष्ट है कि आदर्श कमजोर होकर पुरानी किताबो तक सीमित हो गया और व्यावहारिक धरातल से दूर हो गया । वर्तमान समय में वर्ण व्यवस्था को किसी संशोधित स्वरूप में जीवित करना कठिन कार्य है इसलिये आपातकाल समझकर प्रत्येक व्यक्ति को आदर्श और व्यवहार के बीच संतुलन बनाने के लिये सर्वोत्तम संभव का मार्ग सीखना चाहिये । सर्वोत्तम का प्रयास व्यक्ति को जीवन में असफल कर देता है और अधिकतम संभव का प्रयास पतित इसलिये सर्वोत्तम संभव का मार्ग अपनाना चाहिये । इसका अर्थ हुआ कि व्यक्ति को अपनी योग्यता और क्षमता का आकलन करके उसके अनुसार अपना लक्ष्य बनाना चाहिये लेकिन लक्ष्य आदर्श के साथ जुड़ा हुआ भी होना चाहिये ।

मैं देखता हूँ कि उच्च आदर्श वाले लोग समाज से अलग-थलग होते जा रहे है और समाज में समस्याएं पैदा कर रहे हैं क्योकि ऐसे उच्च चरित्रवान लोग स्वयं को छोड़कर अन्य सबको चरित्र हीन मानते है, उन्हें उच्च आदर्शवादी बनने की प्रेरणा देते है और ऐसा व्यक्ति क्षमता न होने के कारण उस प्रयास में या तो असफल हो जाता है या उसके विरूद्ध हो जाता है । ये उच्च चरित्रवान लोग वर्तमान स्थिति का ठीक से आकलन नहीं कर पाते । यदि कोई सिद्धांत व्यावहारिक ना हो तो वह घातक होता है इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को चाहिये कि वह वर्तमान स्थिति में सर्वोत्तम संभव अर्थात “बेस्ट पॉसिबल” के आधार पर नीति निर्धारण करे । इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि आप लक्ष्य चाहे जितना ऊँचा रखे किन्तु कार्य योजना बनाते समय परिस्थितियों और अपनी क्षमता का आंकलन करके अल्पकालिक योजना बनावें, उस योजना की समीक्षा करे और उसे समय-समय पर संशोधित भी करते रहें । अव्यावहारिक लक्ष्य बनाना उचित नहीं होता इसलिये आदर्श और व्यवहार का तालमेल होना चाहिये ।

मैंने अपने जीवन में बहुत बाद में इस सर्वोत्तम संभव का महत्व महसूस किया । प्रारंभ में मैंने उच्च आदर्षवादी विचारों को सक्रिय करने का प्रयत्न किया । उस समय संचार माध्यमों का अभाव था और मैं नहीं समझ पाया कि पूरी दुनियां या भारत का सैद्धांतिक धरातल कितना नीचे चला गया है । मैंने अपने छोटे से परिवार और शहर पर उच्च आदर्शवादी नीतियां लागू करने का प्रयत्न किया । परिवार पर तो प्रभाव पड़ा किन्तु शहर पर प्रभाव क्षणिक ही हुआ और वह प्रयत्न आगे नहीं बढ सका । मैंने शहर में जाति प्रथा को तोड़ने का प्रयास किया तथा मेरे द्वारा अपराध नियंत्रण के लिये भी बहुत प्रयास किया गया । हड़ताल और दवाब से चंदा रोका गया । साम्प्रदायिक कटुता को भी रोका गया । वहां लोगो ने भरपूर साथ दिया । ऐसा लगने लगा कि हमारा यह प्रयत्न बहुत अधिक सफल हो सकता है किन्तु इस प्रयत्न को जितना ही ज्यादा आदर्शवाद की दिशा में बढाने की कोशिश हुई उतना ही अधिक यह प्रयत्न अव्यावहारिक होता चला गया । अब स्थिति यह है कि सारे प्रयत्न धीरे-धीरे फिर सैद्धांतिक और आदर्शवादी धरातल से दूर होते जा रहे है फिर से वहीं बुराईयां शुरू हो रही है जिन्हे रोकने का प्रयास हुआ । महसूस किया गया कि उच्च आदर्शवादी लक्ष्य यदि अव्यावहारिक हो तो दीर्घकालिक परिणाम नहीं दे सकते इसलिये मैंने निष्कर्ष निकाला कि प्रत्येक व्यक्ति को आदर्श और उसकी सफलता की संभावनाओं के साथ तालमेल करके ही किसी कार्य की योजना बनानी चाहिये । उच्च आदर्शवादी बाते प्रवचन व उपदेश के लिये तो उपयोगी हो सकती है किन्तु व्यावहारिक धरातल पर उतारना कठिन कार्य है । आमतौर पर लोग दूसरों की समीक्षा न करके आलोचना अधिक करते है और बिना अवश्यकता के सलाह देते है । प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता और परिस्थितियां अलग अलग होती है । आप अपनी क्षमतानुसार आंकलन करके दूसरो की आलोचना करें, यह अव्यावहारिक और अनुचित है इसलिये इससे बचना चाहिये ।

इस संबंध में हम सब साथी मिलकर एक नया प्रयत्न कर रहे है । ज्ञान यज्ञ के माध्यम से हम प्रयत्न कर रहे है कि व्यक्ति की स्वयं की उचित अनुचित के बीच निर्णय करने की क्षमता बढे । मार्गदर्शक सामाजिक शोध संस्थान के माध्यम से हम प्रयत्न कर रहे है कि कुछ निश्चित विषयों पर कुछ अच्छे विचारकों की एक टीम बने जो सिर्फ विचार मंथन तक सीमित रहे । दोनों आधार पर देश भर में प्रयत्न जारी है ।