संविधान और संविधान संशोधन
पूरे विश्व में मूल ईकाईयां दो होती है व्यक्ति और समाज । व्यक्ति सबसे नीचे की अंतिम इकाई होती है और समाज सबसे ऊपर की अंतिम । व्यक्ति के लिये स्वतंत्रता और सहजीवन का संतुलन अनिवार्य अवश्यकता है । प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा समाज के लिये अनिवार्य है तो समाज के साथ जुड़कर रहना व्यक्ति की मजबूरी है । जब व्यक्ति स्वतंत्रता की सीमायें तोड़ता है तब वह उच्श्रृंखल हो जाता है । जब व्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमायें टूटती है तब वह गुलाम हो सकता है । उच्श्रृंखल व्यक्ति पर नियंत्रण और गुलामी से सुरक्षा के लिये समाज एक व्यवस्था बनाता है । इस व्यवस्था को व्यक्ति और समाज अपने अधिकार देते हैं, तब ऐसे अधिकार उस व्यक्ति की शक्ति बन जाते हैं । इस शक्ति के बल पर ही वह व्यवस्था सेना, पुलिस, वित्त आदि के अधिकार अपने पास रखती है, ऐसी अधिकार प्राप्त इकाई मनमानी न करने लगे इसलिये उसे अधिकार देने वाली इकाई उसके अधिकारों और हस्तक्षेप की सीमाये निश्चित कर देती है । ऐसी सीमायें निश्चित करने वाले दस्तावेज को संविधान कहते हैं । ऐसे संविधान प्रत्येक इकाई के अलग-अलग हो सकते हैं, किन्तु यह आवश्यक है कि संविधान बनाने में इकाई के प्रत्येक व्यक्ति की समान और स्वतंत्र भूमिका हो । किसी एक व्यक्ति को भी निकालकर किसी इकाई का संविधान नहीं बन सकता ।
व्यवस्था की कई इकाईयां होती है, और सबके अपने अपने संविधान भी हो सकते हैं । परिवार व्यवस्था की पहली इकाई है इसी तरह ग्राम व्यवस्था राष्ट्र व्यवस्था और विश्व व्यवस्था को माना जा सकता है । स्वाभाविक है कि सबके अपने अपने स्वतंत्र संविधान हों । हो सकता है कि ऐसे संविधान लिखित हों भी और न भी हों किन्तु सभी सदस्यों की सहमति से बनी परम्परा भी संविधान मानी जाती है । यदि कोई अधिकार प्राप्त व्यक्ति है तो उसके अधिकारों की सीमायें निश्चित करने वाले प्रावधान संविधान की अनिवार्य है । प्रत्येक व्यक्ति के कुछ मौलिक अधिकार होते हैं । उस व्यक्ति की सहमति के बिना उन प्राकृतिक अधिकारों में कभी कोई कटौती नहीं की जा सकती । इसका अर्थ हुआ कि संविधान बनाने में प्रत्येक व्यक्ति की सहमति अनिवार्य है । किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारो के विषय में उसकी सहमति के बिना ना कोई समझौता हो सकता है और ना ही क्रियान्वित हो सकता है । यदि किसी व्यक्ति की सहमति से कोई ऐसा समझौता होता है जो उसकी स्वतंत्रता के विरूद्ध है तो उस व्यक्ति की सहमति के बिना यह समझौता लागू नहीं किया जा सकता । कल्पना करिये कि मैंने किसी व्यक्ति या इकाई से यह समझौता कर लिया कि यदि मैं आपको गाली दूंगा तो आप मुझे पीट सकते हैं किन्तु इस समझौते के बाद भी यदि मैं गाली देता हूँ तो वह व्यक्ति मेरी सहमति या स्वीकृति के बिना मुझे पीट नहीं सकता । मेरी उच्श्रृंखलता के दंड के लिये मैं या वह दोनो को समाज के पास पक्ष प्रस्तुत करके निर्णय कराना ही होगा । बिना मेरी स्वीकृति या समाज के निर्णय के मेरे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नही हो सकता ।
परिवार, गांव और राष्ट्र आदि व्यवस्था की इकाईयां है और जाति, धर्म क्षेत्रीयता आदि इन व्यवस्थाओं की सहायक इकाईयां । जाति, धर्म आदि को कोई शक्ति प्राप्त नहीं हो ती । वह मार्गदर्शक अथवा समन्वयक इकाई मानी जाती है इसलिये इन सबका कोई संविधान नहीं होता, किन्तु परिवार, गांव, राष्ट्र आदि शक्ति संपन्न इकाईयां हैं इसलिये इनके संविधान होते है । आदर्श स्थिति में परिवार, गांव, राष्ट्र और विश्व के अपने अपने संविधान होने चाहिये और ऐसे प्रत्येक संविधान निर्माण में उस इकाई के प्रत्येक व्यक्ति की समान भूमिका होनी चाहिये । इसका अर्थ हुआ कि परिवार का संविधान भी परिवार के सभी सदस्यों की सहमति से ही बन सकता है और राष्ट्रीय संविधान भी उस देश में रहने वाले सभी नागरिकों की सहमति से बनेगा । विश्व संविधान में भी दुनियां के प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्र और समान भूमिका होनी चाहिये । राष्ट्र प्रमुख मिलकर कोई दुनियां का संविधान नहीं बना सकते, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका अनिवार्य होती है । दुर्भाग्य से अब तक विश्व सरकार नहीं बन पाई है, और विश्व का संविधान भी नहीं बन सका है जो बनना चाहिये । इसी तरह परिवार व्यवस्था और ग्राम व्यवस्था को भी आतंरिक स्वतंत्रता न देकर राष्ट्र व्यवस्था ने इनका अपहरण कर लिया है । इसलिये परिवार और गांव के भी संविधान नही बने हैं । राष्ट्रों के कुछ देशों में संविधान बने है और जिन देशो में संविधान बने हैं ऐसे देशो में भारत भी एक है ।
जिस समय भारत का संविधान बनना शुरू हुआ उस समय भारत गुलाम था इसलिये संविधान बनाने में प्रत्येक व्यक्ति की सहमति न लेकर अंग्रेजो ने अपनी इच्छा से एक बीच का मार्ग निकाला और एक संविधान सभा बनाकर उसके प्रस्ताव को ही जन स्वीकृति मान लिया और संविधान में लिख दिया कि हम भारत के लोग अपने लिये संविधान को आत्म समर्पित करते है । उक्त प्रस्ताव के आधार पर जो चुनाव हुआ उस चुनाव को ही जन स्वीकृति घोषित कर दिया गया । स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति मिलकर संविधान बनाते है उन व्यक्तियों को ही संविधान संशोधन का अधिकार होता है । इसका अर्थ हुआ कि भारत के सभी नागरिकों की सहमति अथवा स्वीकृति के बिना कोई संविधान संशोधन नहीं हो सकता, किन्तु भारतीय संविधान में एक ऐसा प्रावधान डाल दिया गया जिसके अनुसार संविधान संशोधन के असीम अधिकार तंत्र को दे दिये गये और लोक को उस भूमिका से बाहर कर दिया गया । व्यवस्था का ढाँचा इस तरह होता है कि सबसे उपर लोक अर्थात समाज होता है उसके नीचे एक संविधान होता है जो राज्य पर अनुशासन बनाता है, राज्य कानून बनाता है और व्यक्ति सबसे नीचे की इकाई होता है अर्थात वह कानून का पालन करने के लिये बाध्य है । जब संविधान तंत्र पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से बनाया जाता है तब तंत्र संविधान का पालन करने के लिये बाध्य है संविधान तंत्र को अधिकार देता है लेता नहीं, किन्तु छलपूर्वक संविधान निर्माताओं ने तंत्र को ही संविधान संशोधन के असीम अधिकार दे दिये । व्यक्ति के मौलिक अधिकार स्वैच्छिक है और मौलिक अधिकारों में कोई भी संविधान उसकी इच्छा के बिना कोई कटौती नहीं कर सकता किन्तु संविधान निर्माताओं ने संसद को वह अधिकार भी सौप दिया यद्यपि 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक तरीके से संसद के उक्त अधिकार पर आंशिक रोक लगाई । संविधान संशोधन का अधिकार लोक के अतिरिक्त किसी और को दिया जाना प्राकृतिक न्याय के विपरीत है, किन्तु आज तक इस संबंध में न कोई मामला भारतीय न्यायालय में प्रस्तुत हुआ ना ही विश्व व्यवस्था में । प्रस्तुत करने का भी लाभ नहीं दिखता क्योंकि ना तो कोई विश्व संविधान बना है ना ही विश्व व्यवस्था । भारतीय न्याय व्यवस्था भी तंत्र का एक हिस्सा है और वह भी संविधान को गुलाम बनाकर रखने की लड़ाई ने विधायिका के साथ संलग्न है इसलिये उसकी भी कोई रूचि नहीं है । परिवार व्यवस्था और गांव व्यवस्था को तोड़ मरोड़कर छिन्न-भिन्न कर दिया गया है । देश के प्रमुख विद्वानों और विचारको को भी कई प्रकार के सम्मान और लालच से उनका मुँह बंद कर दिया गया है, इसलिये वे भी मुँह नहीं खोल पाते । यदि कुछ लोग समझते भी हैं तो उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान हो जाती है । किन्तु सब कुछ होते हुये भी यह एक मौलिक समस्या है, कि संविधान निर्माण और संशोधन में प्रत्येक व्यक्ति की स्वंतत्र भूमिका का होना ही लोकतंत्र है यदि संविधान निर्माण में ऐसी भूमिका नहीं है तो भारत का लोकतंत्र, लोकतंत्र न होकर संसदीय तानाशाही है जिसे छलपूर्वक लोकतंत्र कहा जा रहा है । लोकतंत्र के लिये पूरे देश में आवाज उठनी चाहिये और उसका प्रारंभ यही से हो सकता है कि संविधान संशोधन के तंत्र के असीम अधिकारो में किसी न किसी प्रकार की कटौती होनी चाहिये ।
यह प्रश्न भी विचारणीय है कि संविधान संषोधन के लिये ऐसी क्या व्यवस्था हो सकती है जो व्यावहारिक हो । इस संबंध में कई तरीके हो सकते हैं । संसद द्वारा प्रस्तावित संविधान संषोधन के लिये एक अलग प्रक्रिया बन सकती है, उसके लिये जनमत संग्रह हो सकता है, उसके लिये सभी सरपंच अथवा ग्राम सभाओं की स्वीकृति का प्रावधान बनाया जा सकता है, उसके लिये एक अलग संविधान सभा बन सकती है जो नागरिको के द्वारा चुनी जाये अथवा किसी और प्रस्ताव पर भी विचार हो सकता हैं, किन्तु किसी भी परिस्थिति में लोकतंत्र की जगह संसदीय तानाशाही को स्वीकार नहीं किया जा सकता । यह कार्य अत्यन्त कठिन है किन्तु आवश्यक भी है और इस संबंध में सामाजिक जागृति ही इसकी शुरूआत हो सकती है क्योकि तंत्र से जुडे लोग अथवा उससे लाभान्वित व्यक्ति जन जागृति के पक्ष में नहीं खड़े होगे । इसलिये हम लोगों ने संपूर्ण समाज के समक्ष इस समस्या को प्रस्तुत किया है । ज्ञान यज्ञ परिवार और बजरंग मुनि सामाजिक शोध संस्थान ने मिलकर ऋषिकेश में पंद्रह दिनों का ज्ञानोत्सव कार्यक्रम आयोजित किया है । उस कार्यक्रम में पांच सितम्बर को तथा आठ सितम्बर को इस विषय पर विस्तृत रूप से चर्चा होगी । इस चर्चा के माध्यम से पूरे देश में इस आवश्यकतआ की भूख पैदा हो यह प्रयत्न होगा । इस विचार मंथन के निष्कर्ष भी समाज के सामने आएंगे ही । अधिक से अधिक लोगो को ज्ञानोत्सव 2019 में शामिल होना चाहिये ।
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