संगठनवाद एक बड़ी सामाजिक समस्या
संगठनवाद एक बड़ी सामाजिक समस्या
संस्था और संगठन में बहुत अंतर होता है । संस्था कर्तव्य प्रधान होती है तो संगठन अधिकार प्रधान । संस्था व्यवस्था के लिये सहायक होती है तो संगठन बाधक । जब व्यवस्था तानाशाही की हो और समाज गुलाम सरीखा हो तब गुलामी से मुक्ति के लिये संगठन बनाना और संघर्ष करना उचित माना जाता है किन्तु जब व्यवस्था लोकतांत्रिक हो तब संगठन बनाना हमेशा घातक होता है । संस्था और संगठन की कार्यप्रणाली भी अलग अलग होती है । संगठन कानून तोड़ने को प्रोत्साहित करते हैं तो संस्थाएं कानूनों में सुधार अथवा बदलाव के लिये व्यवस्था से निवेदन करती है । संस्थाएं बदलाव के लिये जनजागरण करती हैं तो संगठन जन आक्रोश का सहारा लेते हैं । संगठन संस्थागत कार्यो में भी सक्रिय रहते है तो संस्थाएं कभी संगठनात्मक कार्य नहीं करती । संगठन मजबूतो से सुरक्षा के लिये बनते है और बाद में कमजोरों का शोषण करने लगते है । संस्थाएं मजबूतों की मदद से बनती है और कमजोरों की सहायता करती है ।
प्रवृत्ति के आधार पर दो ही प्रकार के संगठन बनाये जा सकते है । एक सामाजिक लोगों का और दूसरा समाज विरोधी तत्वों का । इसके अतिरिक्त किसी अन्य आधार पर कोई संगठन बनता है तो हमेशा सामाजिक आधार पर बने संगठनों को कमजोर करता है क्योंकि समाज विरोधी तत्व ऐसे संगठनों से सहायता प्राप्त करने लगते हैं अथवा उन्हें ऐसे संगठनों में छिपने के लिये जगह मिल जाती है । व्यवस्था की दृष्टि से ही कुछ स्वाभाविक संगठन भी बनते है जिन्हें हम परिवार, गांव, क्षेत्र प्रदेश और देश के नाम से पुकारते है । ये संगठन नीचे से लेकर ऊपर तक एक-दूसरे के सहायक होते है, टकराते नहीं । इनका उद्देश्य समाज व्यवस्था को मजबूत करना होता है, कमजोर करना नहीं । धर्म, जाति अथवा किसी अन्य आधार पर यदि कोई संस्था बनती है तो वह भी समाज व्यवस्था के लिये सहायक होती है किन्तु धर्म, जाति, भाषा, गरीब-अमीर, श्रमजीवी-बुद्धिजीवी, महिला-पुरूष अथवा किसी भी अन्य आधार पर कोई संगठन बनता है तो वह संगठन हर प्रकार की सामाजिक व्यवस्था को नुकसान ही पहुँचाता है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है । जब कोई व्यक्ति कोई संगठन बनाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सक्रियता दिखाता है तब वह सक्रियता उसकी मौलिक अधिकार नहीं होती । वह सक्रियता उसकी संवैधानिक अधिकार हो सकती है । दुर्भाग्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हड़ताल, चक्काजाम, विरोध प्रदर्शन आदि घातक कार्य किये जाते है । सच्चाई यह है कि जब व्यक्ति किसी के साथ जुड़कर संगठन बन जाता है तब उसके मौलिक अधिकार नहीं होते सिर्फ संवैधानिक अधिकार होते है क्योंकि मौलिक अधिकार सिर्फ व्यक्ति के व्यक्तिगत होते है, सामूहिक नहीं । कोई भी संगठन चाहे वह कहीं भी बना हो और किसी भी परिस्थिति में बना हो यदि स्वतंत्रता संघर्ष के अतिरिक्त किसी और परिस्थिति में बनता है तो वह सामाजिक समस्या है, समाधान नही, क्योंकि संगठन हमेशा व्यवस्था पर दबाब बनाते हैं और उसे ब्लैकमेल करते हैं । इसका परिणाम होता है असंगठितों का शोषण । मैंने तो आज तक एक भी ऐसा संगठन नहीं देखा जो मार्ग शुद्धिकरण के विषय में भी कुछ सोचता हो । मैंने तो देखा है कि संगठन संघे शक्ति कलयुगे का गर्व से नारा लगाते है । संगठन से जुड़े लोग अपने को शेर प्रवृत्ति का मानने पर गर्व अनुभव करते है और गाय प्रवृत्ति को हीन भाव से देखते है । जो हिन्दू गाय की पूजा करना अपना सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य मानते है वे भी जब संगठन के साथ जुड़ते है तब शेर के समान शक्तिशाली होना अच्छा मानते है । संगठनों के आपसी टकराव के कारण समाज में निरंतर हिंसा का विस्तार हो रहा है क्योंकि संगठन अपने विस्तार के लिये उचित या अनुचित मार्ग में कोई अन्तर नहीं देखते ।
वर्तमान समय में दुनियां में विचारकों का अभाव हो रहा है । उसका मुख्य कारण समाज में बढ़ता हुआ संगठनों का जाल है । जब भी कोई बालक प्रबुद्ध दिखने लगता है तो विभिन्न संगठन उसे अपने साथ जोड़ने के लिये सारी ताकत लगा देते है । धीरे धीरे उसका ब्रेन वाश कर दिया जाता है और या तो वह साम्यवादियों के विचारों से ओत-प्रोत हो जाता है अथवा संघ विचारों से जुड़ जाता है । उसकी स्वतंत्र चिंतन की दिशा समाप्त हो जाती है । वह कभी स्वतंत्र विचार नहीं कर पाता । संगठन कभी विचारों के आधार पर नहीं बढ़ते, संबंधों के आधार पर बढ़ाये जाते है । संगठन में तर्क या विचार मंथन पर पूरा प्रतिबंध होता है । संगठन भाईचारा, प्रेम, सेवा, सद्भाव और त्याग, भावना को आधार बनाकर अपना विस्तार करते है । संगठनों में गिने चुने चालाक व धूर्त लोग होते है जो निर्णायक स्थिति में होते है, अन्य सभी भावना प्रधान लोग उनके पीछे-पीछे भेड़ बकरी के समान चलते जाते है । संगठन में इतनी अधिक शक्ति बढ़ जाती है कि संगठन असंगठित लोगों की तुलना में कई गुना तेज गति से आगे बढ़ता है । संगठन में सफलता अधिक तेजी से मिलती है ।
हम भारत की वर्तमान स्थिति की समीक्षा करे तो भारत में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार के संगठन बन गये है । हम देख रहे है कि दुनियां में इस्लाम बहुत तेज गति से आगे बढ़ रहा है क्योंकि इस्लाम पूरी तरह एक संगठन है जिसे धर्म कह दिया जाता है । इस्लाम में कोई भी संस्थागत लक्षण नहीं हैं । यही कारण है कि इस्लाम दुनियां में तेजी से बढ़ रहा है । भारत में भी इस्लाम अपने संगठनात्मक शक्ति के बल पर निरंतर बढ़ रहा है । साम्यवाद भी संगठन शक्ति के बल पर भी दुनियां में आगे बढ़ा भले ही अब वह अन्य संगठनों के समक्ष कमजोर पड़ रहा है । भारत में संघ ने भी इस्लाम और साम्यवाद की सफलता को देखते हुये संगठन का मार्ग अपनाया । परिणामस्वरूप संघ भी एक मजबूत संगठन के रूप में स्थापित हो गया । राजनैतिक क्षेत्र में भी जो राजनैतिक दल होते है उनका स्वरूप पूरी तरह संगठनात्मक ही होता है, संस्थागत नहीं होता । इसी तरह भारत में अन्य सभी क्षेत्रों में संगठन बनाने की एक होड़ मची हुई है । हर धूर्त किसी न किसी नाम पर संगठन खड़ा करना चाहता है जिसके बल पर वह असंगठितों का सफलतापूर्वक शोषण कर सके तथा व्यवस्था को ब्लैकमेल कर सके । जातीय संगठन, कर्मचारी संगठन अथवा अन्य संगठनों ने भारत की आंतरिक व्यवस्था को अव्यवस्था में बदल दिया है । अब तो प्रत्येक व्यक्ति अपनी सुरक्षा के लिये किसी न किसी संगठन से जुड़ना चाहता है क्योंकि उसे राजनैतिक व्यवस्था से सुरक्षा का भरोसा नहीं दिखता और बिना किसी संगठन के सहारे वह अपना भविष्य उज्ज्वल नहीं देखता । हम जब देश में चारों और आंख उठाकर देखते है तो ऐसा व्यक्ति जल्दी से नहीं मिलता जिस पर हम यह विश्वास कर सके कि यह व्यक्ति सत्य ही बोलता होगा, निष्पक्ष होगा, किसी संगठन में जुड़ा नहीं होगा । कई लोग तो ऐसे भी मिलते है जो कई कई संगठनों से जुडे़ होते है । संगठनों के आपसी टकराव में भारत का अपना मौलिक चरित्र गिर रहा है । लोकतंत्र भी अविश्वसनीय हो गया है और सबसे बड़ा नुकसान यह हो रहा है कि भारत विचारों के मामलों में कंगाल हो गया है । वैचारिक धरातल पर हम पूरी तरह दुनियां के अनेक देशों की नकल करने के लिये मजबूर है क्योंकि जब हर आदमी किसी न किसी संगठन से जुड़ रहा है तब भारत में विचारक कहां से निकलेंगे । यदि कोई व्यक्ति स्वतंत्र चिंतन करना शुरू करता है तो अलग- अलग संगठन के लोग उसे शत्रु के समान कमजोर करने का प्रयास करते है । गांधी एक स्वतंत्र विचारक थे । हम गांधी की मृत्यु के बाद गांधी के स्तर का कोई विचारक सामने नहीं ला सके बल्कि यहां तक हुआ कि संगठनों ने गांधी को ही अप्रासंगिक घोषित कर दिया है । यदि हम तीन संगठनों का आकलन करे तो मुसलमान साम्यवादी और संघ परिवार गांधी की आलोचना करने में एक साथ हो जाते है, भले ही आपस में कितना भी क्यों न कटते-मरते हो क्योंकि हर संगठन किसी भी स्वतंत्र विचार को अपने लिये घातक मानता है और विचारक को शत्रु । संगठनवाद सारी दुनियां के लिये एक बड़ी समस्या है । भारत तो संगठनवाद में बुरी तरह लहूलुहान है । संगठनवाद का विरोध बहुत कठिन भी और खतरनाक भी । गांधी का परिणाम हम देख चुके है कि उन्होंने संगठनों से हटकर नई दिशा पर चलने का प्रयास किया तो परिणाम दुःखद हुआ । फिर भी यह प्रश्न अवश्य खड़ा होता है कि जब देश की स्वतंत्रता के लिये अनेक लोग फांसी पर चढ़े, स्वेच्छा से गोली खा गये, स्वेच्छा से जेलों में रह गये तो हम स्वतंत्र भारत में वर्तमान संगठनवाद से डरकर आगे आने का प्रयास क्यों न करे । संगठनवाद एक समस्या है और समाधान के लिये किसी न किसी को तो आगे आना ही होगा । फिर हम वह पहल हम क्यों न करें । जिन देशों में लोकतंत्र नही है वहां संगठनों की आवश्यकता पर विचार किया जा सकता है किन्तु जहां लोकतंत्र है वहां संगठनों का ओचित्य क्या? राजनीति समाज को हमेशा विभाजित करके रखना चाहती है इसलिये वह संगठनों को प्रोत्साहित करती है । भारत एक लोकतांत्रिक देश है । भारत में संगठन बनाना असामाजिक कार्य माना जाना चाहिये । सरकार माने या न माने यह उसका काम है लेकिन समाज को तो इस दिशा में सोचना ही चाहिये । आज भारत में जो अव्यवस्था और हिंसा का वातावरण दिख रहा है उसका प्रमुख कारण संगठनवाद के प्रति बढ़ता आकर्षण है । मैं चाहता हूँ कि हम आप मिलकर समाज को इन परिस्थितियों से अवगत करावे और प्रयास करे कि संगठनवाद से मुक्ति के लिये कोई एक नई राह निकल सके ।
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