कन्या भ्रूण हत्या कितनी समस्या और कितना समाधान
कुछ स्वयं सिद्ध सिद्धांत हैं-
(1) समस्याओं के तीन प्रकार के समाधान दिखते है- (1) प्राकृतिक (2) सामाजिक (3) संवैधानिक । अधिकांश समस्याओं के प्राकृतिक समाधान होते हैं । सामाजिक समाधान कुछ विकृति पैदा करते है तो कुछ समाधान करते है । संवैधानिक प्रयत्न सामाजिक विकृतियों का लाभ उठाते है ।
(2) अधिकांश समस्याओं का प्राकृतिक समाधान मांग और पूर्ति पर निर्भर करता है । किसी वस्तु की मांग बढती है तो महत्व और मूल्य बढता है, महत्व और मूल्य बढता है तब मांग घटती है पूर्ति बढती है ।
(3) व्यक्ति और समाज मूल इकाई होते है । परिवार से राष्ट्र तक व्यवस्था की ईकाइयां है । परिवार, गांव, जिला, प्रदेश, देश, व्यवस्था की आदर्श इकाईयां मानी जाती है । भारत मे इस क्रम को बदल कर जाति, वर्ण, धर्म, राष्ट्र कर दिया गया ।
(4) महिला या पुरुष या तो व्यक्ति होते है अथवा परिवार के सदस्य । इनका कभी महिला-पुरुष के रुप में कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता ।
(5) राज्य प्राकृतिक या सामाजिक समस्याओं का प्रशासनिक समाधान करता है, जो पूरी तरह गलत होता है ।
(6) सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत परिवार में पुरुष प्रधान होता है क्योंकि आमतौर पर महिला पति परिवार में जाकर शामिल होती है । आमतौर पर पुरुष बाहर काम अधिक देखते है और महिलाये घर का । प्राकृतिक रुप से भी पति-पत्नी के संबंधों में पति आक्रामक और पत्नी का आकर्षक होना आवश्यक है ।
(7) राजनेता दुनियां का सबसे बडा असामाजिक व्यक्ति बन गया है । वह सेना पुलिस संविधान, कानुन आदि के सहारे समाज को बांट कर उसे गुलाम बनाकर रखना चाहता है ।
(8) भारतीय कानूनों ने परिवार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के उद्देश्य से दहेज व्यवस्था पर तो प्रतिबंध लगा दिया, दुसरी ओर विवाह के बाद भी महिलाओं को पिता की सम्पत्ति मे हिस्सेदार बना दिया ।
एक शिक्षक, एक बालक को इस प्रकार चलने का अभ्यास करा रहे थे, कि जब बालक का बाया पैर आगे बढे तो साथ में दाहिना हाथ आगे जाना चाहिए और दाहिने पैर के साथ बाया हाथ । महिनों प्रयास के बाद भी बालक सीख नहीं पा रहा था । एक सलाह के आधार पर जब बालक को स्वतंत्र रुप से चलने के लिए छूट दी गई तो बालक ठीक उसी प्रकार चलने लगा जैसा गुरु जी चाहते थे । इसका अर्थ हुआ कि प्राकृतिक और स्वाभाविक व्यवस्था में अनावश्यक छेडछाड और हस्तक्षेप करना लाभदायक नहीं होता । परिवार की आंतरिक व्यवस्था क्या हो, उसमें महिला सशक्त हो या पुरुष उसमें कौन बाहर का काम करे और कौन घर का, कौन कितने विवाह करें और कौन अविवाहित रह जाये यह अंतिम निर्णय परिवार का होना चाहिए । उसमें कभी भी समाज या सरकार को तब तक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जब तक उनकी आपस मे सहमति है । आश्चर्य है कि महिला सशक्तिकण का नारा लगाकर कानून द्वारा परिवार के आंतरिक मामलों में भी अनावश्यक हस्तक्षेप किया जाता है । दूसरी ओर यदि परिवार का सदस्य परिवार से अलग होना चाहे तो उसे भी अलग होने के पूर्व कानून से स्वीकृति लेनी पडती है । यह कैसा अंधा कानून है कि एक जीवित व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक परिवार से अलग भी नहीं हो सकता और जुड भी नहीं सकता । दुनिया जानती है कि यदि महिलाओं की कुल संख्या घटेगी तो उनका महत्व और सम्मान बढेगा, यदि उनकी संख्या बढेगी तो उनका महत्व और सम्मान घटेगा । प्राचीन समय में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या बहुत अधिक थी परिणामस्वरुप समाज में बहुविवाह, सतीप्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, दहेज जैसी प्रथायें प्रचलित हुई । प्राकृतिक व्यवस्था के अंतर्गत महिला और पुरुष का जन्म लगभग बराबर होता है । सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत महिलायें अधिक हो जाती है और पुरुष कम । जब महिलाओं का महत्व घटता है तब स्वाभाविक रुप से महिलाओं की संख्या घटती है और उनका अनुपात कम होने के बाद धीरे-धीरे उनका महत्व बढता है । कभी समाज में यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते का उदघोष किया जाता है तो कभी ढोल गवार शूद्र पुषु नारी का । ये दोनों ही उदघोष परिस्थिति जन्य होते है, सैद्धांतिक नहीं । क्योंकि इस संबंध में सिद्धांत उनकी संख्या के अनुपात पर निर्भर करता है ।
वर्तमान समय में दो विपरीत बाते एक साथ समाज में कहीं जा रही हैं -
(1) महिलाओं को परिवार और समाज में सशक्त होना चाहिए, उन्हें स्वालम्बी होना चाहिए ।
(2) महिलाओं की संख्या निरंतर बढाने का प्रयास होना चाहिए ।
स्वाभाविक है कि दोनों उद्देश्य एक साथ पूरे नहीं हो सकते क्योंकि यदि महिलाओं की संख्या बढेगी तो उनका महत्व नहीं बढेगा । चूंकि राजनेता कभी किसी समस्या का समाधान नहीं करना चाहते इसलिए वे दोनों बातों को एक साथ जोडकर प्रचारित करते है । स्पष्ट है कि उनका उद्देश्य महिला सशक्तिकरण नहीं है बल्कि परिवार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए महिला और पुरुष के बीच टकराव पैदा करना है ।
मैं आज तक नहीं समझ सका कि कानूनी आधार पर जन्म के बाद मनुष्य का अस्तित्व माना जाता है अथवा जन्म के पूर्व । मेरी जानकारी के अनुसार किसी भी जीवित व्यक्ति की किसी भी परिस्थिति में हत्या नहीं की जा सकती । यदि गर्भ से ही उसे जीवित मान लिया गया तब सिर्फ बालिका भ्रूण हत्या पर ही प्रतिबंध क्यों ? बालक की भ्रूण हत्या पर क्यों नहीं ? वैसे भी बालक की भ्रूण हत्या नगण्य ही होती होगी । तब भ्रूण हत्या को पूरी तरह प्रतिबंधित न करके कन्या शब्द जोडना क्यों आवश्यक है । मेरे विचार में कन्या शब्द जोडने का एकमात्र उद्देश्य महिला और पुरुष के रुप में वर्ग निर्माण और वर्ग विद्वेष फैलाना मात्र है जिससे परिवार व्यवस्था पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो जाये । इस शब्द से आभास होता है कि पुरुष हमेशा शोषक होता है और महिला शोषित । जबकि यह धारणा पूरी तरह असत्य है । यदि इसमें लेश मात्र भी सच्चाई होती तो महिलाये सब कुछ जानते हुये भी स्वेच्छा से पति के घर में नहीं जाती । अनेक तो अपने परिवार की इच्छा के विरुद्ध भी पति के साथ चली जाती है । स्पष्ट है कि जानबुझकर महिला और पुरुष के बीच संदेह की दीवार खडी की जाती है । जब सर्वविदित है कि महिला और पुरुष का एकसाथ रहना अनिवार्य है तब महिला सशक्तिकरण की अपेक्षा परिवार सशक्तिकरण का प्रयास क्यों नहीं होना चाहिए । जब प्राकृतिक रुप से पति को आक्रामक और पत्नी को आकर्षक होना चाहिए तब महिला सशक्तिकरण का अभियान क्यों चलाया जा रहा है ? मेरे विचार में महिलाए भी कभी नहीं चाहती कि उनके पति कमजोर रहे क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक रुप से उचित नहीं है ।
समस्याओं का समाधान खोजते समय उस समाधान से पैदा होने वाली समस्या पर भी ध्यान दिया जाता है । यदि महिलाओं की संख्या कम होगी तो महिला-पुरुष के बीच में अंतर अपने आप घटेगा । दहेज करीब-करीब समाप्त हो गया है और कहीं कहीं लडकियों को भी दहेज मिलने लगा है भले ही उसका नाम कुछ भी रखा जाये या अभी गुप्त हो । महिलाओं में शिक्षा का विस्तार भी तेज गति से हो रहा है और महिलाए परिवार में रहते हुए भी बाहर का काम करने लगी है । यह भी संभव है कि वर्तमान समय में महिलाए पति के घर में जाना मजबूरी समझती है । इस मजबूरी में भी बदलाव आ सकता है । अब महिलाये पति की सहायक न होकर एक दूसरे की पूरक बन गई है । इन सब परिवर्तनों का आधार है महिलाओं की घटती संख्या किन्तु राज्य इन सब बदलावों का श्रेय अपने कानूनों पर देता रहता है । इसके बाद भी मैं समझ नहीं पा रहा कि महिलाओं की संख्या वृद्धि के लिए इतने सरकारी प्रयत्नों की क्या आवश्यकता है । ज्यों ही महिलाओं का महत्व बढेगा, उनकी आबादी अपने आप बढने लग जायेगी । प्राकृतिक और मांग पूर्ति के सिद्धांत से अलग हटकर राजनैतिक समाधान का कोई लाभ संभव ही नहीं है, तब यह प्रयत्न क्यों ? वर्तमान में महिलाओं की जो संख्या है वह हो सकता है कि आधा प्रतिशत और भी घट जाये । यह असंभव है कि वह संख्या 55 , 45 हो जाये । तो आधा प्रतिशत और घटने की संभावना से कोई आसमान नहीं टूट पडेगा ।
मेरे विचार से महिला-पुरुष संबंधों के किसी भी मामले से कानून और राज्य को पूरी तरह दूर हो जाना चाहिए । कानून को चाहिए कि वह या तो जन्म के बाद जीवन माने अथवा यदि भ्रूण से जीवन मानना है तो बालक-बालिका का फर्क समाप्त कर दे । कानून को यह भी चाहिए कि वह महिला-पुरुष को अलग-अलग वर्ग के रुप में न मानकर उन्हें या तो व्यक्ति माने या परिवार का सदस्य । उनके संबंध में कभी कोई विभेदकारी कानून न बनावे । राज्य को यह भी चाहिए कि वह परिवार व्यवस्था को एक संवैधानिक इकाई माने और उसे संप्रभुता सम्पन्न इकाई का दर्जा दे, उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें । साथ ही राज्य का यह भी कर्तव्य है कि वह महिला पुरुष अनुपात को कम ज्यादा करने में अपना हस्तक्षेप कभी न करे जब तक कोई अपातकालिन स्थिति न आ जाये । प्राकृतिक व्यवस्था को प्राकृतिक या सामाजिक आधार पर चलने देना चाहिए । अंत में मेरा यह मत है कि कन्या भ्रूण हत्या न कोई सामाजिक समस्या है, न कोई समाधान । इस समस्या को राज्य ने जानबूझकर उलझाया है और राज्य के अलग होते ही यह समस्या अपने आप समाप्त हो जायेगी ।
मंथन का अगला विषय ‘‘ नई अर्थ नीति ’’ होगा ।
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