धर्म और संस्कृति
किसी अन्य के हित में किये जाने वाले निःस्वार्थ कार्य को धर्म कहते है । कोई व्यक्ति जब बिना सोचे बार-बार कोई कार्य करता है उसे उसकी आदत कहते है । ऐसी आदत लम्बे समय तक चलती रहे तब वह व्यक्ति का संस्कार बन जाती है । ऐसे संस्कार जब किसी बडी इकाई की सामूहिक आदत बन जाते है, तब उसे उस इकाई की संस्कृति कह दिया जाता है । धर्म और संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग विषय है । धर्म, विज्ञान, विचार, मस्तिष्क नियंत्रित होता तो संस्कृति परम्परा भावना और हदय प्रधान होती है । धर्म हमेशा गुण प्रधान होता है तथा समाज के हित मे कार्य करता है । संस्कृति किसी भी प्रकार की हो सकती है । संस्कृति पहचान प्रधान भी हो सकती है और समाज के लिए लाभदायक या हानिकारक भी हो सकती है । धर्म हमेशा सकारात्मक प्रभाव छोडता है और संस्कृति नकारात्मक भी हो सकती है ।
जब समाज में कोई शब्द बहुत अधिक सम्मानजनक अर्थ ग्रहण कर लेता है तब कुछ अन्य शब्द उस शब्द के साथ घालमेल करके उसका अर्थ विकृत कर देते है । धर्म शब्द बहुत अधिक सम्मानजनक था तो धर्म के साथ संस्कृति का घालमेल हुआ । ये दोनों बिल्कुल अलग-अलग होते हुए भी समानार्थी होते चले गये । अब तो धीरे-धीरे स्थिति यहाँ तक आ गई है कि अनेक सम्प्रदाय और संगठन भी स्वयं को धर्म कहने लग गये है और संस्कृति के साथ भी स्वयं को जोड रहे है । धर्म किसी भी परिस्थिति में संगठन नहीं हो सकता, कभी अधिकार की मांग नहीं कर सकता, मुख्य रुप से व्यक्तिगत आचरण तक सीमित होता है, अपनी कोई पृथक पहचान नहीं बनाता, धर्म किसी अन्य के साथ भेदभाव भी नहीं करता किन्तु तथाकथित धर्म सम्प्रदाय स्वयं को धर्म कहकर इन सब दुर्गुणो का धर्म में समावेश कर देता है ।
कुछ हजार वर्ष पूर्व दुनिया में दो संस्कृतियां प्रमुख थी - 1 भारतीय संस्कृति 2 यहूदी संस्कृति । भारतीय संस्कृति में चार वर्ण और चार आश्रम को मुख्य आधार बनाया गया था तो यहूदी संस्कृति में धन सम्पत्ति मुख्य आधार थे । आज भी दोनों के अलग-अलग लक्षण देखे जा सकते हैं । भारतीय संस्कृति में आई विकृतियों के सुधार स्वरुप बौद्ध और जैन संगठन अस्तित्व में आये । दूसरी ओर यहूदी संस्कृति में सुधार के लिए इसाईयत और इस्लाम आगे आये । स्वाभाविक है कि दोनों संस्कृतियों के आगे आने वाले संगठनों के भी गुण और प्रभाव अलग-अलग रहे । इन सब ने संगठन बनाये, विस्तार करने का प्रयास किया और धीरे-धीरे स्वयं को धर्म कहना शुरु कर दिया । यहीं से संस्कृति धर्म सम्प्रदाय और संगठन का आपस में घालमेल शुरु हो गया । धर्म का वास्तविक अर्थ भी विकृत हुआ और धर्म कर्तव्य से दूर होकर अन्य अर्थो में प्रयुक्त होने लगा किन्तु यदि हम भारतीय संस्कृति से निकले बौद्ध जैन तथा यहूदी संस्कृति से निकले ईसाइयत इस्लाम की तुलना करे तो दोनों के बीच आसमान जमीन का फर्क दिखता है । भारतीय संस्कृति नुकसान सह सकती है, कर नहीं सकती है । आज भी दुनिया में हिन्दू संस्कृति ही अकेली ऐसी संस्कृति है जिसने अपनी संगठन शक्ति में संख्यात्मक विस्तार के दरवाजे पूरी तरह बंद कर रखे है । हिन्दू संगठन, धर्म या संस्कृति में किसी अन्य को प्रवेश कराने का प्रयास वर्जित है । गुण प्रधान धर्म में कोई भी शामिल हो सकता है । दूसरी ओर इस्लाम और इसाईयत अपनी संख्यात्मक वृद्धि के लिए सभी प्रकार उचित अनुचित साधनों का प्रयोग करते है । भारतीय संस्कृति के लिए यह एकपक्षीय घोषणा उसकी मूर्खता कहीं जा सकती है किन्तु धूर्तता नहीं । यह उसके लिए गर्व करने का विषय हो सकता है शर्म करने का नहीं । इस प्रवृत्ति के कारण भारतीय संस्कृति ने हजारों वर्षो तक गुलामी सही है किन्तु किसी को गुलाम नहीं बनाया । इस गलती के कारण हिन्दूओं की संख्या लगातार घटती गई है किन्तु कभी कलंक का आरोप नहीं लगा । सारी दुनियां मे कोई ऐसा देश नही जहां मुसलमान दूसरो को शान्ति से रहने देते हो । इन्होने कभी सहजीवन सीखा ही नही । दूसरी ओर हिन्दू जहां भी है वहां कोई अशान्ति पैदा नही करते । यहूदी संस्कृति से निकले इस्लाम और इसाईयत को इस बात का संतोष हो सकता है कि उसने पूरी दुनिया में अपना विस्तार बढाया है । किन्तु सम्मान की दृष्टि से ये संस्कृतियां भारतीय संस्कृति का मुकाबला नहीं कर सकती ।
ऐसे ही संक्रमणकाल में एक साम्यवादी संस्कृति का उदय हुआ जिसने भारतीय और यहूदी संस्कृति से भी अलग जाकर अपनी भिन्न पहचान बना ली । उसका भी बहुत तेज गति से विस्तार हुआ और उतनी ही तेज गति से उसका समापन भी शुरु हो गया है । जिस गति से इस्लामिक संस्कृति ने अपना विस्तार किया है उस पर भी धीरे-धीरे संकट के बादल मंडराने लगे है ।
भारतीय संस्कृति मुख्य रुप से गुण प्रधान थी । लोग जिस तरह का धार्मिक आचरण करते थे, वैसी ही शिक्षा प्रारंभ से ही बच्चों को दी जाती थी । उस शिक्षा के परिणामस्वरुप वह उन बच्चों के संस्कार बन जाती थी । वह संस्कार बढते-बढते भारतीय संस्कृति के रुप में विकसित हुए जिनमें वसुधैव कुटुम्बकम, कर्तव्य प्रधानता, सहनशक्ति, सर्वधर्म सम्भाव, संतोष आदि गुण प्रमुख रहे । इसके ठीक विपरीत इस्लाम अपने बच्चो पर मदरसो के माध्यम से जिस शिक्षा का विस्तार किया वह भविष्य मे इस्लामिक संस्कृति बनकर दुनियां को अशान्त किये हुए है ।
इस्लामिक संस्कृति तथा इसाई संस्कृति ने भारतीय संस्कृति पर कुछ प्रभाव डाला । भारतीय संस्कृति में भी अपनी सुरक्षा की चिंता घर करने लगी । ऐसी चिंता के परिणामस्वरुप ही सिख समुदाय का भारत में विस्तार हुआ और वह भी धीरे-धीरे सम्प्रदाय संगठन और अब अपने को धर्म कहने लग गया है । पिछले कुछ वर्षो से इसी सुरक्षा की चिंता के परिणामस्वरुप संघ नामक संगठन का विस्तार हुआ । उसने अभी स्वयं को अलग सम्प्रदाय या धर्म तो नहीं कहा है किन्तु पूरी ताकत से भारतीय संस्कृति के मूल स्वरुप को बदलने का प्रयास कर रहा है । जो दुर्गुण विदेशी संस्कृतियों में थे उन्हीं दुगुर्णो का भारतीय संस्कृति में भी लगातार प्रवेश हो रहा है । अब धर्म का अर्थ पूजा पद्धति और पहचान तक सीमित हो रहा है । अब धर्म कर्तव्य प्रधान की जगह अधिकार प्रधान बन रहा है । अब भारतीय संस्कृति भी अपनी सख्यात्मक विस्तार की छीना-झपटी मे शामिल हो रही है । अब भारतीय संस्कृति भी सहजीवन की अपेक्षा प्रतिस्पर्धा की ओर बढ रही है ।
यह नहीं कहा जा सकता कि भारतीय संस्कृति ठीक दिशा में जा रही है या गलत । जो भारतीय संस्कृति सहजीवन, वसुधैव कुटुम्बकम, सर्वधर्म समभाव के आधार पर चल रही थी अब उसमें दो स्पष्ट दुर्गुण प्रवेश कर गये है । 1 न्युनतम श्रम अधिकतम लाभ के प्रयत्न । 2 कमजोर को दबाना और मजबूत से दबना ।
मैं मानता हॅू कि ये दोनों दुगुर्ण विदेशी संस्कृति के प्रभाव से आये या कुछ परिस्थितिवश मजबूरी से आये किन्तु आये अवश्य है । अब हिन्दू जनमानस स्वयं को इस बात के लिए तैयार करने में लगा है कि मुसलमानों को येनकेन प्रकारेण हिन्दू बनाने का प्रयास किया जाये । धार्मिक आधार पर संगठित होकर राजनैतिक शक्ति संग्रह करने की इच्छा भी बलवती होती जा रही है । धर्म तो अपना अर्थ और स्वरुप खोता ही जा रहा किन्तु संस्कृति भी धीरे-धीरे विकारग्रस्त होती जा रही है । दिखता है कि हिन्दू संस्कृति अपना प्राचीन गौरवशाली इतिहास खो देगी और इस्लामिक संस्कृति को अपनी वास्तविक शक्ति का परिचय करा देगी । परिणाम अच्छा होगा या बुरा यह तो अभी नहीं कहा जा सकता किन्तु ऐसा होता हुआ स्पष्ट दिख रहा है ।
परिस्थितियां जटिल है । किसी एक तरफ निष्कर्ष निकालना कठिन है । ऐसी परिस्थिति में गुण प्रधान धर्म का विस्तार कैसे हो ? मैं तो यही सोचता हॅू कि परिस्थितियां इस्लाम को इस बात के लिए मजबूर करें कि वह विस्तारवादी संस्कृति को छोडकर सहजीवन के मार्ग पर आ जाये । साथ ही हम भारतीय संस्कृति के लोग मुसलमानों को इस बात के लिए आश्वस्त करें कि भारतीय संस्कृति अपनी मूल पहचान सहजीवन से जरा भी अलग नही होगी । जो लोग शान्ति से रहना चाहेंगे उन्हे पूरा सम्मानजनक वातावरण उपलब्ध होगा ।
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