विचार अधिक महत्वपूर्ण होता है कि संस्कृति
दुनिया में कोई भी दो व्यक्ति एक समान क्षमता वाले नही होते इसलिये हर व्यक्ति की स्थिति अलग अलग होती है। जो भी लोग समानता के प्रयत्न करते है वे या तो गलत हैं या उनका उददेश्य गलत है। स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण है और विशेष परिस्थिति में सहायता भी दी जा सकती है किन्तु समान नहीं बनाया जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति में क्षमता तो अलग अलग होती ही है गुण भी अलग अलग होते है। कुछ लोगो में निष्कर्ष निकालने की क्षमता अधिक होती है तो कुछ लोगो में कम। जिनमें निष्कर्ष निकालने की क्षमता अधिक होती है वे विचार प्रधान बन जाते है और जिनमें यह क्षमता कम होती है वे संस्कृति प्रधान बन जाते है। प्रत्येक व्यक्ति में विचार और संस्कृति का मिला जुला स्वरूप होता है किन्तु मात्रा कम ज्यादा होती रही है। विचार आमतौर पर देश, काल, परिस्थिति अनुसार बदलते रहते है जबकि संस्कार आसानी से नहीं बदलते।
कोई व्यक्ति बिना सोचे समझे बार बार किसी कार्य को करने लगता है तो वह उसकी आदत बन जाती है। ऐसी आदत लम्बे समय तक बनी रहे तो वह उस व्यक्ति का संस्कार बन जाती है। ऐसा संस्कार जब बहुत बड़ी संख्या में लोगो के बीच समान रूप से स्थापित हो जाये तो वह उस समूह की संस्कृति बन जाती है। संस्कृति बहुत धीरे धीरे बनती है, दीर्घकालिक होती है और आसानी से बदलती नहीं। विचार मौलिक होता है परिवर्तनशील होता है। बालक जब जन्म लेता है तो सबसे पहले उसके पारिवारिक संस्कार बनते है और बाद में धीरे धीरे उसके स्वयं के विचार बनते है। विचार स्वयं के निष्कर्ष होते है। संस्कार अनुकरण से बनते है। किसी विचारक के विचार समाज में बिना विचारे स्वीकार कर लिये जाते है तो वे संस्कार बन जाते है। ऐसी परिस्थिति में उक्त विचारक के बाद जब कोई परिस्थिति अनुसार सुधार या संशोधन की बात आती है तब उक्त संस्कृति से नये विचारों का टकराव शुरू हो जाता है क्योंकि संस्कार आसानी से बदलता नहीं और विचार हमेशा बदलता रहता है। यही कारण है कि किसी भी नये विचारक को प्रारंभ में बहुत खतरे उठाने पड़ते है और जब कालान्तर में कोई नया विचार आता है तब उक्त विचारक के विचारों के आधार पर बना सांस्कृतिक संगठन नये विचारों के लिये खतरा बन जाता है। नये विचार और संस्कृति में एक टकराव होता है और उस टकराव के बाद विचार और संस्कृति के बीच कुछ संशोधित मार्ग निकलता है।
वर्तमान दुनियां में विचारों का अभाव होकर संस्कारों का प्रभाव बढ़ रहा है। सारी दुनिया में भारत इन दोनों के बीच समन्वय के मार्ग पर चलता था। वर्ण व्यवस्था इसका आधार रही। विचारक मार्गदर्शक होता था और अन्य तीन रक्षक, पालक और सेवक मार्गदर्शित होते थे अर्थात अनुकरण करते थे। जबसे भारत में वर्ण व्यवस्था विकृत हुई और विचार मंथन बंद हुआ तब भारत गुलाम हुआ। तबसे भारत में विचार मंथन शुरू नहीं हो सका और अब तक लगभग वही स्थिति है। परिणाम हुआ कि हम दुनियां की अन्य संस्कृतियों की आँख बंद करके नकल करने लगे। दुनिया में शक्ति प्रधान साम्यवाद, संगठन प्रधान इस्लाम तथा धन प्रधान पश्चिम के बीच निरन्तर टकराव बना हुआ है। भारत विचार शून्य होने के कारण इन तीनों के टकराव का शिकार बन गया अर्थात भारत विचारों के अभाव में इन तीनों की नकल करने के लिये मजबूर हुआ, जिसका परिणाम हुआ कि भारत इन तीनों के टकराव में फंस गया। आज भारत में जिस तरह हिंसा बढ़ रही है उसका प्रमुख कारण इन तीनों संस्कृतियों के टकराव के प्रयोगस्थल के रूप में भारत में दिखाई दे रहा है। वर्तमान हिंसा हमारी भारतीय संस्कृति में ही लगातार बढ़ती जा रही है क्योंकि विचार मस्तिष्क का विषय होता है अनुकरण हृदय को प्रभावित करता है। विचार ज्ञान प्रधान होता है तो संस्कार कला प्रधान। भारत में चिंतन मंथन बंद हो गया। वर्ण व्यवस्था टूट गई। विचार और संस्कृति का समन्वय नहीं रहा। परिणामस्वरूप भारत पूंजीवादी लोकतंत्र, साम्यवादी तानाशाही, इस्लामिक साम्प्रदायिकता के विश्वव्यापी टकराव के प्रयोग स्थल के रूप में आगे बढ़ रहा है। भारत हर जगह मोटिवेटेट के समान आचरण कर रहा है और दुनियां की तीनों संस्कृतियां भारत पर मोटिवेटर बनकर अपने संस्कार थोप रही है जबकि प्राचीन समय में इससे ठीक उल्टा था अर्थात भारत मोटिवेटर था और दुनिया मोटिवेटेट।
चाहे कोई व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र, विचार और संस्कार का संतुलन ही उसे महत्वपूर्ण बनाता है। यदि व्यक्ति संस्कार विहीन होकर सिर्फ विचार प्रधान हो जायेगा तो वह साम्यवादियों के समान दुनियां के लिये खतरा भी बन सकता है। यदि कोई व्यक्ति सिर्फ अंधा अनुकरण ही करेगा तो वह गांधी के समान विचारक को गोली भी मार सकता है। पश्चिम में भी अनेक विचारक फांसी पर चढ़ा दिये गये। इसलिये विचार और संस्कार का संतुलन होना चाहिये। भारत में वर्ण व्यवस्था के रूप में समाज में ऐसा संतुलन था। वर्ण व्यवस्था रूढ़ हो गई। विचारकों का अभाव हो गया। विचारकों का स्थान राजनेताओं या पूंजीपतियों ने ले लिया। परिणाम हुआ कि भारत धीरे धीरे वैचारिक धरातल पर कमजोर होता चला गया। आज भारत में इस्लामिक संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति और हिन्दू संस्कृति के बीच टकराव हो रहा है। मोदी के पूर्व तो यह टकराव इस्लाम, साम्यवाद और पूंजीवाद के बीच था। भारतीय संस्कृति तो इन तीनों के टकराव के कारण लहुलुहान हो रही थी। अब नरेन्द्र मोदी के बाद टकराव इस्लाम, पूंजीवाद और भारतीय संस्कृति के बीच हो रहा है। अब भी भारत में विचार महत्वपूर्ण नहीं बन पा रहा है क्योंकि टकराव सिर्फ संस्कृतियों के बीच है जिसमें से साम्यवादी संस्कृति कमजोर हुई है और हिन्दू संस्कृति धीरे धीरे मजबूत हो रही है किन्तु इस्लामिक संस्कृति तथा साम्यवादी संस्कृति के बीच तालमेल होने से शक्ति संतुलन बराबर का हो गया है। यही कारण है कि वर्तमान भारत में विचार मंथन की जगह हिंसक टकराव बढ़ रहे है। मस्तिष्क की जगह हृदय महत्वपूर्ण हो गया है। सांस्कृतिक संगठन खुले आम विचारों से दूर हट रहे है। धर्म के नाम पर संगठन बन रहे है। ये संगठन मोटिवेटर का काम कर रहे है। समाज किं कर्तव्य विमूढ़ है कि वह क्या करे। उसे मार्गदशकों का मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है। उसे मार्गदर्शन मिल रहा है साम्प्रदायिक शक्तियों, राजनैतिक शक्तियों अथवा आर्थिक शक्तियों का। आज वर्तमान भारत की स्थिति यह हो गई है कि कोई भी व्यक्ति मंथन के लिये तैयार नहीं है। विचार मंथन की जगह विचार प्रचार अधिक महत्वपूर्ण बन गया है। मंथन की जगह सक्रियता का प्रचार किया जा रहा है। अच्छे अच्छे विचारक कहे जाने वाले लोग भी विचार मंथन की जगह सक्रियता को अधिक महत्वपूर्ण बता रहे है। जिस देश में गांधी हत्या को भी उचित बताया जा रहा हो उस देश में स्वतंत्र विचार मंथन कितना खतरनाक होगा यह आसानी से समझा जा सकता है। इस्लाम तो पूरी तरह संगठन होता ही है। इस्लाम में स्वतंत्र विचारों को काफिराना कार्य माना जाता है। हिन्दुत्व भी धीरे धीरे उसी दिशा में बढ़ रहा है अर्थात रक्षक, पालक और सेवक के बीच तो टकराव है किन्तु इस टकराव में मार्गदर्शक का महत्व और भूमिका शून्यवत होती जा रही है। विदेशों से आयी हुई असत्य धारणाएं भारत में सत्य के समान प्रचलित और स्थापित हो गई है। भारत में ऐसी कोई प्रणाली विकसित नहीं हो पा रही है जो इन विदेशी असत्य धाराणाओं को वैचारिक धरातल पर चुनौती दे सके।
गांधी एक विचार था गांधीवाद संस्कार बन गया। किसी संस्कारित व्यक्ति ने गांधी की हत्या कर दी तो गांधीवादी किसी दूसरे संस्कारित समूह की गोद में चले गये। यह स्थिति गांधी की ही नही है। विचारक के चले जाने के बाद उक्त विचार के अनुकरणकर्ता किसी भी नये विचार के साथ ऐसा ही व्यवहार करते है जैसा वर्तमान गांधीवादी कर रहे है। भारत दुनिया को संतुलन का संदेश देता रहा है किन्तु आज भारत स्वयं वैचारिक धरातल पर कंगाल हो गया है। भारत आंख मूंदकर विदेशी संस्कृतियों की नकल कर रहा है। इस नकल का परिणाम है कि आज भारत वर्तमान व्यवस्था को बदलने को प्राथमिक कार्य नही समझ रहा है बल्कि वर्तमान व्यवस्था को तोडने की ओर अधिक सक्रिय है। वर्ण व्यवस्था ठीक करने की जगह वर्ण व्यवस्था को तोड देने के नारे लगाये जाते है। वर्तमान कानूनों में सुधार करने की या उनमे बदलने की आवश्यकता है, तोडने की नहीं। भारत में खुले आम साम्यवादी और इस्लामिक संस्कृतियो कानून तोडने को प्राथमिकता देती ही है किन्तु हमारी भारतीय संस्कृति में भी कानून बदलने की अपेक्षा कानून तोडने की धारणा को प्रोत्साहित किया जा रहा है। अच्छे अच्छे राजनेता जनहित के नाम पर सड़को पर बेशर्म गुण्डागर्दी करते है और कानून तोडकर पुलिस से टकराना अपना अहोभाग्य समझते है। कानून बदलने पर विश्वास ही नहीं रहा। सिस्टम सबसे उपर होता है और सिस्टम पर विचारकों का ही प्रभाव होता है। विचारकों के अभाव में सिस्टम उच्श्रृंखल हो गया और अब सिस्टम को भी तोड़ना एक फैशन बन गया है। संपूर्ण भारत में विचारो का अभाव हो गया है। संस्कृति हावी हो गई है। संस्कृति भी हमारी भारतीय संस्कृति की जगह साम्यवाद, इस्लाम और पूंजीवाद को मिलाकर खिचड़ी के रूप में बन गई है। भविष्य चिंता जनक दिख रहा है। समाधान वर्तमान सांस्कृतिक टकराव में नही बल्कि विचार और संस्कृति के संतुलन मे निकलेगा भारत दुनिया का मार्गदर्शन करता रहा है। वर्तमान भारत मार्गदर्शन के अभाव में किं कर्तव्य विमूंढ़ हो गया है। ऐसी संकटकालीन परिस्थिति में उचित है कि भारत मार्गदर्शन कि दिशा में बहुत तेज गाति से आगे बढे़। भारत में धर्म, राज्य, अर्थ और श्रम की तुलना में समाज को अधिक महत्वपूर्ण माना जाये। भारत में राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र के साथ-साथ भारतीय समाज शास्त्र को भी आगे किया जाये। भारत में विचार केन्द्र प्रारंभ हो जहां विपरीत विचारों के लोग एक साथ बैठकर स्वतंत्र विचार मंथन कर सकें और समाज का मार्गदर्शन कर सके। विचार और संस्कार का संतुलन ही दुनियां की वर्तमान समस्याओं के समाधान का मार्ग निकालने में सक्षम है। भारत को इसकी पहल करनी चाहिये।
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