समाजशास्त्र का तानाबाना

व्यक्ति की स्वतंत्रता और सहजीवन का तालमेल ही समाजशास्त्र माना जाता है। व्यक्ति एक प्राकृतिक इकाई है और समाज संगठनात्मक इकाई। व्यक्ति की स्वतंत्रता असीम होती है और समाज के साथ जुड़ना उसकी अनिवार्य मजबूरी होती है। व्यक्ति जब तक अकेला है तब तक उसकी स्वतंत्रता है और किसी दूसरे के साथ जुड़ते ही उसकी स्वतंत्रता संयुक्त हो जाती है। इसका अर्थ हुआ कि व्यक्ति को सिर्फ एक स्वतंत्रता है कि वह किसके साथ और कब तक जुड़कर रहना चाहता है। दुनियां मे चार प्रकार की व्यवस्था है:- भारतीय, पाश्चात्य, इस्लामिक और साम्यवादी। पाश्चात्य व्यवस्था व्यक्ति को सबसे अधिक महत्व देती है, इस्लाम संगठन को, साम्यवाद राज्य सत्ता को तथा भारतीय संस्कृति समाज व्यवस्था को सर्वोच्च मानती है। पश्चिम और भारत व्यक्ति की स्वतंत्रता को स्वीकार करते है और व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार मानते है। जबकि इस्लाम व्यक्ति को धार्मिक सम्पत्ति और साम्यवाद राष्ट्रीय सम्पत्ति मानता है। भारतीय व्यवस्था विचारो को अधिक महत्व देती है, पश्चिम धन को महत्व देता है, इस्लाम शक्ति को महत्व देता है और साम्यवाद सामाजिक विघटन को। पश्चिमी जगत कृत्रिम ऊर्जा पर अधिक महत्व देता है, इस्लाम संगठनात्मक एकता को, साम्यवाद हथियारो को और भारत दृश्य समाज को। भारत और पश्चिम लोकतंत्र को महत्व देता है तो मुस्लिम देश और साम्यवादी देश तानाशाही को महत्व देते है।

दुनियां की समाज व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। समाज शब्द पर राज्य व्यवस्था ने एकाधिकार कर लिया है और राज्य ही अपने को समाज घोषित करता है। राज्य हमेशा प्रयत्न करता है कि समाज कभी एकजुट न हो। इसके लिये राज्य समाज मे वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष बढ़ाता रहता है। लोकतांत्रिक देशो की यह अधिक मजबूरी होती है व्योकि लोकतांत्रिक देशो को लोकप्रियता की अधिक आवश्यकता होती है। तानाशाही वाले देशो मे वर्ग संघर्ष का अधिक महत्व नही होता। समाज की एकजुटता से सत्ता हमेशा भयभीत रहती है, इसलिये वह सामाजिक विघटन के लिये अनेक प्रयत्न करती है। सत्ता मुख्य रूप से सामाजिक विघटन के लिये आठ आधारो का सहारा लेती हैः-

  1. राज्य सत्ता समाज को धर्म के आधार पर बांटकर रखना चाहती है। भारत भी इस प्रयत्न में निरन्तर लगा रहता है। दुनियां मे धर्म आधार पर जितनी हत्याएं हुई है उतनी अपराधियों ने नहीं की। फिर भी हर राज्य सत्ता यह प्रयत्न जारी रखती है।
  2. समाज को तोड़ने के लिये जाति विभाजन को भी प्रोत्साहित किया जाता है। जातीय टकराव को हर राजनैतिक दल मुख्य आधार बनाता है। सवर्ण-अवर्ण आदिवासी मूल निवासी के नाम से निरन्तर टकराव को जीवित रखा जाता है।
  3. भाषा के नाम पर भी समाज में टकराव बढ़ाने का प्रयत्न चलता रहता है। हर राजनैतिक दल हमेशा इस टकराव को जिंदा रखना चाहता है।
  4. क्षेत्रवाद भी सामाजिक विघटन का महत्वपूर्ण हथियार होता है। शिवसेना सहित अनेक राजनैतिक दल तो क्षेत्रियता को ही मुख्य आधार बनाये रखते है।
  5. उम्र भेद का भी इसके लिये बहुत उपयोग होता है। युवा और वृद्ध में समाज को बांटकर उनके बीच टकराव पैदा किया जाता है।
  6. लिंग भेद भी हमेशा जीवित रखा जाता है। समाज में महिला और पुरूष के बीच टकराव निरन्तर बढ़ाने का प्रयत्न चलता रहता है।
  7. सब जानते है कि न कोई व्यक्ति गरीब होता है न अमीर होता है, क्योकि गरीब-अमीर शब्द सापेक्ष होते है लेकिन हर राजनैतिक दल गरीब-अमीर शब्दो का लगातार उपयोग करते रहते है।
  8. उत्पादक और उपभोक्ता ये दोनो शब्द भी सामाजिक विघटन के लिये बहुत काम आते है। इस तरह इन आठ के अतिरिक्त भी कई तरीकों पर प्रयत्न चलता रहता है। अब तो गांँव-शहर के बीच भी टकराव बढ़ाया जा रहा है।

हर राजनैतिक दल यह प्रयत्न करता है कि कभी मुसलमानों को विशेषाधिकार दे दिया जाये तो कभी हिन्दुओं को। इसी तरह कभी सवर्ण को अधिकार दे दिये जाते है तो कभी अवर्ण और आदिवासियों को। कभी पुरूषों को अधिकार दिये जाते है तो कभी महिलाओं को। गरीबों को प्रत्यक्ष सुविधा दी जाती है तो अमीरों को अप्रत्यक्ष। किसी न किसी आधार पर वर्ग विद्वेष बढ़ना ही चाहिये और वर्ग संघर्ष तक जाना चाहिये, यह हर राजनैतिक दल का मुख्य उददेश्य रहता है। जहाँ साम्यवादी सत्ता में नही होते वहाँ साम्यवादी लोग वर्ग संघर्ष को ही सबसे पहला हथियार मानते है लेकिन अन्य राजनैतिक दल भी इस तरह के सामाजिक विघटन के कार्यो मे पीछे नही रहते। धीरे धीरे समाज शब्द की परिभाषा बदल दी गई। अब तो कुछ लोग धर्म को ऊपर मानते है तो कुछ लोग राष्ट्र को। समाज सबसे ऊपर होता है यह कहने वाला शायद ही कोई मिले। कुछ लोग तो जाति समाज को ही समाज मान लेते है तो कुछ अन्य लोग महिला संगठन को समाज कह देते है। समाज शब्द का अर्थ और स्वरूप पूरी तरह बदल दिया गया।

समाज का अर्थ होता है संपूर्ण मानव समाज और दुनियां का प्रत्येक व्यक्ति इसमे शामिल होता है। लेकिन समाज का अदृश्य संगठन होता है जिसका कोई प्रत्यक्ष ढांचा नही बना है। इसलिये राष्ट्रों ने ही अपने को समाज घोषित कर दिया। हमारी भारतीय प्रणाली मे समाज का दृश्य स्वरूप बना और उस स्वरूप मे परिवार, गाँव, राष्ट्र को व्यवस्था का अंग माना गया। साम्यवाद तो राज्य के अतिरिक्त और किसी को मानता ही नही है। लेकिन पश्चिम भी परिवार को व्यवस्था की पहली इकाई नही मानता है। भारत और इस्लाम परिवार को व्यवस्था की पहली इकाई मानते है। मैरे विचार से भारत और इस्लाम का तरीका पश्चिम की तुलना मे अधिक अच्छा है। समाज व्यवस्था का प्रशिक्षण और अनुशासन यदि परिवार से होता है तो यह अधिक सुविधाजनक है। इसलिये व्यक्ति और समाज के बीच परिवार, गाँव और राष्ट्र की भी व्यवस्था मे भूमिका होनी चाहिये। दुनियां की वर्तमान स्थिति समाज व्यवस्था को समाप्त करके राज्य और सम्पत्ति को अधिक महत्व देने की ओर अग्रसर है। यही कारण है कि दुनियां भौतिक उन्नति और हिंसा पर अधिक विश्वास कर रही है। दुनियां नैतिक पतन और विचार मंथन से दूर हट रही है। सारी दुनियां प्रचार माध्यमों का सहारा लेकर असत्य को सत्य के समान स्थापित कर देती है। भारत इसका सबसे बड़ा शिकार है। पश्चिमी दुनियां ने सारे असत्य भारत मे सत्य के समान स्थापित कर दिये है। इसलिये यह लगभग असंभव दिखता है कि समाजशास्त्र की वास्तविक रूप रेखा दुनियां के सामने कैसे प्रस्तुत की जाये। दिखता है कि एक बाल्टी से समुद्र साफ करने जैसा असंभव कार्य हमारे समक्ष है किन्तु यह बात भी स्पष्ट है कि समाज को राज्य और राज्य को संगठन शक्ति से ऊपर स्थापित करने का प्रयत्न करना ही होगा। समाज शब्द भारतीय संस्कृति का मुख्य आधार रहा है। इसलिये भारत को ही यह पहल करनी चाहिये। यह कार्य असंभव दिखता जरूर है लेकिन असंभव मानना ठीक नही। इसलिये हमें इस कार्य की शुरूआत करनी चाहिये। हम चार अलग अलग दिशाओ में काम कर सकते हैः-

  1. दुनियां का असत्य वैचारिक धरातल पर भारत मे सत्य के समान स्थापित न हो इसके लिये हमे सब प्रकार के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक विषयों पर अलग अलग स्वतंत्र विचार मंथन आयोजित करने होगें। इस कार्य को बजरंग मुनि सामाजिक शोध संस्थान प्रारंभ कर चुका है।
  2. हमे धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रियता, उम्र, लिंग, गरीब-अमीर किसान-मजदूर जैसे अनेक सामाजिक विघटनकारी शब्दों से परहेज करना होगा। आमतौर पर ऐसा प्रचारित किया जाता है कि महिलाओं, गरीबों, मजदूरों, हिन्दूओं के साथ बहुत अन्याय होता है। मैं मानता हूँ कि ऐसा कभी कभी होता भी है। किन्तु राजनैतिक दल इस अन्याय को दूर करने की अपेक्षा इसका लाभ उठाने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहते है। हमें राजनेताओं के इस प्रयत्न का हथियार नहीं बनना चाहिये। हमे चाहिये कि हम ऐसे प्रचार से दूर रहे।
  3. राष्ट्रीय स्तर पर भारत को लोकतांत्रिक देशों के समूह में शामिल हो जाना चाहिए। साम्यवादी इस्लामिक देशों के साथ दूरी बनानी चाहिये। भारत को गुट निरपेक्षता का विचार छोड़ देना चाहिये क्योकि तानाशाही और लोकतंत्र के बीच गुट निरपेक्षता का कोई विचार नहीं हो सकता।
  4. दुनियां भौतिक विकास और श्रम शोषण के लिये कृत्रिम ऊर्जा का सहारा लेती है। श्रम शोषण बुद्धिजीवियों का एक अन्याय पूर्ण हथियार है। हमें कभी भी सस्ती कृत्रिम ऊर्जा की माँग नही करनी चाहिये।

परिवार सशक्तिकरण और ग्राम सशक्तिकरण समाज सशक्तिकरण का प्रथम चरण है। राज्य, सत्ता, परिवार और गाँव को मजबूत नही होने देना चाहती है। हमें इस सब विषयों पर भी लगातार सोचना चाहिये। जबतक समाज सशक्त नही होगा तब तक दुनियां इसी तरह अशान्ति की ओर बढ़ती रहेगी। इसलिये समाजशास्त्र पर सारी दुनियां मे विचार मंथन होना चाहिये। इसकी शुरूआत भारत से हो और भारत मे भी इसकी शुरूआत हम आप कुछ लोग मिलकर के करें। यही आप सबसे मेरी अपेक्षा है।