आर्थिक समस्याओं का आर्थिक समाधान

समस्याएं कई प्रकार की होती है। उनमें भी तीन प्रकार प्रमुख माने जाते हैः- 1. सामाजिक 2. आपराधिक 3. आर्थिक। इन तीनों समस्याओं का स्वरूप भी भिन्न भिन्न होता है, परिणाम भी भिन्न होता है और समाधान भी। सामाजिक समस्याओं का सामाजिक समाधान होता है तो आर्थिक समस्याओं का आर्थिक और आपराधिक समस्याओं का प्रशासनिक। सारी दुनियां में राजनीति ने पूरी समाज व्यवस्था को लगभग गुलाम बना लिया है इसलिये भी समस्याओं के समाधान में प्रशासनिक हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। भारत में तो यह स्थिति बहुत ज्यादा जटिल हो गई है। भारत में सामाजिक समस्याओं का आर्थिक और प्रशासनिक समाधान खोजा जाता है तो आपराधिक समस्याओं का आर्थिक और सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का सामाजिक और प्रशासनिक। यह स्थिति पूरी तरह अव्यवस्था बढाने वाली है किन्तु भारत लगातार इस दिशा में बढ़ता जा रहा है।

यदि हम अलग अलग वर्गीकरण करे तो आर्थिक समस्याओं में महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी, आर्थिक असमानता ग्रामीण उद्योगों में गिरावट, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, विदेशी कर्ज जैसी कुछ समस्याएं सम्मिलित है। ये समस्याएं पूरी तरह आर्थिक मानी जाती है। इनका समाधान भी आर्थिक ही होना चाहिये किन्तु हमारे देश की प्रशासनिक व्यवस्था इन समस्याओं का सामाजिक प्रशासनिक समाधान खोजने का प्रयास करती है। आर्थिक असमानता पूरी तरह आर्थिक समस्या है, लेकिन अनेक नासमझ नेता आर्थिक असमानता के समाधान के लिये अमीरी रेखा तक का सुझाव देते है। हर साम्यवादी तो इस दिशा में पूरी तरह सक्रिय रहता ही है।

भारत में वर्तमान समय में 99 प्रतिशत तक भ्रष्टाचार है। ये भ्रष्टाचार भी लगभग पूरी तरह आर्थिक समस्या है। भ्रष्टाचार कम करने में एक-दो प्रतिशत ही प्रशासनिक हस्तक्षेप सहायक हो सकता है अन्यथा प्रशासनिक तरीके से भ्रष्टाचार समाप्त नही हो सकता। जब भ्रष्टाचार लगातार तेजी से बढ़ रहा है और प्रशासनिक व्यवस्था की क्षमता 2 प्रतिशत सेे अधिक होती ही नही है तो भ्रष्टाचार रूकेगा कैसे, जब तक उसकी वृद्धि दर नहीं रूकेगी। कुछ नासमझ तो सामाजिक समस्या बताकर यहां तक प्रवचन देते है कि हमें घूस ना देनी चाहिये ना लेनी चाहिये अब ऐसे नासमझों की क्या चर्चा की जाये। कालाधन भी उसी तरह आर्थिक समस्या है। बेरोजगारी जिस तरह दिख रही है वह हमारी गलत परिभाषा का परिणाम है। हमने बेरोजगारी की परिभाषा विदेशों से नकल की और इसी आधार पर हम बेरोजगारी की गणना करने लगे। महंगाई भारत में लगातार घट रही है फिर भी महंगाई बढ़ने का असत्य प्रचार लगातार किया जा रहा है। विदेशी कर्ज भी बढ़ने का कारण आर्थिक अव्यवस्था ही है। कुछ नासमझ स्वेदशी के नाम पर लोगों को समझाते है कि हमें विदेशी वस्तु का उपयोग नहीं करना चाहिये। इन नासमझों से कोई यह नहीं पूछता कि विदेशी कपड़ा या विदेशी पेन का उपयोग अनुचित है तो विदेशी महिला या पुरूष से विवाह कितना उचित है। समाज में स्वदेशी व विदेशी के नाम पर अनावश्यक भ्रम फैलाया जाता है। गरीबी और अमीरी शब्द का भी लगातार दुरूपयोग होता है। सच्चाई यह है कि गरीबी और अमीरी पूरी तरह आर्थिक मामला है, सामाजिक और प्रशासनिक नहीं। अन्य आर्थिक मामलों को भी सामाजिक या आपराधिक समस्या बताकर प्रशासनिक और नैतिकता के समाधान सुझाये जाते है। शराब, वैश्यावृत्ति अथवा गांजा पूरी तरह सामाजिक समस्या है। मैं लगातार देख रहा हूॅ कि ऐसी सामाजिक समस्याओं को भी प्रशासनिक समस्या बताकर उनका प्रशासनिक समाधान खोजा जाता है। जेलों में बंद अपराधियों के हृदय परिवर्तन के प्रयास किये जाते है। यहां तक नाटक होता है कि जेलों में धर्मगुरूओं के प्रवचन भी कराये जाते है। स्पष्ट है कि यही धर्मगुरू शराब और गांजा के नियंत्रण के लिये तो कानून की मांग करते है दूसरी ओर यही असफल धर्मगुरू अपराधियों का हृदय परिवर्तन करने के लिये जेलों में प्रवचन देते है। वर्तमान भारत में लगातार बढती जा रही समस्याओं का मुख्य कारण विपरीत तरीके से समाधान है। स्पष्ट है कि भारत में जो आर्थिक समस्याएं लगातार बढ़ रही है उसका भी प्रमुख कारण आर्थिक समाधान की तुलना में सामाजिक प्रशासनिक समाधान खोजने का प्रयास है। इस तरह के विपरीत प्रयास कुछ भूल वश भी हो रहे है तो कुछ जानबूझकर भी हो रहे है। हम आंख बंद करके हर क्षेत्र में नकल कर रहे है। यदि दुनियां ने बंदूक पिस्तौल को छोटा और गांजा, अफीम को बड़ा अपराध घोषित कर दिया तो भारत भी अपने कानूनों में आंख बंद करके इनकी नकल करता है। आर्थिक समस्याओं के मामले में भी यही बात है कि हम भारत के लोग बेरोजगारी की अपनी परिभाषा बनाने का प्रयत्न भी नही कर रहे बल्कि आंख बंद करके नकल कर रहे है।

भारत की वर्तमान समय में सबसे बड़ी समस्या श्रम शोषण है। श्रम शोषण के लिये स्वतंत्रता के पूर्व बुद्धिजीवियों ने धर्मग्रन्थों को आधार बनाकर सामाजिक नियम कानून बदले थे। स्वतंत्रता के बाद हमारे राजनेताओं ने श्रम शोषण के पूंजीवादी तरीके खोज लिये। इन्होंने सामाजिक और धार्मिक तरीकों को पूरी तरह बदल दिया। आज भी श्रम शोषण का पूंजीवादी तरीका सर्व सम्मति से भारत में आगे बढाया जा रहा है। यहां तक कि सर्वसम्मति से श्रम शोषण के उक्त पूंजीवादी तरीकों को ही श्रम शोषण का समाधान सिद्ध किया जा रहा है। मैं पूरी तरह स्पष्ट हूॅ कि आर्थिक समस्याओं को बढाने में हमारे देश के राजनेताओं ने जानबूझकर भी सक्रियता दिखाई है क्योंकि उनका उद्देश्य येन केन प्रकारेण समाज को गुलाम बनाना है। उनका मानना है कि यदि आर्थिक समस्याएं आर्थिक तरीके से हल हो जायेगी तो समाज हमारी आवश्यकता को ही नकार देगा। यही कारण है कि हर राजनेता किसी भी आर्थिक समस्या का इस प्रकार सामाजिक प्रशासनिक समाधान खोजता है कि बिल्ली के बीच बंदर के समान उसकी भूमिका निरन्तर बनी रहे। अर्थात समस्याएं कभी कम न हो, बंदर समस्याओं को कम करने में निरन्तर सक्रिय दिखे और समाज में असमान लोगों के बीच लगातार असंतोष की ज्वाला जलती रहे। यही कारण है कि प्रारम्भ में तो सिर्फ साम्यवादी ही आर्थिक आधार पर वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष बढ़ाकर उसका लाभ उठाना चाहते थे लेकिन अब तो सड़े गले नेता भी गरीब अमीर के नाम पर, महंगाई और बेरोजगारी के नाम पर, स्वेदशी और विदेशी के नाम पर समाज में निरन्तर वर्ग संघर्ष बढ़ाते रहते है क्योंकि उनका मानना है कि यदि आर्थिक समस्याएं घट गई तो बंदर भूखा मर जायेगा।

अभी आर्थिक समस्याएं बिल्कुल विकराल दिखती है, असंभव दिखती है और आज लोगों को कोई मार्ग नहीं दिखता क्योंकि हम आर्थिक समस्याओं का समाधान या तो साम्यवाद में देखते है या पूंजीवाद में जबकि दोनो ही असफल है। साम्यवाद आर्थिक असमानता से राजनैतिक लाभ उठाने का प्रयास करता है तो पूंजीवाद भी इसका अप्रत्यक्ष आर्थिक लाभ उठाना चाहता है। दोनों ही प्रयत्न श्रम शोषण के इर्द गिर्द घूमते है। दोनों ही प्रयत्न चाहते है कि मानवीय ऊर्जा अर्थात मनुष्य और पशु का जीवन स्तर इतना ऊँचा न हो जाये कि उसे अपना उत्पादन विदेशों में निर्यात करने में कठिनाई हो। अपनी राष्ट्रीय आर्थिक स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से श्रम शोषण का मार्ग अपनाया जाता है। राष्ट्रीयता को मानवता से भी ऊपर मान लिया गया है। यह बात पूरी तरह स्पष्ट है कि सभी आर्थिक समस्याओं का एक साधारण सा समाधान है कृत्रिम ऊर्जा मूल्य वृद्धि। मैंने जितनी आर्थिक समस्याएं ऊपर लिखी है सभी समस्याओं का पूरा समाधान कृत्रिम ऊर्जा मूल्य वृद्धि से सम्भव है। श्रम की मांग बढ़ जायेगी, सब प्रकार के टैक्स हटा देने से कालाधन खत्म हो जायेगा, सम्पूर्ण निजीकरण कर देने से भ्रष्टाचार नगण्य हो जायेगा, विदेशी कर्ज घट जायेगा क्योंकि डीजल पेट्रोल की जगह बिजली और सौर ऊर्जा का उपयोग बढ़ जायेगा, बेरोजगारी की परिभाषा बदल जायेगी, ग्रामीण उद्योग अपने आप पनप जायेंगे क्योंकि आवागमन महंगा हो जायेगा, शहरी आबादी गांव की ओर चली जायेगी, आर्थिक असमानता घट जायेगी। सभी आर्थिक समस्याओं का एक सीधा और सरल समाधान होने के बाद भी हमारे नीति निर्माता इसके ठीक विपरीत आचारण करते है क्योंकि श्रम शोषण नीति निर्माताओं के संस्कार में शामिल हो गया है। वे किसी समस्या का समाधान होते हुये नहीं देखना चाहते बल्कि इस तरह का समाधान करना चाहते हैं जिससे नई समस्या पैदा होती रहे। यदि कृत्रिम ऊर्जा की भारी मूल्य वृद्धि हो जाये तो भारत तकनीक के मामले में भी बहुत आगे बढ़ सकता है। आज तकनीक के मामले में भारत चीन से बहुत पीछे है। यदि कृत्रिम ऊर्जा महंगी हो जायेगी तो इससे प्राप्त धन भी तकनीक विस्तार में खर्च किया जा सकता है और आमतौर पर महंगी कृत्रिम ऊर्जा तकनीक विस्तार के लिये हमें मजबूर भी कर देगी। मेरा यह मत है कि हमें राजनैतिक और राष्ट्रीय मामलों के साथ साथ मानवीय आधार को भी जोडकरर सभी आर्थिक समस्याओं का एक मात्र समाधान कृत्रिम ऊर्जा मूल्य वृद्धि की दिशा में बढना चाहिये। मानवीय आधार पर भी समाधान अलग अलग है। कमजोरो की मदद करना मानवीय आधार पर सामाजिक समाधान है तो प्रत्येक व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी देना उसका प्रशासनिक समाधान है। श्रम शोषण से मुक्ति मानवता का आर्थिक समाधान है। तीनों प्रकार के समाधानों को एक साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता। यद्यपि तीनों का उददेश्य एक है। इसलिये मेरा मत है कि आर्थिक रूप से मानवता की सहायता करने के लिये हमें श्रम शोषण मुक्ति को सर्वोच्च प्राथमिकता बनाना चाहिये और इसके लिये कृत्रिम ऊर्जा मूल्य वृद्धि सबसे अच्छा समाधान है।