आम आदमी पार्टी का इतिहास और वर्तमान
अरविन्द केजरीवाल ही आम आदमी पार्टी के संस्थापक रहे हैं । मेरा प्रारंभ से ही उनके प्रति झुकाव रहा है । मैं जब दिल्ली में रहता था तब अरविन्द जी का झुकाव राजनैतिक था और मेरा सामाजिक । किन्तु स्वशासन और स्वराज्य की प्राथमिकता पर दोनों एकजुट रहे और मिल कर काम करते रहे । मैं वानप्रस्थ लेकर दिल्ली से रामानुजगंज लौट गया और वे वहीं काम करते रहे । कुछ माह बीतने के बाद ही वे अपने सहयोगी टीम के साथ रामानुजगंज आये और वहीं बैठकर दो तीन दिन तक स्वराज्य विषय पर विस्तृत चर्चा हुई । मैंने वानप्रस्थ के बाद किसी संगठन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका से इन्कार कर दिया और उन्हें सलाह दी कि वे किसी स्थापित गांधीवादी के मार्ग दर्शन में स्वराज के लिये आन्दोलन करें तो अधिक अच्छा होगा । स्पष्ट है कि उन्होने अन्ना हजारे जी को खोजा और बाद का घटना क्रम आप सब जानते हैं । आन्दोलन की आवश्यकता के रुप में उन्होने स्वराज्य नामक पुस्तक लिखी जो सभी दृष्टि से एक अच्छी पुस्तक है ।
वे समय-समय पर मुझसे सलाह भी लेते रहे । मनीश सिसोदिया तथा गोपाल राय मेरे निकट के परिचित रहे हैं । प्रषान्त भूषण से मेरा कोई परिचय नहीं था किन्तु पालमपुर के पास उनके गाँव में जो तीन दिनों की चिन्तन बैठक हुई थी उसमें मैं रहा और वहीं मेरा उनसे प्रत्यक्ष परिचय हुआ । मैने महसूस किया कि प्रशान्त भूषण एक सुलझे हुए व्यक्ति हैं । उस बैठक में ही एक लम्बी चर्चा हुई कि संविधान संशोधन के संसद के असीम अधिकारों का विकल्प खोजा जाय । प्रशान्त भूषण इसके लिये हर बार प्रत्यक्ष जनमत संग्रह पर जोर देते रहे और अरविन्द जी इसके लिये ग्राम सभाओं को शामिल करना चाहते थे । मैं आम चुनाव के समय ही एक पृथक संविधान संशोधन सभा पर जोर देता रहा । कोई निष्कर्ष नहीं निकला ।
अब वर्तमान की चर्चा करें । यह विवाद किसी भी रुप में व्यक्तित्वों का टकराव नहीं है बल्कि पूरी तरह सैद्धांतिक है । जो लोग इस विवाद को व्यक्तियों के टकराव के रुप में देख रहे हैं, वे गलत हैं । प्रशान्त भूषण, मयंक गांधी, योगेन्द्र यादव की एक स्थापित विचारक के रुप में पहचान रही है । वे जहाँ भी रहे हैं वहाँ विचारों को प्राथमिकता के आधार पर महत्व देते रहे । उन्होने व्यावहारिक राजनीति से कभी समझौता नहीं किया भले ही अकेले ही क्यों न रहना पड़े । अरविन्द केजरीवाल व्यावहारिक राजनीति के पक्षधर रहे हैं । स्पष्ट है कि व्यावहारिक राजनीति के प्रति भीड़ का अधिक समर्थन मिलता है जबकि सैद्धांतिक राजनीति करने वालों को प्रशंसा तो बहुत मिलती है किन्तु सहयोगी या सहभागी नहीं मिलते । सैद्धांतिक राजनीति में अनुपम त्याग छिपा रहता है । उसमें कष्ट में भी सुख मिलता है जबकि व्यावहारिक राजनीति में लाभ की संभावना जुड़ी रहती है । स्पष्ट है कि त्याग और लाभ के बीच तुलना करें तो भीड़ लाभ की दिशा में ही झुकी दिखती है ।
मैंने अरविन्द जी को सुझाव दिया था कि अन्ना जी से अलग होने के बाद आप चरित्र प्रधान राजनीति करने की चर्चा बन्द करिये । राजनीति सन्तों की धारा के अनुकरण से हमेशा असफल होती है । यही कारण है कि प्राचीन समय में भी ब्राम्हण प्रवृत्ति वालों को प्रत्यक्ष राजनीति से दूर रहकर सिर्फ नीति निर्धारण में ही मार्ग दर्शन देने तक सीमित रहने की सीमा बनाई गई थी । आज भी जो गेरुआ वस्त्र पहनकर राजनीति कर रहें हैं वे अपने वस्त्रों के रंग से समाज को धोखा देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । राजनीति में रहकर व्यक्तिगत चरित्र ठीक रखना एक अलग विषय है । ऐसे चरित्र का बहुत प्रभाव पड़ता है किन्तु चरित्र की राजनीति की घोषणा करना अपने उपर संकटों का पहाड़ आमंत्रित करने जैसा है । गांधी ने, जयप्रकाश ने, सन्त विनोबा ने या अन्ना हजारे ने भी चरित्र का महत्व सामने रखा किन्तु उन सबका लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन था, सत्ता परिवर्तन नहीं । मैंने अपने पूरे जीवनकाल में कभी राजनीति और चरित्र को एकसाथ नहीं जोड़ा । राहुल गांधी भी राजनीति और चरित्र को जोड़कर देखने का प्रयास कर रहे हैं । परिणाम सबके सामने हैं । कई बार समझाने के बाद भी अरविन्द सहमत नहीं हुए । लगातार नैतिकता और चरित्र का शंखनाद करते रहे । परिणामस्वरुप उनके साथ चरित्र की भीड़ इकट्ठी होती गई और अरविन्द जी के राजनीतिक दिशा की ओर झुकते ही पार्टी के बिखराव का स्वरुप उत्पन्न हो गया ।
यदि आपको सत्ता संघर्ष में कूदना है तो आपके साथ जुड़ने वाला आपके सत्ता में आते ही अपनी सहायता की कीमत वसूलना चाहेगा । जनता और कार्यकर्ता के बीच तालमेल बनाना और उसके लिये लीक से कुछ हटना राजनैतिक मजबूरी है । अरविन्द इस लीक से हटने की आवश्यकता समझते हैं और इसी लीक से हटने को योगेन्द्र प्रशांत भी टीम विचलन मानती है क्योंकि ढोल पीट-पीट कर आपने राजनीति और चरित्र को एक साथ जोड़ने की बात की थी । यदि दो करोड रुपये की बात प्रशान्त जी आदि ने किसी को बताई भी हो तो इसमें गलत क्या है । क्या सत्ता के लिये प्रशान्त भूषण योगेन्द्र यादव अपनी जीवन भर की स्थापित पहचान खो दें । ऐसा न तो संभव है न उचित । लेकिन दो विपरीत आचरणों को साथ जोड़कर चलाने का प्रयत्न गलत है । ऐसे गलत प्रयत्न गलत परिणाम देंगे ही ।
अरविंद केजरीवाल एक अति परिश्रमी, सिर्फ काम की बात करने वाला, परिस्थिति अनुसार नीतियों से सामंजस्य बिठाने वाले व्यक्तित्व का नाम है । अरविंद समय का अधिकतम सदु्पयोग करने वाले व्यक्ति का नाम है । अरविंद ने अन्ना से अलग होने के बाद जिस स्वच्छ राजनीति की घोषणा की थी वह घोषणा करना उनकी एक भूल थी । उन्होने अपनी भूल सुधार ली । उनमें एक प्रधानमंत्री बनने की सभी योग्यताएँ मौजूद है । राजनीति में जिस सीढी से चढ़कर उपर पहुंचा जाता है उस सीढ़ी को तोड़ देना एक राजनैतिक कौशल है । पता नहीं अब तक योगेन्द्र यादव, प्रषान्त भूषण, मयंक गांधी, इस बात को क्यों नहीं समझ सके । अरविन्द जी पूरी तरह सुशासन की दिशा में बढ़ रहें हैं और स्वशासन की लीक छूटती जा रही है । दोनों गुटों का यह भ्रम जितनी जल्दी दूर हो उतना ही अच्छा है । तेल और पानी एक साथ मिलकर लम्बे समय तक नहीं चल सकते । यदि आग पर भी चढ़ेगे तो अलग आवाज बन्द नहीं होगी ।
मैं स्पष्ट समझता हॅू कि अरविन्द पूरी तरह सत्ता संघर्ष में कूद चुके हैं । सत्ता संघर्ष का मतलब है चुनाव जीतने लायक उम्मीदवार को सर्वोच्च प्राथमिकता । उसकी अत्यंत घातक बदनाम छवि न हो तो सामान्यतः चरित्र के साथ समझौते करने पड़ते हैं । दिल्ली के चुनावों में इतनी बड़ी सफलता किसी कौशल को प्रमाणित करती है । स्पष्ट है कि अन्दर खाने अन्य दलों की तरह ही चरित्र से समझौते हुए । टीम प्रशान्त भूषण के लिये यह सब पूरी तरह घातक था क्योंकि सम्पूर्ण भारत ने आम आदमी पार्टी को अन्य राजनैतिक दलों से अलग माना है । टीम अरविंद का मानना है कि राजनीति का संघर्ष राजनैतिक शास्त्रों से ही लड़ना होगा । हम बिना किसी राजनैतिक शस्त्र के सौ साल भी नहीं जीत सकते । स्पष्ट है कि टीम अरविंद तथा प्रशान्त की प्राथमिकताएँ बिल्कुल बदली हुई हैं । प्रशान्त भूषण ने आप पार्टी को व्यवस्था परिवर्तन का आधार मानकर इतनी मेहनत की है जबकि अरविंद केजरीवाल की प्राथमिकता सत्ता संघर्ष में विजय प्राप्त करना है और यदि सत्ता मिल जायगी तब अपनी जंग लग रही स्वराज पुस्तक को निकालकर देखेंगे कि अब इस संबंध में क्या करना है ? अरविंद की दिशा एकदम साफ है किन्तु यदि इतनी साफ बात भी प्रशान्त भूषण, योगेन्द्र यादव, मयंक गांधी अब तक नहीं समझ सके तो बताइये कि मैं किसे गलत कहूँ । दोनों जब तक एक हैं तब तक समाज में एक गलत संदेश जा रहा है । टीम अरविन्द ने तो अपनी प्राथमिकताएँ स्पष्ट कर दी हैं । टीम प्रशान्त को अब स्पष्ट करना है कि अब भी क्या उनका मोह नहीं छूटा है । मान लीजिये कि दो तीन वर्ष बेकार गये । या तो विश्वास करिये कि येन केन प्रकारेण सत्ता में आकर उसके बाद परिवर्तन की बात करेंगे अथवा अलग होकर व्यवस्था परिवर्तन का कठिन मार्ग चुनिये जो हम जैसे लोगों ने चुन रखा है । स्पष्ट दिशा न लेकर गलती आप लोग कर रहे हैं, अरविंद नहीं क्योंकि उनकी लाइन स्पष्ट है ।
मेरा व्यक्तिगत मत है कि अन्ना हजारे को अकेला छोड़कर अलग होना ही स्पष्ट सबूत था कि पार्टी सत्ता संघर्ष की लाइन में जा रही है । यह मार्ग स्पष्ट था । मुझे मालूम है कि चुनाव लड़ने की जल्दबाजी करने वालों में प्रशान्त भूषण योगेन्द्र यादव सबसे आगे थे । यहाँ तक कि ये लोग तो दिल्ली विधानसभा से भी पहले हिमाचल विधानसभा लड़ने तक का उतावला पन दिखा रहें थे किन्तु सब अन्ना लहर को अपनी लहर समझकर हवा में उड़ रहें थे किन्तु थोड़े ही दिनों में जब मोदी लहर से टक्कर हुई तो यथार्थ का पता चला। दिल्ली के चुनाव में एक पक्षीय सफलता का श्रेय अरविंद की बदली हुई रणनीति को ही है और वर्तमान विवाद के बढ़ने का कारण भी उनको बदली हुई रणनीति को ही है ।
मैं बहुत पहले से मानता रहा हॅू और अब भी मानता हॅू कि लोकतंत्र कभी दीर्घकालिक मार्ग नही है । गांधी कभी ऐसे लोकतंत्र के पक्ष में नहीं थे । सफलता के लिये या तो तानाशाही उचित मार्ग हैं अथवा लोकस्वराज्य । यह भी स्पष्ट है कि भारत सरीखा लोकतंत्र यदि लम्बे समय तक चला तो अव्यवस्था निश्चित है जिसका अन्तिम परिणाम है तानाशाही । भारत के किसी भी दल में आन्तरिक लोकतंत्र नहीं है । आंशिक रुप से जदयू में है जिसका स्वाभाविक परिणाम है अव्यवस्था । भारतीय जनता पार्टी ने भी शुरुवात तो मोदी की तानाशाही से ही की थी किन्तु संघ स्वयं एक तानाशाह व्यवस्था रही है । कोई तानाशाह किसी अन्य के स्वतंत्र अस्तित्व से परेशान होता है । परिणाम स्पष्ट है कि संघ लगातार मोदी को परेशान कर रहा है । अरविंद केजरीवाल को भी तीन में से एक चुनना था (1) लोक स्वराज्य अर्थात पार्टी से लेकर सरकार तक सहभागी लोकतंत्र (2) अव्यवस्था (3) तानाशाही । अरविंद ने पहले मार्ग पर चलने की घोषणा की थी जो एक आदर्श किन्तु कठिन मार्ग है । उन्होंने जल्दी ही बीच का मार्ग पकड़ा जिसमें अव्यवस्था होनी स्वभाविक थी । उन्होनें बिना समय बिताये तीसरा मार्ग पकड़ लिया जिसने उन्हें सफलता दिलाई किन्तु सफलतापूर्वक तानाशाही का आना इतना आसान भी नहीं है । इसमें अपने सबसे निकट व्यक्ति को या तो संतुष्ट करना पड़ता है या धोखा देना पडता है । अरविंद अपने इसी टकराव से दो चार हो रहे हैं । यदि वे टकराव को भी पार करके एक तानाशाह के रुप में स्थापित होने में सफल रहे तो निश्चित है कि वे प्रधानमंत्री मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर कड़ी टक्कर दे सकेंगे ।
अब तक के पूरे लेख से आप मेरे कथन का निष्कर्ष नहीं समझ सके होंगे । मेरा निष्कर्ष यह है कि भारत में लोकतंत्र एक असफल सिद्धांत है । या तो तानाशाही सफल है या सहभागी लोकतंत्र अर्थात लोक स्वराज्य । जो लोग लोकतंत्र की बात कर रहे हैं वे या तो धोखा दे रहें हैं या खा रहें हैं । न भारत में कोई परिवार लोकतंत्र को अपना रहा है न कोई राजनैतिक दल । यदि तानाशाही की ही दिशा में जाना है तो मोदी क्या बुरे है और अरविंद क्यों बुरें होंगे ? यदि सहभागी लोकतंत्र की दिशा में जाना है तो ऐसी कोई मंशा न अरविंद की दिख रही है न प्रशान्त ग्रुप की । परिवार गाँव जिले को संवैधानिक अधिकार देने तथा संसद के संविधान संशोधन के असीम अधिकारों में कटौती के लिये तेरह जून 2014 से 22 जून तक का दस दिनों का वैचारिक सम्मेलन दिल्ली में हुआ तब अरविंद ग्रुप तथा प्रशान्त ग्रुप ने इस सम्मेलन में विचार रखने तक से इन्कार कर दिया । इसलिये मैं खुद नहीं समझ पाया कि इन दोनों समूहों में से कौन धोखा दे रहा है कौन खा रहा है । मैं तो इसी निष्कर्ष तक पहुंचा हॅू । आप अपने विचार देंगे तब और चर्चा होगी ।
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