हमारे वर्तमान आदर्श गांधी या भगत सिंह

       आजकल अखबारों में एक श्रृंखलाबद्ध बहस चल रही है कि आज की परिस्थिति में अधिक प्रासंगिक भगत सिंह हैं या गांधी ? दैनिक जनसत्ता तो इस संम्बन्ध में लगातार चर्चा को आगे बढ़ा रहा है जो गांधी या भगत सिंह की चर्चा से आगे बढ़कर हिंसा-अहिंसा के बीच बहस का रूप लेती जा रही है ।

        भारत परम्पराओं का देश रहा है । भारत में अतिवादियों की तुलना में समन्वयवादियों को अधिक सम्मान भी मिला है और अनुकरण भी । भारत में ज्ञान और त्याग के समन्वित स्वरूप को ही सर्वश्रेष्ठ सम्मान मिलता रहा है । त्यागविहीन बुद्धिविहीन त्यागी इसलिए एक समस्या है कि वह सभी धूर्तो से ठगा जायेगा । समस्याओं का उचित समाधान तो समन्वयकारी ही कर सकता है । इसलिए भारतीय व्यवस्था में सन्यासी को ज्ञान और त्याग के समन्वय का प्रतीक मानकर सर्वोच्च सम्मान प्रदान किया गया जबकि ब्रामहण, श्रत्रिय, वैश्य और शुद्र प्रवृति को क्रमशः उसके बाद । भगत सिंह का त्याग गांधी के त्याग से बहुत बड़ा था इसलिए उन्हें विरोचित सम्मान मिला, किन्तु भगत सिंह के त्याग में भावना का प्रतिशत विचार की अपेक्षा बहुत अधिक था । इसलिए समस्याओं का समाधान गांधी के मार्ग में भगत सिंह जी की अपेक्षा अधिक था । भगत सिंह और गांधी की मृत्यु यदि दस-दस वर्ष पूर्व ही हो जाती तो भगत सिंह की मृत्यु से समाज को जो क्षति होती उससे कई गुना अधिक क्षति गांधी के मरने से होती । क्योंकि स्वतंत्रता संधर्ष में भगत सिंह की आंशिक क्षतिपूर्ति उतनी कठिन नहीं थी जितनी गांधी की । स्वतंत्रता संघर्ष में गांधी की आलोचना इस आधार पर होती है कि उन्होंने भगत सिंह को फांसी से बचाने के लिए कुछ नहीं किया उससे अधिक करना देश के लिए घातक होता । उस कालखण्ड की आपक कल्पना कीजिए । स्वतंत्रता का अहिंसक संघर्ष आगे बढ़ रहा था । यदि भगत सिंह सरीखा मजबूत व्यक्तित्व गांधी के साथ जुड़ जाता तो भारत और जल्दी स्वतंत्र हो सकता था । लेकिन भगत सिंह हिंसा का मार्ग छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे । ऐसी स्थिति में गांधी के लिए किस मुंह से हिंसा का समर्थन संभव था ? यदि गांधी ने भगत सिंह की रक्षा के लिए अपना मार्ग छोड़ दिया होता तो वह भारत की स्वतंत्रता के अहिंसक पक्ष को बिल्कुल कमजोर कर देता । यदि गांधी की जगह पर मैं भी होता तो ऐसी स्थिति में हिंसा के समर्थकों के पक्ष में उतनी भी अपील नहीं करता जितनी गांधी जीने की । किसी व्यक्ति के प्राण बचाने के लिए संघर्ष से हट जाना न गांधी के लिए उचित था न भगत सिंह के लिए । मैं इस विषय पर विस्तृत समीक्षा से बचना चाहता हूँ , क्योंकि संवेदनशील विषय है और अधिक विस्तार ठीक नहीं , किन्तु मैं इतना अवश्य कहना चाहता हूँ कि इस मुद्दे पर गांधी कहीं भी लेशमात्र भी गलत नहीं ।

        गांधी और भगत सिंह क बीच विचार मंथन में हिंसा और अहिंसा का प्रश्न भी जुड़ गया है। भारत की स्वतंत्रता के पूर्व इस विषय पर दो मत भी थे और दोनो पर चर्चा की उपयोगिता भी थी क्योंकि तानाशाही में व्यवस्था परिवर्तन का कोई मार्ग उपलब्ध नहीं होता और तब हिंसा ही एक मार्ग दिखता है । किन्तु लोकतंत्र हो तब हिंसा-अहिंसा पर बहस अर्थहीन हो जाती है, क्योंकि लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं होता । जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था तब गांधी और भगत सिंह दो विपरीत सिंद्धान्तों से समाधान खोज रहे थे । (1) भारत में तानाशाही है इसलिए अहिंसक तरीके से समाधान हो ही नहीं सकता । सभी क्रांतिकारी सुभाषचन्द्र बोस, संघ परिवार, साम्यवादी तथा गरम दल के आर्य समाजी इस दिशा में लगातार सक्रिय थे । (2) भारत में लोकतांत्रिक देश की तानाशाही है इसलिए हिंसा की कोई आवश्यकता ही नहीं है । अहिंसक आन्दोलन ही सफल होगा । इस विचार को मानने वालों का नेतृत्व गांधी जी कर रहे थे जिसमें आर्य समाज, कांग्रेस समाजवादी तथा कुछ अन्य लोग शामिल थे । स्वतंत्रता के बाद तो यह बहस ही पूरी तरह समाप्त हो गयी है, क्योंकि अब व्यवस्था परिवर्तन के लोकतांत्रिक माध्यम हमे उपलब्ध है । स्वतंत्र भारत में यदि कोई हिंसा की वकालत करता है तो माना जाना चाहिए कि उसके मन में तानाशाही के पूरे-पूरे लक्षण मौजूद हैं क्योंकि हिंसा एक तानाशाही विचार होता है जो तानाशाही में मजबूरी और लोकतंत्र में अत्याचार का आधार बनती है । भले ही उसे राष्ट्र धर्म, समाज आदि किसी भी नाम के साथ क्यो न जोड़ दिया जावे ।

        इस्लामिक हिंसा हमारे इस चर्चा का विषय नहीं है । हम सिर्फ गांधी ओर भगत सिंह पर ही विचार मंथन को केन्द्रित कर रहे हैं । स्वतंत्रता के बाद भगत सिंह के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले जो दो समूह  हैं इन दोनों की ही स्वतंत्रता संघर्ष में नगण्य भूमिका रही है । स्वतंत्रता के पूर्व साम्यवादी अंग्रेजों के साथ अच्छे सम्बन्धों की समीक्षा करते थे तो संघ के लोग भी स्वयं को सामाजिक धार्मिक सीमाओं में बांध कर रखे थे । बहुत कम लोग थे जिन्होंने भगतसिंह की राह पर संघ या साम्यवादी संगठन को लेजाने का मार्ग पकड़ा हो । आश्चर्य है कि स्वतंत्र भारत में वही लोग भगत सिंह की विचारधारा के समर्थन का नेतृत्व कर रहे हैं । स्पष्ट है कि भगत सिंह ने जो त्याग का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया था उस त्याग का भोग करने की प्रतिस्पर्धा में आज दोनों गुट लगे हुए हैं । गांधी की विचारधारा से तो आज किसी का संबंध रहा नही, लेकिन भगत सिंह की विचारधारा से भी इन दोनों का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है । भगत सिंह ने तो सोचा भी नहीं था कि उनके त्याग की दुहाई दे देकर ही भारत के सत्ता संघर्ष में हिंसा की वकालत की जायेगी । मार्ग गांधी का हो या भगत सिंह का यह तो बाद का विषय है, पहला विषय तो यह है कि संघर्ष का केन्द्र सत्ता हो या व्यवस्था ? जिस देश में कर्ण सिंह सरीखे सम्मानित लोग राष्ट्रपति पद के लिए लालू प्रसाद सरीखे लोगों के दरवाजे पर कटोरा लेकर घूम रहे हों उस देश में गांधी या भगत सिंह पर किस प्रकार चर्चा की जाये । सौ करोड़ के भारत में सौ लोग भी ऐसे नहीं निकल पा रहे हैं जो देश और समाज के लिए संघर्ष का मार्ग चुनने की बहस में शामिल हों । निन्यानवे करोड़ लोग तो संघर्ष से हटकर सेवा कार्य और चरित्र निर्माण के संघर्ष शून्य मार्ग पर चल रहे हैं और एक करोढ़ लोग सत्ता संघर्ष को ही गांघी या भगत सिंह का मार्ग पर चल रहे हैं अैर एक करोड़ लोग सत्ता संघर्ष को ही गांघी या भगत सिंह का मार्ग घोषित करके आपस में उलझ रहे हैं । जबकि गांधी हों या भगत सिंह दोनों में से किसी ने पूरे जीवन में कभी न संघर्ष का मार्ग छोड़ा न सत्ता की ओर देखा । गांधीवादी तो और भी अधिक भ्रम निर्माण कर रहे हैं । इन्होंने तो संघर्ष के मुद्दे पर सोचना ही बन्द कर दिया है । जे पी आंदोलन के बाद तो इनका हाल और भी खराब हो गया है । इसलिए सम्पूर्ण भारत में सबसे पहले ‘‘शासन मुक्ति के लिए संघर्ष’’ का विचार देने की आवश्यकता है तब हिंसक या अहिंसक की चर्चा का क्रम आयेगा ।  

         गांधी और भगत सिंह के कार्यों की तुलना बिल्कुल व्यर्थ है, क्योंकि न कोई गांधी का अनुकरण करने वाला दिख रहा है न कोई भगत सिंह का अनुकरण करने वाला । धूर्त राजनीतिज्ञ गांधी के नाम पर कायरता का ऐसा पाठ समाज को पढ़ा रहे हैं कि अहिंसक संघर्ष के बीज भी समात हो जावे और भारत में यथास्थिति को किसी भी स्थिति में चुनौती की पृष्ठभूमि ही न सके । वर्तमान भारत के अहिंसक राजनैतिक वातावरण में राजनैतिक यथास्थिति को आदर्श मानकर संघर्ष से पलायन का लगातार संदेश दिया जा रहा है । दूसरी ओर साम्यवाद, नक्सलवाद या संघ परिवार क्रांतिकारियों की आड़ में देश में राजनैतिक तानाशाही का मार्ग प्रशस्त कर रहा है । दोनों के चिन्तन में मार्ग पर विचार मंथन हो रहा है लक्ष्य पर नहीं क्योंकि लक्ष्य तो दोनों का समान है कि अधिक से अधिक समय तक सत्ता में रहा जाये । विवाद तो इतना ही है कि उसके लिए अहिंसा का मार्ग चुना जाये या हिंसा का । इसलिए मैं तो इस सम्बन्ध में यही उचित समझता हूँ कि गांधी या भगतसिंह की बहस पूरी तरह तब तक निरर्थक है जब तक इस बहस में शामिल लोगों का नकाब उठाकर न देख लिया जाए कि बहस सत्ता संघर्ष के निमित्त है या व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त ।