व्यक्ति परिवार और समाज

व्यवस्था की पहली इकाई परिवार मानी जाती है । व्यक्ति व्यवस्था की इकाई नहीं हो सकता क्योकि व्यक्ति स्वयं से पैदा होता ही नहीं । उसका जन्म परिवार से होता है तथा वह बालिग होकर परिवार के रूप में ही नये व्यक्ति का निर्माण करता है । न कोई अकेला जन्म ले सकता है न ही दे सकता है । इसलिये परिवार समाज व्यवस्था का एक अनिवार्य और पहला भाग होता है । यदि कोई व्यक्ति किसी परिवार का अंग नहीं है तो वह अपवाद स्वरूप है या परिवार का टूटा हुआ भाग है अन्यथा सामान्यतया व्यक्ति किसी न किसी के साथ जुड़कर परिवार बनाता ही है चाहे उसका रक्त सम्बन्ध हो या न हो ।

  व्यक्ति अकेला रह नही पाता । परिवार भी उपर की किसी इकाई से जुड़कर रहना चाहता है । यह उपर की इकाई उसे सुविधा के लिये भी आवश्यक लगती है और सुरक्षा के लिये भी। इसलिये वह ऐसी इकाई के साथ तालमेल बनाकर रखता ही है। ऐसी उपर की इकाइयॉ दो प्रकार की होती हैं 1. परिवार, गांव, जिला, प्रदेश, देश, विश्व । 2. परिवार, कुटुम्ब, जाति, वर्ण, धर्म, समाज । ये दोनो ही संगठन हजारों वर्श पूर्व से आज तक चल रहे हैं तथा आज तक यह निर्णय ही नहीं हो पाया कि आदर्श स्थिति क्या है ।

आज सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि परिवार के पारिवारिक मामलों मे समाज के हस्तक्षेप करने की सीमा क्या हो और समाज के सामाजिक मामलों मे कानून के हस्तक्षेप की सीमा क्या हो ? जब कोई परिवार इन दोनो सीमाओ को तोड़ता है तभी कानून को हस्तक्षेप करना चाहिये । वर्तमान स्थिति तो यह है कि कानून निर्माता न परिवार की सीमाओं को समझ रहे है न समाज की । इनकी स्वय की क्षमता और चरित्र भी परिवारों और समाज के औसत चरित्र की अपेक्षा कमजोर ही है ।

दुनियां की अनेक व्यवस्थाओ मे से भारतीय समाज व्यवस्था ही एकमात्र ऐसी व्यवस्था है जो सबसे ज्यादा लम्बे समय से सफलतापूर्वक चल रही है तथा वह विपरीत परिस्थितियों मे भी लम्बे समय तक टिकी रह सकती है अन्यथा अन्य कोई समाज व्यवस्था नही है जो दूसरी समाज व्यवस्थाओं के इतने आक्रमणों के बाद भी जीवित बच सके ।  

भारतीय समाज व्यवस्था मे दो मौलिक इकाइयां “व्यक्ति और समाज” के बीच एक तीसरी इकाई है जिसे परिवार कहते है । जिस तरह व्यक्ति और समाज को पृथक-पृथक मौलिक अधिकार प्राप्त है, उस तरह के मौलिक अधिकार तो परिवार को प्राप्त नही होते किन्तु परिवार भी कोई ऐसी इकाई नही होती जो कुछ व्यक्तियों की साझेदारी से बनता हो अथवा किसी तरह का जोड़ तोड़ करके बनाया जा सके । परिवार भी स्वयं मे एक स्वतंत्र अस्तित्व वाली इकाई होती है जो एक विशेष महत्व रखती है ।  

परिवार व्यवस्था मे परिवार के प्रत्येक सदस्य का सम्पूर्ण समर्पण भाव एक आवश्यक शर्त होती है । यदि परिवार के किसी सदस्य का परिवार मे सम्पूर्ण समर्पण न होकर आंशिक समर्पण भाव हो अथवा दुहरी निष्ठा हो तो परिवार व्यवस्था ठीक से नहीं चल पाती । मेरी मान्यता तो यह है कि परिवार व्यवस्था मे परिवार के प्रत्येक सदस्य को मौलिक अधिकार तो प्राप्त है किन्तु संवैधानिक या समाजिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं । परिवार का सदस्य परिवार मे विलीन होता है । उसकी न तो पृथक से संपत्ति हो सकती है न ही पृथक प्रतिबद्धता । उसकी सर्वप्रथम प्रतिबद्धता परिवार के प्रति होती है तथा परिवार की सहमति या अनुमति से ही वह कही और अपनी प्रतिबद्धता जोड़ सकता है ।

वर्तमान समय में समाज व्यवस्था को तोड़कर राज्य व्यवस्था को अधिक से अधिक मजबूत बनाने का राजनेताओं व साम्यवादियों का षड़यंत्र सफल हो गया । धीरे-धीरे परिवार व्यवस्था समाज व्यवस्था कमजोर हो रही है, टूट रही है और राज्य व्यवस्था अधिक से अधिक शक्तिशाली होती जा रही है ।

किसी व्यक्ति का अकेला रहना उसकी स्वतंत्रता है तथा मौलिक अधिकार है । हम किसी के मौलिक अधिकार को नहीं छीन सकते । किन्तु उक्त व्यक्ति को समाज के साथ रखना या न रखना समाज का मौलिक अधिकार है । जो व्यक्ति समाज के अनुशासन को स्वीकार नहीं करता उसे समाज अकेला छोड़ने का निर्णय कर सकता है । यह संभव नहीं कि व्यक्ति समाज से तो सब प्रकार से सहयोग ले किन्तु समाज के अनुशासन से स्वयं को दूर रखे ।

दुनिया में भारतीय व्यवस्था एकमात्र ऐसी व्यवस्था है जहॉं व्यक्ति परिवार और समाज रूपी त्रिस्तरीय व्यवस्था है । पश्चिम के देशों में व्यक्ति और समाज, मुस्लिम देशों में व्यक्ति परिवार और धर्म तथा साम्यवादी देशों में व्यक्ति और राज्य ही व्यवस्था के आधार होते हैं । दुनिया में इतनी लम्बी गुलामी के बाद भी भारत में व्यक्ति परिवार समाज की त्रिस्तरीय व्यवस्था सफलता पूर्वक चलती रही । यह इस व्यवस्था की सफलता का मापदण्ड है । स्वतंत्रता के बाद नेहरू और अम्बेडकर ने मिलकर परिवार व्यवस्था को किनारे करके पश्चिमी व्यवस्था की दिशा में भारत को धकेलना शुरू किया तबसे परिवार व्यवस्था टूटने लगी । आज भारत में जो सामाजिक अव्यवस्था दिख रही है उसके अनेक कारणों में से परिवार व्यवस्था का कमजोर होना एक प्रमुख कारण रहा है । परिवार व्यवस्था एक ऐसी प्रणाली है जिसमें व्यक्ति सहजीवन के प्रारंभिक पाठ सीखता है । यह प्रणाली अनुशासन सिखाने का भी एक उचित माध्यम है । यह प्रणाली राज्य व्यवस्था का भी बोझ हल्का करती है । परिवार व्यवस्था समाज व्यवस्था में बहुत सहायक होती है ।

स्वतंत्रता के बाद भी परिवार व्यवस्था तो रही किन्तु परिवार व्यवस्था का कोई संवैधानिक ढांचा स्वीकार नहीं किया गया । इसके विपरीत लिंग भेद तथा उम्र भेद को संवैधानिक मान्यता देकर परिवार व्यवस्था के टूटने के आधार बना दिये गये । मेरा मानना है कि परिवार व्यवस्था को संवैधानिक इकाई के रूप में स्वीकार किया जाये । यदि आप परिवार को संवैधानिक इकाई मान लेंगे तो अपने आप समाज को उसके लाभ मिलने लगेंगे ।

परिवार व्यवस्था को संवैधानिक इकाई स्वीकार करते ही व्यक्ति और समाज के बीच एक नई इकाई बन जायेगी । स्वाभाविक है कि उसके लिये कुछ तो व्यक्ति की स्वतंत्रता में कटौती करनी होगी तथा कुछ समाज की सार्वभौमिकता में । यह तो संभव ही नहीं है कि व्यक्ति के अधिकारों में तो कोई कटौती न हो तथा परिवार नाम की एक संवैधानिक इकाई बन जावे । इस समबन्ध में मैंने कुछ सुझाव दिये हैंः-

 (1) परिवार की संरचना में रक्त संबंधों की अनिवार्यता हटा दी जाये ।

 (2) न्यूनतम दो व्यक्तियों की सहमति को भी परिवार मान लिया जाये ।

(3) किसी भी व्यक्ति को कभी भी परिवार छोड़ने तथा नये परिवार से जुड़ने की स्वतंत्रता हो ।  

(4) परिवार के प्रत्येक सदस्य का संपत्ति में समान अधिकार हो ।  

(5) व्यक्ति की व्यक्तिगत संपत्ति पर प्रतिबंध हो ।

(6) व्यक्ति और समाज के साथ आपसी व्यवहार में परिवार का सामूहिक उत्तरदायित्व हो । परिवार के किसी सदस्य की लाभ-हानि का परिणाम पूरे परिवार का सामूहिक हो ।

(7) समाज के साथ संबंधों का निर्णय सामूहिक हो ।

(8) व्यक्ति के संवैधानिक सामाजिक अधिकार परिवार मे सामूहिक हों व्यक्तिगत नहीं ।

हजारो वर्श से यह बहस चली आ रही है कि व्यक्ति और समाज के बीच, व्यक्ति स्वातंत्र और सामाजिक नियत्रंण के बीच का अनुपात क्या है और उसकी सीमा रेखा क्या हो ? समाज के लोग व्यक्ति के व्यक्तिगत मामलो मे नैतिकता की दुहाई देकर अधिक नियंत्रण करना चाहते है जबकि व्यक्ति ऐसे नियंत्रण को तोड़ कर अधिक से अधिक स्वतंत्र रहना चाहता है ।

व्यक्ति की नीयत पर विश्वास तो आवश्यक है किन्तु वह विश्वास अंतिम सीमा तक नही हो सकता । ऐसी अंतिम सीमा से उपर किसी न किसी व्यवस्था का नियंत्रण होना ही चाहिये । व्यक्ति पर कानून का, कानून पर सरकार का, सरकार पर संसद का, संसद पर व्यवस्था का, व्यवस्था पर संविधान का, और संविधान पर समाज का अंकुश होना ही चाहिये ।

      न व्यक्ति को ही निर्णय का अन्तिम अधिकार देना ठीक है न परिवार और समाज को । तीनों का एक दूसरे पर आंशिक अंकुश हो । व्यक्ति से लेकर विश्व मानव समाज तक एक कड़ी जुड़ती हुई होनी चाहिये जो एक दूसरे की पूरक भी हो और नियंत्रक भी । इन सब इकाइयों की अपनी अपनी निश्चित सीमाए हो जिस सीमा का कोई इकाई यदि अतिक्रमण करें तो उपर की इकाई उस अतिक्रमण को रोके और यदि वह इकाई अपनी सीमा में हो तो कोई भी अन्य इकाई उसमें हस्तक्षेप न करे । ऐसी इकाइयॉं घोषित करके उनके अधिकारों का विभाजन हो जाना ही उचित व्यवस्था है ।

सारांशः मूल इकाई व्यक्ति से निर्मित व्यवस्था की पहली इकाई परिवार सहजीवन का प्रशिक्षण देने वाली पाठशाला है । यह सहजीवन व्यवस्था की सर्वोच्च इकाई समाज व्यवस्था हेतु अनिवार्य रुप से आवश्यक है । व्यक्ति और समाज के बीच कड़ी के रुप में परिवार व्यवस्था को लगातार सशक्त करने की आवश्यकता है ।