अनावश्यक कानून अव्यवस्था के आधार

आदर्श लोकतंत्र में लोक मालिक और तंत्र सहायक होता है। तंत्र कुछ कानून बनाता है और प्रत्येक नागरिक उस कानून को मानने के लिए बाध्य होता है। कानून बनाने में प्रत्येक नागरिक की अप्रत्यक्ष भूमिका होती है किंतु कानून का पालन करने में उसकी कोई भूमिका नहीं होती। कानून का उसे पालन करना ही होगा। कानून का पालन कराने के लिए व्यक्ति को मजबूर करने वाली इकाई को ही कार्यपालिका तथा कानून बनाने वाली इकाई को विधायिका कहते हैं। कानून कभी मार्गदर्शक नहीं होते बल्कि बाध्यकारी होते हैं। कानून का पालन करने के अतिरिक्त नागरिक के पास कोई विकल्प नहीं हो सकता।

तानाशाही में कार्यपालिका की शक्ति असीम होती है क्योंकि तानाशाही में कार्यपालिका ही विधायक भी है और न्यायपालिका भी किंतु लोकतंत्र में कार्यपालिका स्वयं भी किसी संविधान तथा कानून से बंधी होती है इसलिए उसकी शक्ति बहुत कम हो जाती है। एक आँकलन के अनुसार कार्यपालिका 2% से अधिक नियंत्रण करने की क्षमता नहीं रखती।  सुरक्षा और न्याय  कार्यपालिका का दायित्व है तथा कानून का पालन कराना उसका कर्तव्य है। यदि विधायिका कानून अधिक बनाती है और कार्यपालिका उसका पालन नहीं करा पाती तो ऐसे समय को अव्यवस्था कहते हैं। इसलिए यह सिद्धांत माना गया है कि कम कानून कठोर कानून का सिद्धांत सर्वोत्तम है। विधायिका नासमझी के कारण इस सिद्धांत को भूल गई। दुष्परिणाम हुआ कि कार्यपालिका और न्यायपालिका ओवरलोडेड हुए। कार्यपालिका और न्यायपालिका से भी भूल हुई कि वे दायित्व और कर्तव्य का अंतर नहीं समझ सके। विधायिका की गलती और न्यायपालिका कार्यपालिका की भूल का परिणाम हुआ कि भारत में अपराध बढ़ते गए और हम कानूनों का पालन कराने पर जोर देते रहे। अंत में हमें मिली अव्यवस्था। इस अव्यवस्था का मुख्य आधार बना नेहरू अंबेडकर द्वारा बनाया गया अव्यावहारिक अदूरदर्शी संविधान। नेहरू अंबेडकर तानाशाही प्रवृत्ति के थे इसलिए उन्होंने ऐसा अव्यावहारिक संविधान बनाया जो अव्यवस्था का आधार बना। 70 वर्ष के बाद हम देख रहे हैं कि भारत में कानूनो की बाढ़ आई हुई है। इस बाढ़ में कानून आश्रित अच्छे लोग डूब रहे हैं और धूर्त अपराधी कानून तोड़ने वाले लोग तैरकर किनारे जा रहे हैं। कानून भले लोगों को बचाने और अपराधियों को रोकने में असफल हो गया है।

यदि हम भारत की समीक्षा करें तो भारत में लगभग 95% कानून अनावश्यक है। इन कानूनो में अनेक तो बुरी नीयत से बनाए गए और अनेक अव्यावहारिक सोच के कारण। इन सब कानूनों की हम चर्चा न ही करना चाहते हैं न ही कर सकते हैं किंतु हम आपसे पांच-सात कानून नमूने के रूप से चर्चा करेंगे।

हिंदू कोड बिल नेहरू अंबेडकर की बुरी नीयत का सर्वाधिक घातक कानून है। नेहरू के मन मे इस्लाम के प्रति अधिक आकर्षण था तो अंबेडकर के मन में हिंदुत्व के प्रति आक्रोश। दोनों ने मिलकर हिंदू कोड बिल इस तरह बनाया कि हिंदुओं की संयुक्त परिवार व्यवस्था महिला-पुरुष के बीच टकराव में फंसकर छिन्न-भिन्न भी हो जाएं और हिंदुओं की आबादी मुसलमान की तुलना में घटती चली जाए। इन्हें हिंदू-मुसलमान का भेद छोड़कर समान नागरिक संहिता लानी चाहिए थी किंतु इन्होंने हिंदुओं की स्वतंत्रता पर नियंत्रण का कानून बना दिया तो मुसलमानों को विशेष अधिकार दे दिए। जब भारत में मुसलमानों का पुराना अनुभव बहुत खराब रहा है। गुलामी काल में इनके विस्तारवादी अत्याचारों की सारी कहानियां इन दोनों को मालूम थी। अंग्रेजी शासन काल में भी इन्होंने न कभी गांधी की बात मानी न कभी नेहरू अंबेडकर की। बहुत निर्दयता पूर्वक इन्होंने देश के टुकड़े करा दिए। इन सब अनुभवों के बाद भी सिर्फ वोट की लालच में या अपनी व्यक्तिगत मानसिकता के आधार पर हिंदू-मुसलमान के बीच इतना भेदभाव ठीक नहीं था। हिंदू कोड बिल और अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के नाम से भारत में जो प्रयोग हुआ वह फोड़ा ही अब पककर फिर से गृह युद्ध की धमकी देने का प्रयास कर रहा है।

दल बदल कानून भी एक ऐसा ही घातक कानून है। नेहरू अंबेडकर ने हमारी संसद को अधिकतम लोकतांत्रिक स्वरूप देने की कोशिश की। सांसदों को प्रत्यक्ष रूप से जनप्रतिनिधित्व और अप्रत्यक्ष रूप से दल के रूप में स्वीकार किया किंतु राजीव गांधी ने गलत लोगों की सलाह पर सारे लोकतांत्रिक ढांचे को तहस-नहस करते हुए सांसदों को पूरी तरह दल प्रतिनिधि बना दिया। अब हमारे जनप्रतिनिधि चुनाव तक जनप्रतिनिधि और चुनाव के बाद गुलाम से अधिक हैसियत नहीं रखते। जिस प्रकार हमारे जनप्रतिनिधि होटलों में धक्के खा रहे हैं और संसद में भी रोबोटों की तरह हाथ उठाने को बाध्य हैं उससे बहुत शर्म महसूस होती हैं। दल बदल कानून के कारण विकेंद्रित भ्रष्टाचार पूरी तरह केंद्रित हो गया है। अब पूरी संसदीय प्रणाली 4-5 दल प्रमुखों की कैद में चली गई। अब वे लोकतंत्र के साथ सामूहिक सौदेबाजी करने का अधिकार रखते हैं। दलों में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त होने का मुख्य आधार बना दल बदल कानून।

साम्यवादी विचारधारा दुनियां की सबसे अधिक खतरनाक विचारधारा है। साम्यवाद निर्लज्जता से वर्ग संघर्ष को अपना आधार मानता है। स्वतंत्रता संघर्ष में भी साम्यवादियों की कोई भूमिका नहीं रही। लेकिन वैचारिक धरातल पर नेहरू साम्यवाद से अधिक प्रभावित थे। संविधान बनाते समय हमारे साम्यवाद प्रभावित नेताओं ने स्वतंत्रता शब्द को कमजोर करके समानता शब्द डाल दिया। समानता का व्यवहार करना दूसरों का कर्तव्य हो सकता है किंतु आपका अधिकार नहीं है। असीम स्वतंत्रता व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है। हमारे नासमझ नेताओं ने समानता के नाम पर पूरी स्वतंत्रता की ऐसी तैसी कर दी। जब असमानता प्राकृतिक है और दुनियां के कोई भी दो व्यक्ति कभी पूरी तरह समान नहीं होते तब समानता संविधान का भाग क्यों? इस समानता शब्द ने राज्य को असीम शक्ति प्रदान कर दी। राज्य समानता के नाम पर बिल्लियों के बीच बंदर की भूमिका में बिचौलिया बनकर हमारी सारी स्वतंत्रता में कटौती करने में सफल हो गया।

इसी प्रकार हमारी समाज व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने के लिए आरक्षण का कानून बना। आरक्षण श्रम शोषण के उद्देश्य से अंबेडकर के दिमाग की उपज थी। अंबेडकर के मन में बुद्धिजीवियों के प्रति विशेष आकर्षण था। उन्हें दिखा कि स्वतंत्रता पूर्व का सारा माल मलाई सवर्ण बुद्धिजीवी ही खा रहे हैं। उन्होंने अवर्ण बुद्धिजीवियों को आरक्षण द्वारा उस माल मलाई में हिस्सा दिलाकर समझौता करा दिया। अब बेचारे श्रमजीवी, आदिवासी, हरिजन जाति के नाम पर संतुष्ट हैं और बुद्धिजीवी सवर्ण अवर्ण मिलकर लगातार श्रम शोषण के नए नए कानून बनाते रहते हैं। भारत की विकास दर का औसत 7% है किंतु 70 वर्षों में 33% श्रमजीवियों को लाभ का वार्षिक औसत 1, 33% बुद्धिजीवियों को 7 तथा 33% पूंजीपतियों को 14% प्राप्त होता है।

नेहरू अंबेडकर की जोड़ी अच्छी तरह जानती थी कि राज्य सशक्तिकरण के लोकतांत्रिक प्रयत्नों में सबसे अच्छी भूमिका वर्ग निर्माण वर्ग संघर्ष की होती है। भारत की कुल आबादी में महिलाओं की भूमिका लगभग आधी है। जब तक महिला-पुरुष का टकराव नहीं होता तब तक समाज कमजोर नहीं हो सकता। परिवार व्यवस्था को कमजोर करने का एकमात्र मार्ग है महिला-पुरुष वर्ग भेद। पश्चिम में महिला पुरुष को अलग-अलग वर्ग माना जाता है किंतु भारत में सशक्त परिवार व्यवस्था होने से दोनों अलग वर्ग हो ही नहीं सकते। इसलिए दोनों ने एक राय होकर परिवार और गांव व्यवस्था को संवैधानिक व्यवस्था से बाहर करके धर्म अर्थात संप्रदाय तथा जाति को संवैधानिक मान्यता दे दी। परिणाम हुआ कि राज्य को परिवार व्यवस्था में घुसकर तोड़फोड़ करने की संवैधानिक स्वतंत्रता मिल गई। इन्होंने महिला सशक्तिकरण का एक नया नारा दिया। इन्होंने दहेज, बाल विवाह, बाल श्रम निषेध, सती प्रथा उन्मूलन जैसे अनेक अनावश्यक कानून बनाकर महिलाओं को पुरुषो के विरुद्ध खड़ा करने की भरपूर कोशिश की।

मैंने सैकड़ों अनावश्यक कानूनो में से पांच उदाहरण आपके सामने रखे। अब नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद भी सभी पांच क़ानून उसी तरह जारी है। 70 वर्षों तक प्रचार माध्यमों के द्वारा आम जनता को यह बात इस तरह समझा दी गई है कि ये कानून जनहित के हैं जबकि ये सभी पांचों कानून समाज के लिए घातक है। यदि आज इन कानूनों के विरोध में कोई चर्चा करें तो प्रारंभिक स्तर पर ही हर आदमी राजनेताओं द्वारा प्रचारित तर्क तत्काल दुहरा देता है और चर्चा आगे नहीं बढ़ पाती। फिर भी हम अनंत काल तक अव्यवस्था नहीं झेल सकते। हमें अव्यवस्था से मुक्ति पानी होगी। इसके लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका का बोझ कम करना होगा। इसके लिए अनावश्यक कानून समाप्त करने होंगे और यह कार्य तभी संभव है जब हम इस प्रकार के सैकड़ों अनावश्यक कानूनों के समर्थन में प्रचारित तर्कों के विरुद्ध जनजागरण करें। हमें विचार मंथन से शुरुआत करनी होगी तभी आगे चलकर हम भारत में व्यापक प्रशासनिक अव्यवस्था से निपट सकते हैं।