राजनीति के दस नाटकों की पृष्ठभूमि

व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक होते हैं । व्यक्तियों को मिलाकर ही समाज बनता है और समाज ही प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा तथा उच्श्रृंखलता पर नियंत्रण की गारंटी देता है । समाज इस प्रकार की सुरक्षा और नियंत्रण के लिये एक व्यवस्था बनाता है जिसके कई भाग होते हैं जिनमें धर्म, राज्य, और अर्थ को प्रमुख माना गया है । आदर्श स्थिति में तीनों व्यवस्थाएं स्वतंत्र होती हैं किन्तु वर्तमान भारत में तीनों में राज्य निर्णायक रूप से शक्तिशाली हो गया है । इस असंतुलन का ही परिणाम है कि भारत का हर नागरिक तीन प्रकार के शोषण का शिकार है । भारत में धर्म का अर्थ सम्प्रदाय, राज्य का अर्थ शासक और धन का अर्थ विलासिता के रूप में बदल गया है । शोषण कोई अपराध न होने से किसी कानूनी तरीके से शोषण रोका भी नहीं जा सकता और जब राज्य ही ऐसा शोषण प्रोत्साहित करने लगे तो रोक कौन सकता है । आज हम देख रहे हैं कि भारत में लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता लगातार समाज से निकलकर राज्य के पास, धन गरीबों के हाथ से निकलकर पूंजीपतियों के पास तथा रोजगार श्रमजीवियों के हाथ से निकलकर बुद्धिजीवियों के पास इकठ्ठा होता जा रहा है किन्तु हम मजबूर हैं ।

व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं:- शरीफ, समझदार और धूर्त । शरीफ लोग भावना प्रधान होते हैं, धूर्त लोग बुद्धि प्रधान होते हैं तथा समझदार लोग दोनों का संतुलन बनाते हैं । शरीफ लोग कर्तव्य की चिंता करते हैं अधिकारों की चिंता नहीं करते जबकि धूर्त लोग सिर्फ अधिकारों की चिंता करते हैं कर्तव्य की नहीं करते । शरीफ लोग हमेशा त्याग करते हैं तो धूर्त संग्रह । शरीफ लोग हमेशा नेतृत्व के पीछे आंख बंद करके चलते हैं तो धूर्त लोग किसी के पीछे कभी नहीं चलते । ऐसे लोग हमेशा दूसरों को अपने पीछे चलाने के लिये सक्रिय रहते हैं । शरीफ लोग धर्म भीरू होते हैं तो धूर्त लोग राजनीति की छीना झपटी में सक्रिय । शरीफों की तुलना गाय से होती है तो धूर्तो की शेर से । शरीफ लोग हर समय अपराधियों के डर से भयभीत रहते हैं तो धूर्त लोग आम लोगों को कानून से भी डराते रहते हैं तो अपराधियों से भी उनकी साठ गांठ चलती रहती है । यदि हम आबादी के आधार पर भारत का सर्वे करें तो भारत में शरीफ लोगों की संख्या संतान्नवे से भी अधिक, धूर्तो और अपराधियों की संख्या दो प्रतिशत से भी कम तथा समझदारों की संख्या नगण्य ही बची है । शरीफ लोग भी पूरी तरह संतुष्ट हैं क्योंकि वे त्याग में ही सुख का अनुभव करते हैं तो अपराधी धूर्त भी संतुष्ट हैं क्योंकि वे निरंतर शोषण और संग्रह के नये नये कीर्तिमान बनाते जा रहे है किन्तु बीच में थोड़ी मात्रा के समझदार परेशान हैं क्योंकि वे इस प्रकार के लोकतांत्रिक शोषण को स्वीकार भी नहीं कर पा रहे और कोई अन्य समाधान भी नहीं दिख रहा ।

राजनैतिक व्यवस्थाएं तीन प्रकार की होती हैं:- तानाशाही, लोकतांत्रिक और लोकस्वराज्य । तानाशाही में तंत्र नियंत्रित संविधान होता है तो लोकतंत्र में संविधान का शासन अर्थात् संविधान नियंत्रित तंत्र । लोक स्वराज्य को सहभागी लोकतंत्र कहते हैं । लोक स्वराज्य लोकतंत्र का आदर्श रूप माना जाता है जो अब तक काल्पनिक ही है । समय समय पर गांधी, जयप्रकाश या अन्ना हजारे ने लोक स्वराज्य की आवाज भी उठाई और जनसमर्थन भी मिला किन्तु परिणाम विपरीत हुआ क्योंकि समाज में शरीफ और धूर्त के बीच का तालमेल बहुत मजबूत है । यदि कभी समझदार व्यक्ति इस तालमेल को तोड़ने में सफल भी हो जाये तो वह स्वयं तो कोई व्यवस्था दे नहीं पाता और अन्त में उसी तानाशाही या लोकतंत्र के बीच चलना लोगों की मजबूरी हो जाती है । समझदार लोगों की कमी और परिस्थितियों की मजबूरी के कारण फिर कोई समझदार व्यक्ति वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था को चुनौती न देकर दो के बीच ही अपना मार्ग तलाशना शुरू कर देता है ।

तानाशाही में या तो सुव्यवस्था होती है या कुव्यवस्था । तानाशाही में कभी अव्यवस्था नहीं होती । आदर्श लोकतंत्र की हम चर्चा ही नहीं कर रहे । वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली में न कभी कुव्यवस्था संभव है न सुव्यवस्था । लोकतंत्र में सिर्फ अव्यवस्था ही संभव है । सत्तर वर्षों तक हमने लोकतंत्र के भिन्न-भिन्न प्रयोग देखे । कभी मजबूत विधायिका वाला लोकतंत्र देखा जो सन पचास से सन पचासी तक चला तो कभी मजबूत न्यायपालिका वाला लोकतंत्र देखा जो पचासी से दो हजार चौदह तक चला । अब हम धीरे-धीरे एक तीसरे प्रकार के लोकतंत्र की दिशा में बढ़ रहे हैं । हमने देखा कि मनमोहन सिंह पूरे सत्तर वर्षों के शासन में सबसे अधिक लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री हुये । मनमोहन सिंह सरीखा ईमानदार, शरीफ और लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री कोई अन्य नहीं हो सका । किन्तु मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दस वर्षों में ही अव्यवस्था के सभी रिकार्ड टूट गये । भ्रष्टाचार सबसे ऊपर तक पहुँच गया । न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार बढ़ा । आतंकवाद भी बहुत तेज गति से बढ़ा । नक्सलवाद पूरे भारत में पैर पसारता चला गया । साम्प्रदायिकता भी बहुत बढ़ी । भारत के आम हिन्दुओं को लगने लगा कि पूरा भारत अब धर्मनिरपेक्ष भारत न होकर मुस्लिम शासन की तरफ जा रहा है । गली-गली में अपराधियों ने अपनी अपनी दुकानें खोलनी शुरू कर दी । आम आदमी अपनी सुरक्षा के लिये गुंडों पर आश्रित हो गया । कानून का कोई महत्व ही नहीं रहा । भारत का आम आदमी अराजकता को ही अपनी नीयती मानने लगा । भारत का लोकतंत्र अपने अन्तिम चरण तक पहुँच गया जहाँ सिर्फ अव्यवस्था ही होती है ।

विकृत लोकतंत्र का उचित समाधान होता है लोक स्वराज्य अर्थात् आदर्श लोकतंत्र किन्तु भारत में तो प्रारंभ से ही संसदीय तानाशाही है । इसका अर्थ हुआ कि समाज गुलाम ही है और वह व्यवस्था में बदलाव नहीं कर सकता । समाज सिर्फ सत्ता में बदलाव कर सकता है । मनमोहन सिंह के लोकतांत्रिक अव्यवस्था से त्रस्त भारत ने लोकतांत्रिक तानाशाही का मार्ग पकड़ा । शुरू से सब जानते थे कि मोदी जी लोकतांत्रिक तानाशाही की दिशा में जायेंगे किन्तु लोग अव्यवस्था से मुक्ति के लिये यह भी खतरा उठाने के लिये तैयार हुये ।

किसी भी राजनैतिक दल की आदर्श लोकतंत्र की इच्छा भी नहीं है और नीयत भी नहीं है । सभी नेता घुमा फिराकर इसी विकृत लोकतंत्र के आधार पर राजनैतिक व्यवस्था के पक्षधर है । भारत में लोकतंत्र है और मजबूत हो रहा है । यदि भारत तानाशाही की दिशा में भी बढ़ा तो उसे भारत की अधिकांश जनता का समर्थन प्राप्त है । स्पष्ट है कि भारत में एक मजबूत लोकतंत्र है । एक प्रश्न का अवश्य ही उत्तर खोजना पड़ेगा कि वे कौन-कौन से आधार हैं जिनके कारण भारत की जनता इस विकृत लोकतंत्र के माया जाल से बाहर नहीं निकल पा रही । चुनाव करीब करीब निष्पक्ष हुये हैं । प्रत्येक व्यक्ति ने स्वेच्छा से वोट दिया है । फिर भी व्यवस्था में बदलाव की कोई आवाज देश में अब तक नहीं उठी तो यह विचारणीय तो है कि ऐसा कौन सा जादू हमारी राजनैतिक व्यवस्था के पास है जिसके प्रभाव से मोहित होकर हम उस जाल में ही सुख का अनुभव करते है । हम चार लेखों के माध्यम से उस भ्रमजाल पर विस्तृत चर्चा करेंगे । मैंने देखा है कि हमारे शहर में रामलीला का आयोजन था । मैं आयोजक था । रावण वध के दिन स्टेज पर राम रावण के बीच घनघोर युद्ध हुआ । दर्शक वाह-वाह करने लगे । दर्शकों ने प्रसन्न होकर राम को भरपूर चढ़ावा चढ़ाया । सब प्रसन्न चित थे दूसरे दिन सुबह मैंने देखा कि जो चढ़ावा चढ़ा था वह राम रावण ने मिलकर आधा आधा बांट लिया क्योंकि दोनों पात्र सगे भाई थे और जनता के प्रसन्न करने में दोनों की समान भूमिका थी । मैंने महसूस किया कि भारत का वर्तमान लाकतंत्र इसी प्रकार का नाटक है जिससे प्रभावित होकर हम लोग स्वेच्छा से हर पांच वर्ष में उस विकृत लोकतंत्र पर अपनी मुहर लगा देते हैं । यह नाटक स्वतंत्रता के बाद से ही चल रहा है जो आज तक उसी गति से है । बल्कि वर्तमान काल में तो यह नाटक और ज्यादा परिष्कृत होता जा रहा है । इस पूरे नाटक के पात्र के रूप में न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका तीनों की समान भूमिका है ही किन्तु इन नाटकों से लाभ उठाने वालों में लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया को भी मान सकते हैं । इस पूरे नाटक के दस खंड हैः-

1- समाज को शासक और शासित के रूप में बांटकर प्रत्येक व्यक्ति को राज्य का मुखापेक्षी बनाना ।

2- समाज में आठ आधारों पर वर्ग विभाजन मजबूत करके वर्ग संघर्ष तक ले जाना ।

3- गैर कानूनी और अनैतिक को इस प्रकार अपराध के साथ जोड़ना कि देश का कोई भी नागरिक कभी भी सिर उठाकर चल ही न सके ।

4- किसी भी समस्या का ऐसा समाधान खोजना कि उस समाधान के परिणाम स्वरूप एक नई समस्या का जन्म हो ।

5- आर्थिक समस्याओं का सामाजिक प्रशासनिक, सामाजिक समस्याओं का आर्थिक प्रशासनिक तथा प्रशासनिक समस्याओं का आर्थिक सामाजिक समाधान खोजना ।

6- वैचारिक मुद्दों पर भावनात्मक चर्चा को बढ़ावा देना ।

7- राष्ट्र शब्द को ऊपर उठाना तथा समाज शब्द को नीचे गिराना । धर्म तथा परिवार व्यवस्था को भी कमजोर करना ।

8- सुरक्षा और न्याय की जगह जनहित के कार्यों को अधिक महत्व देना ।

9- राज्य की भूमिका बिल्लियों के बीच बंदर के समान पंच की तरह बनाना ।

10- प्रजातांत्रिक तरीके से आर्थिक असमानता और श्रम शोषण पर जन स्वीकृति ।

हम एक माह तक इन सब नाटकों पर विस्तृत चर्चा करके चौथे सप्ताह आगे के मार्ग पर भी चर्चा करेंगे ।