रघुराम राजन कितने अर्थशास्त्री ? कितने अर्थ प्रबंधक
अर्थशास्त्र और अर्थ प्रबंधन के बीच जमीन आसमान का फर्क होता है । अर्थशास्त्री आर्थिक सिद्धान्तो पर विचार मंथन करके कुछ निष्कर्ष निकालता है तो अर्थ प्रबंधक प्रचलित अर्थ सिद्धान्तो का अनुकरण करते हुए तदानुसार अर्थ प्रबंधन करता है । यदि कोई सिद्धान्त ही मूल रूप से गलत है या गलत धारणाओ पर स्थापित है तो उस सिद्धान्त के आधार पर किये गये अर्थ प्रबंधो के निष्कर्ष तथा परिणाम भी गलत ही होंगे । यदि पृथ्वी को सिद्धान्त रूप से चपटी मान कर नियम बनते रहेगें तो उसके अनुसार निकले निष्कर्षो मे भूल स्वाभाविक है । इसी तरह की भूल आर्थिक मामलों मे भी होती है । इसके लिये भूल करने वाला व्यक्ति दोशी नहीं होता बल्कि दोशी है वह धारणा जो किसी अर्थ प्रबंधक को अर्थशास्त्री घोषित करके उन्हें स्थापित कर देती है ।
भारत के रिजर्व बैक के वर्तमान गवर्नर श्री राजन, जो शीघ्र ही सेवानिवृत हो रहे हैं, उन्हें विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माना जाता है । मैं भी अनजाने में उन्हे वैसा ही मानता रहा हूँ । कुछ वर्ष पूर्व उन्होने दुनियाँ मे आर्थिक मंदी आने की जो भविष्यवाणी की थी उस भविष्यवाणी ने भी मेरा विश्वास मजबूत किया । उनके अतिरिक्त दुनियाँ में किसी अन्य ने कोई ऐसा निष्कर्ष नही निकाला था किन्तु एक दो वर्षो में ही श्री राजन की यह भविष्यवाणी सच साबित हुई । मुझे लगा कि वे अर्थशास्त्री है किन्तु अभी-अभी कुछ दिनो पूर्व उन्होने भारत मे मंहगाई के अस्तित्व पर जो धारणाएं प्रस्तुत की उन के आधार पर मै यह मानने को मजबूर हुआ कि वे एक कुशल अर्थ प्रबंधक मात्र हैं, अर्थशास्त्री नहीं । उन्होने कहा कि भारत में मंहगाई बढ़ रही है । मंहगाई का दुष्प्रभाव निचले तबके पर पड़ रहा है तथा उस दुष्प्रभाव से बचने के लिये महंगाई पर कड़ी निगरानी होनी चाहिये ।
मंहगाई और मुद्रा स्फीति बिल्कुल अलग-अलग होते है । मुद्रा स्फीति का आंकलन करते समय रूपये का मूल्य घटता है, वस्तु का मूल्य स्थिर होता है जबकि मंहगाई का आंकलन करते समय रूपया स्थिर होता है और वस्तु का मूल्य बदलता रहता है । मुद्रा स्फीति रूपये की उपलब्धता बढ़ने के कारण होती है जबकि मंहगाई रूपये के घटने-बढ़ने से प्रभावित नही होती बल्कि उपभोक्ता वस्तुओ के उत्पादन और उपभोग के बीच अंतर घटने-बढ़ने से होती है । मुद्रा स्फीति का प्रभाव सिर्फ नगद रूपया रखने वाले पर ही होता है, रूपया छोडकर अन्य किन्हीं वस्तुओं पर नहीं, जबकि मंहगाई का प्रभाव नगद रूपये पर शून्य होता है । सिर्फ वस्तुओ के मूल्य पर होता है । मुद्रा स्फीति का कारण नगद रूपये पर सरकार के द्वारा लगाया गया अघोषित कर है । जब सरकार घाटे का बजट बनाती है उसकी पूर्ति के लिये नोट छापती है तब मुद्रा स्फीति होती है । जबकि किसी कारण से उत्पादन घटता है, निर्यात बढ़ता है, अथवा व्यक्ति की क्रयशक्ति बढ़ती है, तब वस्तुओ की मांग और पूर्ति के बीच फर्क आ जाता है और वस्तुए महँगी हो जाती है । कुछ वस्तुओ का समय-समय पर मंहगा और सस्ता होना एक साथ चलता रहता है, जिसे आमतौर पर मंहगाई नहीं कहते । किन्तु जब अधिकांश उपभोक्ता वस्तुए महँगी हो जाती है और क्रय शक्ति उसकी तुलना मे कम रहती है तब उसे मंहगाई कहते हैं । इस तरह मुद्रा स्फीति का औसत जन जीवन पर कोई अच्छा या बुरा प्रभाव नहीं होता । जबकि मंहगाई का औसत जन जीवन पर प्रभाव होता है ।
स्वतंत्रता के पूर्व भारत मे चालीस के दशक मे मंहगाई का बहुत बुरा प्रभाव पड़ा था । आम लोगो की क्रयशक्ति नही बढ़ी थी किन्तु औसत वस्तुओ का मूल्य कई गुना अधिक बढ़ गया था । कुछ लोग इसे बारह गुना तक कहते है । उस समय देश की जनता मंहगाई से त्रस्त थी । सन 47 के बाद से लेकर आज तक मुद्रा स्फीति तो बढ़ी है और मंहगाई घटी है । मुद्रा स्फीति 70 वर्षो मे करीब 90 गुनी तक बढ़ी है । दूसरी ओर औसत उपभोक्ता वस्तुओ के मूल्य रुपये की तुलना मे 60 से 70 गुने तक ही बढ़े है । इसका अर्थ हुआ कि मंहगाई कुल मिलाकर घटी है । मंहगाई के अच्छे प्रभाव का आंकलन इस आधार पर भी होता है कि जब मंहगाई घटती है तो आम लोगो का जीवन स्तर सुधरता है तथा सोना-चांदी जमीन जैसी वस्तुओ के मूल्य तेजी से बढ़ते है । इसका अर्थ हुआ कि आम लोगो की क्रय शक्ति अपेक्षाकृत अधिक बढ़ रही है, और वस्तुओ के मूल्य कम । एक और आंकलन होता है कि यदि किसी उपभोक्ता वस्तु के मूल्य बहुत बढ़ जायें तथा उसकी मांग बनी रहे तो उससे सिद्ध होता है कि आम लोगो की क्रय शक्ति बढ़ी है । अभी-अभी देखने मे आया है कि चना-दाल के मूल्य कई गुना बढ़े किन्तु साथ-साथ उसकी मांग भी कम होने की अपेक्षा बढ़ी है । स्पष्ट है कि कुल मिलाकर क्रय शक्ति की तुलना मे वस्तुओ के मूल्य घटे हैं । मै नही समझा कि ये सारे यथार्थ श्री राजन के सामने होते हुए भी उन्होने मंहगाई का अस्तित्व कैसे स्वीकार किया ? श्री राजन मंहगाई और मुद्रा स्फीति के अंतर को नही समझ सके । श्री राजन यह क्यो नही समझ सके कि मंहगाई से औसत जन जीवन कमजोर होता है और भारत मे औसत जन जीवन लगातार उपर जा रहा है । वे क्यो नही समझ सके कि सोना चांदी और जमीन के मूल्य लगातार बेतहाशा बढ़ रहे हैं । यदि वे ऐसा नही समझ सके तो यह स्पष्ट है कि वे अर्थ प्रबंधक मात्र हैं, अर्थशास्त्री नही ।
आदर्श स्थिति मे मंहगाई का आकलन श्रम मूल्य से किया जाता है । सन 47 मे एक दिन के श्रम के बदले मे मजदूर को डेढ़ किलो अनाज दिया जाता था । जिसका मूल्य करीब पचास पैसे होता था। वर्तमान समय मे एक दिन के श्रम का मूल्य वस्तु के रूप मे डेढ़ किलो से बढ़कर सात किलो करीब हो गया है तथा रूपये के आधार पर एक सौ पचास रूपये करीब है । स्पष्ट है कि यदि मुद्रा स्फीति और कृषि उत्पादन मूल्य को अलग-अलग करें तो श्रम मूल्य करीब पौने दो गुना बढ़ा है, तथा अनाज के मूल्य घटकर करीब 60 प्रतिशत रह गया है। इन दोनो का मिला जुला प्रभाव औसत जन जीवन पर दिखाई दे रहा है । मजदूर सहित सभी उपभोक्ता प्रसन्न हैं किन्तु छोटे किसान आत्महत्या कर रहे है। किन्तु पश्चिम की किताबें पढ़ने अथवा सरकारी नौकरी के प्रभाव के कारण श्री राजन श्रम तथ वस्तु के आपसी संबंध की तुलना न करके एक ऐसे रूपये को आधार मान रहे है जो स्वयं 70 वर्षो मे 90 गुने तक नीचे गिर चुका है ।
श्री राजन स्वयं जानते हैं कि स्वतंत्रता के समय भारत मे एक तिहाई निचली आबादी की प्रति व्यक्ति आय सरकारी आंकड़ो के अनुसार 15 पैसे के आस पास प्रति व्यक्ति थी । यह रूपये के गिरते मूल्य के कारण सन 2005 मे अटल सरकार के समय 5 रूपये करीब थी। उसके बाद मनमोहन सरकार के समय यह आय 12 रूपये करीब थी और आज प्रति व्यक्ति 30 रूपये है । यह उस समय के 15 पैसे से 30 रूपये तक का सफर मुद्रा स्फीति और बढ़ती विकास दर को मिलाकर है। दोनों को अलग-अलग कर देने के बाद अंधे आदमी को भी साफ दिखने लगेगा कि मंहगाई घटी है और जीवन स्तर सुधरा है। मै नही समझ पा रहा कि श्री राजन को मंहगाई और मुद्रा स्फीति के अलग-अलग करके देखने मे क्या कठिनाई आ रही है ।
मै अनुभव करता हूँ कि दोनो को एक करने के पीछे राजनेताओ, सरकारी कर्मचारियों तथा पूँजीपतियों का मिला जुला षणयंत्र होता है । राजनेता स्थापित सरकारो के विरूद्ध मंहगाई का दुष्प्रचार सत्ता परिवर्तन के लिये इस प्रकार करते है कि आम लोगो के अंदर असत्य मंहगाई का भूत सत्य के समान दिखने लगता है । सरकारी कर्मचारी मंहगाई का हल्ला करके लगातार अपना वेतन भत्ता और सुविधाए बढ़वाने का खेल खेलते रहते है । पूंजीपति हमेशा चाहते है कि आर्थिक असमानता पर से ध्यान हटाने के लिये मंहगाई के मुद्दे को ढाल के रूप मे उपयोग किया जाये । इन तीनो की रोटी या सुविधा पर जीवित रहने वाला मीडिया लगातार इस भ्रम को चलाता रहता है । यही कारण है कि भारत के 99 प्रतिशत लोग सब कुछ जानते हुए भी इस प्रचार के शिकार हो जाते हैं । मै नहीं समझता कि राजन ने जानबूझकर यह भ्रम फैलाया अथवा उनकी इससे अधिक योग्यता ही नहीं थी । कारण चाहे जो भी हो लेकिन इस बात को कहकर श्री राजन ने अपनी अर्थशास्त्री होने की प्रतिष्ठा को कमजोर किया है ।
श्री राजन यह स्पष्ट देख रहे हैं कि भारत मे पिछले दो वर्षो से आर्थिक मंदी आई हुई है, छाई हुई है । लोहे के दाम लगभग आधे हुए हैं । धान चावल गेंहू के दाम घटे हैं । मकानो के ग्राहक नही हैं । राजन जी का आंकलन इन सब बातो के होते हुए भी हर साल पाँच प्रतिशत मंहगाई बढ़ी हुई दिखा रहा है । प्रतिवर्ष प्रचार मे दाल और सब्जी के दाम डेढ़ से दो गुना बढ़े हुए बताये जाते है । 70 वर्षो से मैं लगातार यही बात सुनता आ रहा हूँ । अगर 20 वर्षो का भी आंकलन करे तो दाल खादय तेल सब्जी के दाम सौ दो सौ गुने तक बढ़े हुए दिखने चाहिये । किन्तु स्पष्ट दिख रहा है कि इन सबकी खपत आबादी की तुलना मे कई गुना अधिक बढ़ रही है और मुद्रा स्फीति की तुलना मे दालो को छोड़कर सब स्थिर है । मैने प्रयत्न किया कि इसके आंकलन का सही तरीका खोजा जाये । तो मुझे दिखा कि यह एक ऐसा जाल है कि जिसमे घुसना सामान्य व्यक्ति के लिये असंभव है । पांच तरह के अनावष्यक सर्वे जाल के समान बने हुए है । कोई डब्लु पी आई है, तो कोई सी पी आई है, तो तीसरा सी पी आई मे भी एल जुड़ा हुआ है, तो किसी मे एन जुड़ा हुआ है । पता नही इतने तरह के अलग-अलग आंकड़े बनाकर सामान्य सी परिभाषा को इतना जटिल क्यों बनाया गया है । मै श्री राजन सहित तथाकथित अर्थशास्त्रियों से भी सीधा सा सवाल पूछता रहा हूँ, लिखकर भी पूछता हूँ टी वी मे भी पूछता रहा हूँ और इस लेख के माध्यम से भी मै पुनः पूछ रहा हूँ कि स्वतंत्रता के बाद भारत मे मंहगाई कितने गुना बढ़ी और तेंतीस प्रतिशत निचली आबादी पर उसका कितने गुना दुष्प्रभाव पड़ा । यह छोटा सा उत्तर भी मुझे आज तक किसी से नही मिला ।
मै चाहता हूँ कि इस छोटे से प्रश्न का उत्तर खोजा जाये और जब तक इसका उत्तर न मिल जाये तब तक मंहगाई के असत्य को प्रचारित करना बंद कर दिया जाए ।
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