सरकारीकरण, निजीकरण या समाजीकरण
जब से यह दुनियाँ बनी है तब से ही शासक वर्ग में समाज को गुलाम बनाकर रखने की ईच्छा रही है। शासक अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग तरीको का इस्तेमाल करते रहे है। स्वतत्रंता के बाद भारत में भी अलग-अलग समूहों ने अलग-अलग तरीको से समाज को गुलाम बनाये रखने के प्रयत्न जारी रखे। मुख्य रूप से तीन विचारधारायें सामने आई। साम्यवादी विचारधारा जो बन्दूक के जोर पर अपना शासन स्थापित करने का प्रयत्न करते रहे , अब तो हार थक कर उन्होनें नक्सलवाद के नाम पर प्रत्यक्ष बन्दूक उठा ली है । दूसरा प्रयत्न पूँजीवादियों का रहा जिन्होनें लोकतंत्र के नाम पर इसी कार्य को जारी रखा। तीसरा प्रयत्न मुस्लिम संगठनो का और संघ परिवार का रहा, जिन्होनें धर्म और ताकत को जोड़कर वही प्रयत्न शुरू किया । तीनो प्रयत्न आपस में भले ही टकराते रहे हो किन्तु ईच्छा तीनो की एक समान थी, कि समाज को अघिक से अधिक गुलाम बना कर रखा जायें।
सबसे पहले गांधी ने इस खतरे को पहचाना और ग्राम स्वराज्य के नाम से समाज सशक्तिकरण का नारा दिया। इसमें गांधी ने राज्य, धर्म और धन से भिन्न सामाजिक एकता की योजना प्रस्तुत की। किन्तु स्वतंत्रता के तत्काल बाद ही गांधी चले गये और तीनो विचाधाराओं को छूट मिल गयी कि वे समाज को गुलाम बनाकर रखने की खुली स्पर्धा कर सकें । गांधी के मरते ही गांधीवादियों नें सर्वोदय के नाम पर इस योजना में स्वयं को एक पक्ष के रूप में शामिल कर लिया। गांधीवादी संघ के एक पक्षीय विरोध के लिये इस सीमा तक उतावले हो गये कि उन्होनें न केवल गांधी के प्रयत्नो को छोड़ा बल्कि उससे आगे बढकर उन्होनें सरकारीकरण और हिंसा तक का समर्थन शुरू कर दिया। सर्वोदय का हर कार्यकर्ता निजीकरण का खुल्लेआम विरोध करता रहा, पूँजीवाद को गाली देता रहा, संघ और हिन्दुत्व के विरोध का नेतृत्व करता रहा, किन्तु सरकारीकरण, साम्यवाद हिंसा या इस्लामिक हिंसा पर या तो वह चुप रहा या उसने मौन समर्थन किया। नक्सलवादी हिंसा के समर्थक विनायक सेन या ससंद पर आक्रमण के आरोप से मुक्त हुऐ तथाकथित मुस्लिम आतंकवादी प्रोफेसर गिलानी तक के समर्थन में सर्वोदय के उच्च पदाधिकारी सामने खड़े दिखते रहे । बंगाल के साम्यवादी सरकार और नक्सलवादियों के बीच टकराव में भी सर्वोदय की सहानूभूति हिंसा समर्थक नक्सलवादियों के साथ ही रही । अमेरिका विरोध का तो जैसे इन्हो नें ठेका ही उठा रखा था। सारा देश परमाणु बिजली खरीदने के लिये अमेरिका के समझौतें के पक्ष में था, सर्वोदय के उच्चपदाधिकारी दिल्ली के जंतर मंतर पर परमाणु बिजली समझौतें के विरोध में नारे लगा रहे थे । गांधी के नाम पर गांधी के मानने वाले लोग इस तरह खादी पहनकर सरकारीकरण, नक्सलवादी हिंसा या इस्लामिक हिंसा का मौन समर्थन करेगें ऐसा तो कभी सोचा भी नही गया था ।
अब परिस्थितिया बदल गई है । सरकारीकरण असफल नीति के रूप में घोषित हो चुका है। इस्लामिक आतंकवाद भी दम तोड रहा है। नक्सलवाद के समर्थक भी परेशान हो रहे है। भारत सरकार ने निजीकरण की दिशा में तेज गति से चलना शुरू कर दिया है। साम्यवादी अब विधवा विलाप तक सीमित है। सर्वोदय भी धीरे-धीरे लोकस्वराज्य की दिशा में बढना शुरू कर चुका है। लगता है कि हिंसा और सरकारीकरण पूँजीवाद के राह पर तेजी से बदलकर चलना शुरू कर देगा ।
किन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या पूँजीवाद या निजीकरण सर्वश्रेष्ठ मार्ग है ? मार्ग अहिंसक तो हो सकता है किन्तु पूँजीवाद के माध्यम से समाज को गुलाम बनाकर रखने की ईच्छा में कोई कमी नही दिखती है, पूँजीपतियों और सत्ताधीशो के बीच उसी तरह का नापाक गठबन्धन शुरू हो गया है। जैसा स्वतंत्रता के पूर्व धूर्त सवर्णो और धूर्त अवर्णो के बीच आरक्षण के नाम पर नापाक गठबन्धन हुआ था, और जो आज भी जारी है। धन सम्पत्ति पूँजीपतियों के पास तीव्र गति से इक्कठी होती जाय और उसकी जूठन श्रम जीवियों और गरीबों तक राज्य पहुचाता रहें, इसका हर प्रयत्न पूरे जोर-शोर से किया जाता है। अभी-अभी देश के बडे-बडे नेताओं ने गन्ना अध्यादेश लागू करने और निरस्त करने का नाटक किया । दिल्ली में बहुत बडा प्रदर्शन भी हुआ, सरकार झुक भी गई किन्तु सबकी आवाज थी कि सरकार गन्नें का मूल्य बढायें। एक भी आवाज ऐसी नही थी कि सरकार गन्ने पर सरकारी प्रतिबन्ध हटावें। स्वतंत्र भारत में भी किसान अपने गन्ने का गुड़ नही बना सकता, ऐसे बेशर्म प्रयत्न आज भी भारत में जारी है, भले ही ये प्रयत्न सरकारी करण से हटकर निजीकरण के ही क्यो न हो रहे हो। सरकारी एजेन्सिया घूम-घूम कर गांवो में साबुन से हाथ धोने का जितना प्रचार कर रही है वह भी तो ऐसे ही अभियान का एक हिस्सा है। स्पष्ट है कि सरकारीकरण से हमारा पिंड छूट रहा है। किन्तु हमारी लडाई ख़त्म नही हुई है। क्योकि समाज को गुलाम बना कर रखने की राज्य पूँजीपतियों की संयुक्त मुहिम से भी तो समाज को ही लडना होगा। निजीकरण, सरकारीकरण की अपेक्षा एक वैसा ही अच्छा विकल्प है, जैसा तानाशाही की जगह लोकतंत्र । यह विकल्प तो हो सकता है किन्तु सामाधान नही है। इसका सामाधान समाज नियंत्रित अर्थव्यवस्था। जैसा कि लोकतंत्र का समाधान लोक स्वराज्य के रूप में प्रस्तावित है।
धन पर न राज्य का एकाधिकार होना चाहिये न पूँजीपतियों का, धन की व्यवस्था पर समाज का नियंत्रण ही आदर्श स्थिति हो सकती है।
आज कल समाज को धोखा देने के लिये वोटर पेंशन नाम से एक मुहिम शुरू हुई है। कुछ राजनैतिक दल अपनी सत्ता मिलते ही एक हजार से लेकर पांच हजार रू महीने तक नागरिकों को मुफ्त देने की घोषणा कर रहे है जिसका अप्रत्यक्ष उद्देश्य सत्ता में आकर समाज को गुलाम बना कर रखने की ईच्छा के अतिरिक्त कुछ भी नही है। अच्छा होता यदि ये लोग गांवो को अधिकतम आर्थिक स्वतंत्रता की वकालत करते और कहते कि यदि गांवो को आर्थिक स्वतंत्रता मिल जायेगी, तो वर्तमान टैक्सों के रहते हुये भी प्रत्येक व्यक्ति को कई हजार रूपये महिने स्वतः ही वोटर पेंशन के रूप में मिल जायेगा। ऐसा कहना अधिक उपयुक्त होगा। किन्तु ऐसा कहने से इन दलों को अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा कम करनी पड सकती है जो इनका उद्देश्य नही है। सरकारीकरण को निजीकरण की दिशा में बढने का हम स्वागत करते है किन्तु निजीकरण को समाजीकरण में बदलने का हम प्रयत्न करेगें। हम चाहेंगें कि सरकार में वित्त विभाग को संवैधानिक दर्जा दिया जाए । वित्त मंत्रालय वैसे ही स्वतंत्र हो जैसा न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका को स्वतंत्र अधिकार प्राप्त है। गांवों को गांव सम्बन्धि आर्थिक मामलो में पूर्ण स्वतंत्रता हो। जिले अपने जिले में, प्रदेश अपने प्रदेश में और केन्द्र राष्ट्रिय आर्थिक मामलो मे स्वतंत्रता से निर्णय ले। राज्य को सुरक्षा न्याय जैसे जो भी विषय दिये जाये, उसके खर्च की व्यवस्था अर्थपालिका रूपी यह चौथा स्तम्भ करे किन्तु किसी की भी स्थिति में विधायिका को अर्थ सम्बन्धी मामलो में स्वतंत्रता देना खतरनाक कदम है। जिसके पास सेना है, पुलिस है, न्याय है, उसी के पास अर्थ भी हो जाए यही तो समाज की गुलामी का लक्षण है। आवश्यकता इस बात की है कि समाज लोकस्वराज्य के साथ-साथ अर्थस्वराज्य की दिशा में भी सोचना शुरू करें।
मैं समझता हूँ कि यह आसान काम नहीं है। सरकारीकरण के आकर्षक नारे से पिण्ड छुडाने में साठ वर्ष लग गये । अब भी आंशिक ही पिण्ड छूटा है । कुछ माह पूर्व ही जरा सी आर्थिक मंदी का हल्ला होते ही समाजवाद के नाम पर पूँजीवाद विरोधी चूहे अखबारों मे टूट पडे । ऐसे लेख आने लगें जैसे सरकारीकरण ही इस समस्या का एक मात्र समाधान हो । मनमोहन सिंह जी ने धैर्य से काम लिया । शीघ्र ही सारी चिल्लाहट बन्द हो गई । किन्तु सरकारीकरण के विरू़द्ध निजीकरण जितना आसान था उतना आसान निजीकरण के स्थान पर समाजीकरण नहीं होगा । सभी पूँजीवादी इसका एक स्वर मे विरोध करेगे तथा राजनेता तो विरोध करेगें ही । निजीकरण की लडाई में दुनिया के पूँजीवादी देश भी साथ थे और मनमोहन सिंह जी भी वैसी ही पढ़ाई पढ़कर निकले हुए हैं। किन्तु स्वतंत्र अर्थव्यवस्था तो पूरे विश्व के लिये बिल्कुल नयी बात हो सकती है । इसलिये यह कार्य बहुत कठिन दिखता है।
दूसरी ओर लोक स्वराज्य की सफलता के साथ जुड़ जाने से यह बात उतनी कठिन नहीं भी हो सकती है। ग्राम सभाओं को प्रशासनिक़; संवैधानिक अधिकारों के साथ-साथ आर्थिक मामलो मे भी सीमित किन्तु स्वतंत्र अधिकार मिलें, यह मांग कठिन नहीं दिखती। एक बार इस मुद्वे पर आवाज तो उठनी शुरू हो । आगे तो बात अपने आप बढ़ जायगी । प्रश्न यह नहीं है कि जल्दी सफलता मिले या देर से मिले प्रश्न यह है कि इसके अतिरिक्त और समाधान क्या है? सरकारीकरण की तो बात ही नहीं हो सकती । पूँजीवाद को ही और संशोधित स्वरूप देना है। आशा है कि समाजीकरण पर एक सार्थक बहस छिड़ेगी और कोई समाधान मिल सकेगा।
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