नाथूराम गोडसे का महिमा मंडन

नवम्बर के इसी सप्ताह गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे की फांसी की वर्षगाठ हुई । पता चला कि कुछ हिन्दू महासभा के लोगों ने गोडसे के इस कृत्य की प्रशंसा में विचार व्यक्त किये। इस मुद्दे पर संघ के एक पदाधिकारी ने हिन्दू महासभा के इस कार्य की आलोचना की।

     मैं हमेशा से मानता रहा हूँ कि नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या का जो कुकर्म किया वह किसी भी परिस्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता। गोडसे का कार्य हिन्दुत्व से पूरी तरह विपरीत था, कायरों के समान था, तथा देश और समाज को लम्बी क्षति पहुँचाने वाला था । गोडसे ने जिस विचार धारा से प्रभावित होकर यह कृत्य किया उस विचारधारा का अब तक भारत में अस्तित्व है। यह हम सबके लिए विशेषकर हिन्दुओं के लिए शर्म का विषय है। मेरा तो मत है कि जिस तरह दशहरे के दिन प्रतिवर्ष रावण को जलाकर नई पीढ़ी को एक संदेश दिया जाता है, उसी तरह प्रतिवर्ष गोडसे को भी प्रतीकात्मक फांसी का आयोजन करके नई पीढ़ी को यह संदेश दिया जाये कि वह ऐसे जहरीले प्रयास से बचे रहें। मैं मानता हूँ कि गोडसे स्वयं संचालित नहीं था और किसी अन्य विचार धारा के प्रभाव में आकर उसने ऐसा कुकृत्य किया। फिर भी चूंकि यह कुकृत्य गोडसे के द्वारा किया गया, इसलिये फांसी तो गोडसे को ही होनी थी। भले ही गोडसे को प्रेरणा देनेवाले वर्ग का भी इतिहास कलंकित क्यो न रहे। जहां तक संघ का सवाल है तो संघ और हिन्दू महासभा में आसमान-जमीन का फर्क है। हैं तो दोनों ही साम्प्रदायिक विचारों से ओत-प्रोत है किन्तु हिन्दू महासभा जिस सीमा तक आगे जाकर आतंकवाद का समर्थन करती है, संघ उस सीमा तक कभी नहीं जाता। मैं जानता हूँ कि संघ के लोगों ने कभी गांधी विचार को पसंद नहीं किया। किन्तु यह भी सच है कि नापसंद होते हुए भी संघ ने कभी गांधी हत्या का समर्थन नहीं किया। वैसे वर्तमान मे संघ ने जो प्रतिक्रिया दी है वह ठीक होते हुए भी अपर्याप्त हैं। वास्तव में तो संघ जब तक गोडसे के कृत्य की स्पष्ट निंदा नहीं करता तब तक संघ बेदाग नहीं कहा जा सकता। यह कहना पर्याप्त नहीं है कि गोडसे को ऐसा नहीं करना था अथवा गोडसे संघ का स्वयं सेवक नहीं था। आज भी संघ के कार्यकर्ता प्रत्यक्ष रूप से गांधी को सम्मान देते है और अकेले में उनकी हत्या की आलोचना करते हुए भी किन्तु परन्तु लगाकर गांधी का अप्रत्यक्ष विरोध करते है।