नेपाल आंदोलन
अब तक दुनिया में दो प्रकार की शासन व्यवस्था अस्तित्व में हैं- 1 तानाशाही, 2 लोकतंत्र । तानाशाही शासन व्यवस्था में या तो सुव्यवस्था होती है या कुव्यवस्था। किन्तु तानाशाही में अव्यवस्था या स्वव्यवस्था नहीं होती। लोकतंत्र में न तो कुव्यवस्था संभव है न ही सुव्यवस्था। लोकतंत्र में या तो अव्यवस्था होगी या स्वव्यवस्था। अव्यवस्था सबसे खराब व्यवस्था मानी जाती है और स्वव्यवस्था। सबसे अच्छी। अर्थात् लोकतंत्र यदि विकृत हुआ तो वह तानाशाही से भी बुरे परिणाम देता है और यदि लोकतंत्र आदर्श हुआ तो वह रामराज्य से भी अधिक सुखद हो सकता है। दुनिया के देशो में अब तक स्वव्यवस्था का कहीं उदाहरण प्रस्तुत नहीं हुआ। स्वव्यस्था का आंशिक स्वरूप पश्चिम के लोकतंत्र में दिखता है जहाँ लोकतंत्र स्व व्यवस्था की ओर झुका हुआ है। भारत में स्व व्यवस्था नाम मात्र भी नहीं हैं। दक्षिण एशिया के सभी देशो में लोकतंत्र का विकृत स्वरूप अर्थात् अव्यवस्था ही दिखाई देती हैं।
अव्यवस्था सबसे बुरी होते हुए भी तानाशाही की अपेक्षा लोकतंत्र अच्छा माना जाता है क्योंकि तानाशाही से मुक्ति हमारे हाथ में नहीं होती जबकि विकृत लोकतंत्र को स्वव्यवस्था अर्थात् लोक स्वराज्य में कभी भी बदला जा सकता है। तानाशाही से मुक्ति के लिये हिंसक बलिदान अवश्यभावी होता है। साम्यवादी तानाशाही से रूस में गोर्बाचोव के उदाहरण को छोड़ दे तो और कहीं भी बिना विद्रोह के तानाशाही से मुक्ति नहीं होती। किन्तु लोकतंत्र को आसानी से लोकस्वराज्य में बदला जा सकता है यद्यपि अब तक ऐसा इसलिये नहीं हुआ क्योंकि लोकतंत्र और लोकस्वराज्य के अंदर को स्पष्ट करती हुई कोई परिभाषा समाज के समक्ष नहीं आई। गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य के नाम से और जयप्रकाश जी ने गांधी जी की सोच को बढ़ाते हुए लोकस्वराज्य के नाम से एक परिभाषा दी जो आगे नहीं बढ़ी। यही कारण है कि अव्यवस्था और स्वव्यवस्था के बीच कोई सीमा रेखा नही खींची जा सकी। व्यवस्था परिवर्तन अभियान ने दोनो के बीच सीमा देखा खींच कर यह कमी दूर करने की कोशिश की है।
नेपाल एक तानाशाही देश है जहाँ राजशाही है। नेपाल में स्वव्यवस्था का तो प्रश्न ही नहीं उठता किन्तु अव्यवस्था भी बिल्कुल नहीं है। या तो वहाँ सुव्यवस्था है या कुव्यवस्था। वहाँ के आम नागरिक गुलामी के वातावरण में संतुष्ट जीवन जी रहे हैं क्योंकि गुलामी से मुक्ति का उन्हें कोई मार्ग भी नहीं दिख रहा और गुलामी से मुक्ति के बाद उन्हे अव्यवस्था का भी साफ खतरा दिखाई देता है। इन सब खतरों के बाद भी गुलामी से मुक्ति ए आवश्यक तो है ही। सदा के लिये गुलाम रहने की तो कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिये नेपाल में लोकतंत्र के लिये संर्घष की शुरूआत हुई है और भारत सहित अनेक देश उनका बाहर से समर्थन कर रहे हैं।
हम नेपाल के ,लोकतंत्र , आंदोलन पर तटस्थ विचार करें। अब तक दुनिया में जहाँ भी पेशेवर राजनेताओं के माध्यम से लोकतंत्र का संघर्ष हुआ वहाँ वहाँ सत्ता तानाशाहों के हाथ से निकल कर उन भूखे भेड़ियों के हाथ चली गई। आम नागरिकों को बदले में मिली अव्यवस्था। भारत, श्री लंका, बंगलादेश, अफगानिस्तान, आदि अनेक देशो की अव्यवस्था इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। पाकिस्तान में लोकतंत्र के बाद आई मुशरर्फ की तानाशाही ने वहाँ के नागरिकों को राहत दिलाई है। इराक के लोग भी सद्दाम के शासन में आज की अपेक्षा अधिक व्यवस्थित थे। इसके बाद भी किसी देश में लोकतंत्र के बाद तानाशाही के लिये जनमत संग्रह हो तो जनता तानाशाही को सर्व सम्मति से नकार देती है। इंदिरा जी ने आपात्काल की तानाशाही के माध्यम से अव्यवस्था पर नियंत्रण करने के बाद जब चुनाव कराये तो जनता ने तानाशाह इन्दिरा को पूरी तरह नकार दिया और ढाई वर्ष बाद ही लोकतांत्रिक इंदिरा को फिर स्वीकार कर लिया। इससे यह सिद्ध होता है कि आम नागरिक गुलामी में लौट कर नहीं जाना चाहता क्योंकि एक बार गुलामी में प्रवेश के बाद मुक्ति के सभी मार्ग बंद हो जाते है। इसलिये नेपाल में जो लोकतंत्र के लिये आंदोलन हो रहा है उसका समर्थन ही किया जाना चाहिये विरोध नहीं। राजतंत्र या तानाशाही चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो, लोकतंत्र का विकल्प नहीं हो सकती।
भारत की कुछ हिन्दूवादी शक्तियाँ नेपाल के राजतंत्र का समर्थन कर रही हैं। मै नहीं समझ पाता कि वे किस आधार पर ऐसा सोचती हैं। यदि उनकी नजर में नेपाल में आदर्श हिन्दुत्व है तो क्या नेपाल के राजा महेन्द्र की परिवार सहित हत्या भी आदर्श हिन्दुत्व था? फिर यह भी विचार करना होगा हिन्दुत्व की तानाशाही और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में से क्या वे तानाशाही का समर्थन ठीक मानते है? हिन्दुत्व की भावना में बहकर राजशाही का समर्थन हिन्दुत्व के लिये भी घातक सिद्ध होगा क्याकि हिन्दुत्व तो पूरी तरह लोकस्वराज्य प्रणाली का समर्थक है तानाशाही का तो उसमें कोई स्थान है ही नहीं।
मै स्पष्ट रूप से देख रहा हूँ कि नेपाल में राजशाही के विरूद्ध नक्सलवादी तानाशाही या लोकतांत्रिक आंदोलन पृथक-पृथक संघर्षरत हैं। नक्सलवादी तानाशाही की जड़ें भी वहाँ मजबूती से जम चुकी हैं। यदि लाकतांत्रिक आंदोलन विफल हुआ तो हिंसक परिवर्तन स्पष्ट दिख रहा है। राजशाही अब वहाँ लम्बे समय तक चल नहीं सकती। ऐसे समय में वहाँ लोकतंत्र के अतिरिक्त कोई और मार्ग नहीं है भले ही उसके बाद अव्यवस्था ही क्यों न हो। अव्यवस्था के डर से राजा की तानाशाही या नक्सलवादी तानाशाही को तो स्वीाकर नहीं किया जा सकता। राजनैतिक हानि लाभ के आधार पर भारत सरकार का निर्णय चाहें जो हो किन्तु भारत की जनता को तो नेपाल के नागरिकों की गुलामी से मुक्ति का समर्थन करना ही चाहिये।
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