भारतीय संसद और भारत पाक संबंध

मैं लम्बे समय से मानता रहा हूँ कि संसद में विपक्ष की भूमिका अलग होती है और विरोधी की अलग। यदि विपक्ष विरोधी की भूमिका में आ जाये तो लोकतंत्र विकृत हो जाता है। दुर्भाग्य से भारत में वर्तमान स्थिति कुछ ऐसी ही है अर्थात् कांग्रेस पार्टी विपक्ष में न होकर विरोधी की भूमिका में आ गई है। वैसे तो पिछले 15-20 वर्षो से जो भी सरकार बनी उसे कभी आराम से काम नही करने दिया गया। अटलविहारी बाजपेयी जो भी काम करना चाहते थे उसमें संघ परिवार आंतरिक रुप से कुछ न कुछ अड़ंगे लगाता ही था। मनमोहन सिंह जब पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री थे तो साम्यवादी दल उन्हें पग-पग पर परेशान करता था और दूसरे कार्यकाल में जब साम्यवादियों से पिंड छूटा तो सोनिया जी उन्हें परेशान करने लगीं। अब नरेन्द्र मोदी आये हैं तो उन्हें भी संघ परिवार आराम से काम नहीं करने दे रहा। कांग्रेस पार्टी तो स्वाभाविक रुप से विरोधी है ही। जब भी नरेन्द्र मोदी पाकिस्तान जैसे पडोसी के साथ कुछ अच्छे संबंध की बात शुरु करते है त्यो ही युद्ध उन्मादी तत्व अनेक प्रकार के अडंगे डालना शुरु कर देते हैं।

            भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर समस्या कोई मुद्दा है ही नहीं। पाकिस्तान विस्तारवाद के उद्देश्य से कश्मीर में हस्तक्षेप नहीं कर रहा। बल्कि वह तो अपने उग्रवादी तत्वों को संतुष्ट करने के लिए कश्मीर में कुछ सक्रियता का नाटक करता है। यह पाकिस्तान सरकार की मजबूरी है इच्छा नहीं। पाकिस्तान सरकार भी जानती है कि पाकिस्तान की सेना में युद्ध उन्मादी तत्वों का बहुत बड़ा हिस्सा शामिल है। दूसरी ओर नागरिकों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में पाकिस्तान सरकार के संकट को न समझकर उसे शत्रु की श्रेणी में रखना बिल्कुल उचित नहीं है। विशेषकर उस परिस्थिति में जब भारत जानता है कि पाकिस्तान सरकार अपने ही आतंकवादियों से प्रत्यक्ष टकराव में फंसी है। इस बारे में मैं स्पष्ट कि कश्मीर समस्या भारत पाकिस्तान के बीच की समस्या न होकर विश्व इस्लामिक विस्तारवाद की समस्या है और पाकिस्तान उस विश्व इस्लामिक कट्टरवाद का एक मजबूत सिपाही मात्र है।

             पूरी दुनिया इस्लामिक कट्टरवाद को शांति के लिए पहला खतरा मानकर चल रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति पद के एक उम्मीदवार ने खुलकर कहॉ कि अमेरिका में मुसलमानों के प्रवेश के प्रति अधिक सतर्कता बरतनी चाहिए। वहॉ के राष्ट्रपति ओबामा या कुछ अन्य लोगों ने शालीनता वश भले ही इस कथन से किनारा कर लिया हो किन्तु यह सच है कि इस्लाम के प्रति दुनिया भर के शांतिप्रिय लोगों का मोहभंग हो रहा है। इसका अर्थ हुआ कि मुस्लिम देश शांति के लिए खतरा नही है बल्कि इस्लामिक कट्टरवाद ही विश्व शांति के लिए खतरा है। यह भी सही है कि दुनिया में मुसलमानों की संख्या इतनी कम नहीं है कि उन्हें बिल्कुल अलग-थलग किया जा सके, और इसलिए दुनिया के मुसलमानों  में शांतिप्रिय और युद्ध उन्मादी का विभाजन करना ही एक मात्र मार्ग है और इसलिए भारत को भी इसी आधार पर आगे बढ़ना चाहिए। वर्तमान समय में पाकिस्तान युद्ध उन्माद की दिशा में बढ़ने की स्थिति में है ही नहीं। पाकिस्तान की स्थिति तो आज इतनी खराब है कि यदि आज भारत अपनी सीमाएँ खोल दे तों पाकिस्तान की पूरी आबादी भारत में चली आएगी और यदि भारत पाकिस्तान जाने के लिए छूट दे दे तो कश्मीर का भी कोई मुसलमान पाकिस्तान नहीं जाना चाहेगा। तो क्या भारत के लिए यह उचित नहीं होगा कि वह पाकिस्तान के साथ अधिकतम शालीनता का व्यवहार करे। नरेन्द्र मोदी सरकार ने आने के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के साथ वार्ता की एक अच्छी शुरुवात की थी  लेकिन थोड़े ही दिनों  के बाद हमारे भारत के युद्ध  उन्मादी हिन्दूओं के प्रभाव में आकर उन्होने एकाएक मार्ग बदल लिया। जल्दी ही या  तो उन्हें कुछ समझ आयी या विश्व परिस्थितियों ने उन्हें मजबूर किया, और उन्होने फिर से वार्ता शुरु कर दी। दुनिया जानती है  कि युद्ध प्रिय भाषा न कभी भारत की रही है और न हिन्दुत्व की। हिन्दू या भारत अत्याचार सह सकता है परन्तु कर नही सकता। इसी तरह वह सिकुड़ सकता है किन्तु विस्तार उसकी कभी प्राथमिकता नहीं रही। वह सुरक्षा के लिए कभी आक्रमण भले ही कर दे किन्तु वह सुरक्षा के नाम पर कभी आक्रमण नही करता। भारत विश्व व्यवस्था के समक्ष पारदर्शी आचरण करता है, मनमानी व्यवस्था नहीं। जीतते हुए कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र में ले जाना भले ही भारत के उन्मादी लोगों की नजर में भूल माना जाये किन्तु वह भारत पर अत्याचार का कलंक तो नहीं है। भारत और हिन्दुत्व का यह गुण भारत की एक थाती है और इसे मुट्ठी भर युद्ध उन्मादियों के प्रभाव में आकर नहीं गंवाया जा सकता । मैं देख रहा हॅू कि यदा कदा आमीर खान, शाहरुख खान सरीखे लोग कुछ गलत भी बोल जाते हैं लेकिन भारत का आम जनमानस ऐसी गलतियों को किनारे करके आगे बढ़ जाता है। अभी कुछ दिन पहले ही कई लोगों ने भारत में भय का वातावरण सिद्ध करने का झूठा नाटक किया किन्तु आप देख रहे है कि महिने डेढ़ महिने में ही वे सारे लोग अलग थलग पड़ गये। पिछले दो तीन महिनों से कुछ युद्ध उम्मादी हिन्दू भी युद्ध उन्मादी मुसलमानों की भाषा बोलने लगे थे। वे भी अब कमजोर पड़ रहे है क्योंकि शांति की भाषा में जो ताकत है, वह चुनौती की भाषा में नहीं है, टकराव की भाषा में भी नही  है और युद्ध की भाषा में तो है ही नहीं। मैं समझता हॅू कि भारत सरकार पाकिस्तान के साथ शांति वार्ता करके बिल्कुल ठीक दिशा में बढ़ रही है। मैं यह भी देख रहा हूँ कि कश्मीर सहित भारत का मुसलमान धीरे-धीरे आतंकवाद के विरुद्ध आवाज उठा रहा है। किन्तु मैं यह देखकर कभी-कभी दुखी हो जाता हूँ कि शांति की बात के विरुद्ध पाकिस्तान के उग्रवादी और भारत के शिवसेना संघ परिवार के लोग एक समान भाषा बोलने लग जाते है। यहाँ तक कि कांग्रेस पार्टी के लोग भी विपक्ष की भूमिका छोड़कर विरोधी की भूमिका में आ जाते है और संसद में ऐेसे-ऐसे प्रश्न करते है जिनसे आभास होता है कि भारत किसी तीसरे देश के दबाव में शांति वार्ता कर रहा है अथवा भारत अपने स्टैण्ड से पीछे हट रहा है। यदि भारत पाकिस्तान के साथ शांति के लिए कुछ छोटी मोटी कुर्बानी भी देने को तैयार हो जाये तो हमें वर्तमान भारत सरकार पर पूरा भरोसा करना चाहिए। युद्ध और शांति के बीच शांति अधिक महत्वपूर्ण होती है।