गाय की रोटी कुत्ता खाए
लोक तंत्र के तीन स्तंभ माने जाते है 1. विधायिका 2. न्यायपालिका 3. कार्य पालिका। पूरे विश्व मे लोकतंत्र की प्रतिष्ठा बढ़ी और वही तानाशाही का एकमात्र विकल्प मान लिया गया। लोकतंत्र के तीनो स्तंभो के पास अधिकार भी बढ़े और शक्ति भी और इसी अनुपात मे लोकतंत्र के तीनो स्तंभो मे विकृतियाँ भी बढ़ी। आज लोकतंत्र वरदान है या अभिशाप यह भी एक चर्चा का विषय बन गया है।
राज्य और समाज के बीच मीडिया मध्यस्थ की भूमिका निभाता रहा है। मीडिया दोनो पक्षो को सलाह भी देता रहता है और सूचनाएँ भी। मीडिया राज्य और समाज के बीच जीवंत संवाद की स्थितियाँ बनाता रहता है । आदर्श स्थिति मे मीडिया न राज्य के पक्ष मे होता है न समाज के पक्ष मे क्योकि उसकी तो भूमिका ही मध्यस्थ तक सीमित रहती है।
पिछले कुछ वर्षों से मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनने की धुन सवार हुई। उसने धीरे-धीरे स्वयं को चौथा स्तंभ मानना भी शुरू किया और उसी अनुसार मीडिया का सम्मान तथा समाज पर दबाव भी बढा। मीडिया के लोग शक्तिशाली हुए । और ज्यों-ज्यों मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनने लगा और उसके पास राज्य की शक्ति और प्रभाव बढ़ने लगा, उसी के अनुपात में मीडिया मे लोकतंत्र के गुण और अवगुण भी बढ़ते गये। आज यदि समीक्षा करे तो प्रभाव की दृष्टि मे भी मीडिया लोक तंत्र का चौथा स्तंभ बन गया है और गिरावट के स्तर पर भी।
दो हजार नौ में सम्पन्न हुए आम चुनावों मे मीडिया का पतित स्वरूप स्पष्ट दिखा। बड़े-बड़े अखबारों के मालिको ने अपने आदर्श मीडिया को छोड़कर मीडिया का खुलकर व्यापार किया । विज्ञापनो को समाचार के रूप मे प्रस्तुत किया गया। या तो राजनैतिक दलों से ही सौदे बाजी कर ली गई या उम्मीदवारो से। समाज को पता ही नही चला कि कौन सा समाचार विज्ञापन है और कौन सा यथार्थ। बहुत पहले यह कार्य चोरी-चोरी स्थानीय कार्यकर्ता करते थे जो बाद मे बडे पदाधिकारियो तक बढ़ गया और अब तो खुले आम अखबारों के मालिक लोगो ने यह व्यापार किया।
कुछ इक्का-दुक्का मीडिया कर्मियों ने इस व्यापार के विरूद्ध आवाज उठाई । प्रभाश जी जोशी ने इसके खिलाफ कई लेख लिखे । प्रथम प्रवक्ता पाक्षिक ने तो इसके खिलाफ एक अभियान ही छेड़ दिया। कई प्रमुख लोगों ने अपने विचार दिये । पूर्व के केन्दीय मंत्री हरमोहन धवन, समाजवादी नेता मोहन सिंह जी, भारतीय जनता पार्टी के लालजी टंडन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अतुल अन्जान जी आदि ने अपनी आप-बीती बताई। किस तरह खुलकर पैसे मांगे गये , बाकायदा मालिक लोगो ने मांगे, खुलकर मांगे । व्यावसायिक तरीके से मांगे । किसी भी तरह पैसे मांगने मे कोई शर्म भाव नही था । पूरी तरह मोलभाव किया गया । खास बात यह भी कि उन अखबार मालिको ने भी कोई लिहाज नहीं किया जिन्हे इन नेताओं ने राजनैतिक लाभ पहुंचाया था । प्रथम प्रवक्ता ने अपनी पत्रिका के मुख पृष्ठ का शीर्षक दिया ‘‘ बिकाऊ मीडिया खरीददार नेता ‘‘। अखबारो का अनुभव इस शीर्षक के सर्वथा उपयुक्त था।
इन सब सच्चाइयो के आधार पर स्पष्ट है कि अखबारों के चरित्र में गिरावट आई । विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह गिरावट वर्तमान लोकतांत्रिक संस्कृति के विपरीत है ? वर्तमान लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभ है 1 विधायिका 2 कार्य पालिका 3 न्यायपालिका। वर्तमान लोकतांत्रिक चरित्र के अन्तर्गत विधायिका पूरी तरह व्यवसाय बन गई है । कार्यपालिका का चरित्र अपवाद स्वरूप ही व्यवसाय बनने मे कुछ कम हो । न्यायपालिका उस दिशा में तेजी से बढ़ रही है। यदि लोकतंत्र के तीन स्तंभ पूरी तरह व्यावसायिक बन चुके हों और मीडिया धीरे-धीरे उसी लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बन रहा हो तो इसमें किसी को इतनी हाय तौबा क्यों मचानी चाहिये ? लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभो के बाद ही तो मीडिया उस राह पर चला है। सबसे आश्चर्य तो इस बात का है कि मीडिया के व्यवसायीकरण की आलोचना वह वर्ग कर रहा है जिसके बहुमत ने मीडिया को चुनावों मे खरीदा हो । जिन लोगों ने मीडिया को करोड़ो रूपये चुनाव मे दिये वे किन राजनैतिक दलों के लोग थे ? या वे किस बिरादरी के लोग थे ? हमारे निन्यान्नवे प्रतिशत उम्मीदवार व्यावसायिक नीयत से चुनाव लड़ रहे है। उनकी एक भी गतिविधि न सामाजिक है न राष्ट्रीय। ऐसे व्यवसायी राजनेताओ को मीडिया पूरी इमानदारी पूर्वक चुनाव जिता दे तो यह होगी समाज सेवा और यदि मीडिया भी उस भ्रष्टाचार् मे हिस्सा ले ले तो उसका चरित्र पतन हो गया। जो उम्मीदवार धन नही दे सके या बिना दिये ही वह पद पाने की दौड़ लगा रहे हो वे अब बहुत हाय तौबा-मचा रहे है कि मीडिया का चरित्र गिर गया। जब लोकतंत्र का ही कोई चरित्र नही बचा है तो मीडिया बेचारा क्या करे ?
आप जरा सोचिये कि यदि कोई अखबार वाला बूटा सिंह जी से चुनाव मे धन ले-ले तो कौन सा बहुत बड़ा अपराध हो गया ? जिन भी राजनेताओं से मीडिया वालो ने धन लिया है उन सबने कई गुना अधिक कमाने की दौड़ लगा रखी थी। दुर्भाग्य यह रहा कि अब तक मीडिया इस व्यवसाय से या तो दूर था या छिपे-छिपे था किन्तु इस बार वह भी लोकतंत्र के अन्य तीन स्तंभो के साथ हो गया । इक्का दुक्का मीडिया कर्मी मीडिया की इस अलोकतांत्रिक प्रगति के विरूद्ध विधवा विलाप कर रहे है। प्रभाश जी को दुख है कि इतने स्पष्ट आरोपो के बाद भी इस संबंध मे न मीडिया मे बहस छिड़ी न समाज मे । प्रभाश जी को तो उम्मीद थी कि उनके लेखो से कोई तूफान खड़ा होगा किन्तु यहाँ तो साधारण हवा भी नही है । मै समझता हूँ कि गलती मीडिया की न होकर प्रभाश जी की हैं , लोकतंत्र के तीन स्तंभ आकंठ भ्रष्टाचार मे लिप्त है। चौथा स्तंभ उन्हे रोक तो सकती नही । या तो आदर्श बनकर प्रभाव शुन्य हो जावे या व्यावहारिक बनकर उन्ही की लाइन पर चल पड़े । मलाई खाने की दौड़ मे शामिल लोगों की सहायता के लिये मीडिया ने अपना हिस्सा पहले ही ले लिया। इसमे मीडिया ने क्या अपराध कर दिया ?
लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का आदर्शवाद छोड़कर व्यवसाय की लाइन पकड़ना समाज के लिये घातक है यह बात सही है। यदि एक-एक करके इसी तरह लोकतंत्र के स्तंभ अपनी जाति बदलकर भ्रष्टाचार मे शामिल होते गये तो इसका समाधान कैसे होगा ? किन्तु इस सच्चाई के साथ-साथ यह बात भी सही है कि मीडिया की आलोचना इसका कोई समाधान नही है। राजनेताओं को तो इसलिये आलोचना नही करनी चाहिये कि वे स्वंय ही मीडिया से कई गुना अधिक भ्रष्ट भी है तथा भ्रष्टाचार के लिये ही चुनावो की दौड़ में भी है। मीडिया कर्मियो को भी इस संबंध मे मीडिया की आलोचना जोर शोर से नही उठानी चाहिये क्योकि लोकतंत्र के ही एक स्तंभ ने लोकतंत्र के ही दूसरे स्तंभ से लोकतंत्र को ही मजबूत करने के लिये धन लिया है। किसी अन्य वर्ग से किसी अन्य पवित्र कार्य की दौड़ मे तो यह पाप किया नहीं गया है । इस तरह तो प्रभाश जी तथा अन्य लोग उन मतदाताओं को भी भ्रष्ट कहना शुरू कर देंगे जो यह देखकर कि चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवार भ्रष्ट भी है और भ्रष्टाचार के लिये ही चुनाव लड़ रहे है, अपना हिस्सा पहले लेकर ही वोट देते है । मै तो पचास वर्षों से लोगो को सलाह देता रहा हूँ कि यदि आपको कोई ईमानदार उम्मीदवार न दिखे तो या तो वोट ही मत दीजिये या पहले ही जो मिले वह ले लीजिये तब वोट दीजिये। ऐसे ही मुफ्त मे इस भ्रष्ट दौड़ में अपना वोट देकर हाथ गंदा मत करिये।
हम राजनीति और मीडिया को एक ही तराजू पर नहीं तौल सकते। मीडिया का ईमानदार होना मीडिया का कर्तव्य है किन्तु समाज का अधिकार नही क्योकि मीडिया का कार्य समाज की अमानत न होकर मीडिया का व्यवसाय है। राजनैतिक पद समाज की अमानत है। राजनैतिक चरित्र राजनेताओ का कर्तव्य मात्र न होकर उनका दायित्व है। गृहस्थ की वासना और गेरूआ वस्त्र धारी सन्यासी की वासना मे अन्तर है। मीडिया की चरित्रहीनता उतना गंभीर मामला नही है जितना राजनैतिक चरित्र पतन। दुर्भाग्य ही है कि राजनैतिक रूप से पतित लोगो की तुलना मे मीडिया के चरित्र की समीक्षा करने की कोशिश की जा रही है।
मेरी अपने मीडिया के मित्रों को सलाह है कि यदि आपको ऐसा विश्वास हो कि अब चुनावो के कम से कम आधे लोग तो समाज सेवा के लिये तथा राजनीति के व्यवसायीकरण के विरुद्ध संघर्ष के लिये मैदान में है तब तो आप मीडिया को भी सलाह दे कि वह इस पवित्र संघर्ष मे भ्रष्टाचार न करे अन्यथा हमारे मीडिया के चरित्रवान साथियो को अपनी कीमती सलाह अपने पास ही रखनी चाहिये। लोकतंत्र की पवित्रता न कार्यपालिका कायम कर सकती है न न्यायपालिका और न ही मीडिया क्योंकि ये सब तो सिर्फ विधायिका की पालकी ढोने वाले मात्र है । भारतीय लोकतंत्र का वास्तविक चीर हरण तो सिर्फ राजनेताओ का अधिकार है और उन्होने स्वयं को भारतीय संविधान रूपी कवच से सुरक्षित कर रखा है। अब आप कहारों को इमानदारी से पालकी ढोने की सलाह दे रहे है या कहारों को अधिक से अधिक धन वसूलने की सलाह दे रहे है यह आपका काम है।
मै तो चाहता हूँ कि हमें वर्तमान वातावरण मे आदर्श और शराफत की धातक शिक्षा देने की अपेक्षा या तो चुप रहना चाहिये या ठीक-ठीक विश्लेषण करके समझदारी की तथा व्यावहारिक सलाह देनी चाहिये अन्यथा गाय की रोटी कुत्ता खाता रहेगा और हम अपने साथियो को और जोर शोर से गाय के नाम पर रोटी निकालने की सलाह देते रहेगें।
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