उपदेश शिक्षा भाषण व प्रवचन का फर्क
उपदेष, प्रवचन, भाषण और शिक्षा का फर्क
दुनिया में कोई भी दो व्यक्ति पूरी तरह एक समान नहीें होते, उनमें कुछ न कुछ अंतर अवष्य होता है। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक निरंतर ज्ञान प्राप्त करता रहता है और दूसरों को षिक्षा भी देता रहता है। हर आदमी जीवन भर दाता भी रहता है और ग्रहणकर्ता भी। न कोई व्यक्ति सम्पूर्ण रुप से ज्ञानी हो सकता है न ही पूरी तरह ज्ञान शून्य। प्रत्येक व्यक्ति हर मामले मे दूसरे लोगों से निरंतर प्रतिस्पर्धा करता रहता है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में प्रवृत्ति और क्षमता के आधार पर आकलन करके उसे चार वर्गो में बांटा जाता है जिसे वर्ण कहते हंै। इन वर्गो में भी ब्राहमण हमेषा ज्ञान और षिक्षा देता हैं तथा शेष तीन वर्ण ब्राहमण से ज्ञान और षिक्षा ग्रहण करते हैं। उपदेष प्रवचन भाषण और षिक्षा देना मुख्य रुप से ब्राहमण का काम माना जाता है।
व्यक्ति की क्षमता का निर्धारण तीन आधारों पर होता हैः-1) जन्मपूर्व के संस्कार 2) पारिवारिक वातावरण 3) सामाजिक परिवेष। इस तरह प्रत्येक बालक को षिक्षा प्रदान करने में परिवार की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है और उनमें भी मां की अधिक । प्रत्येक व्यक्ति में उपदेष, प्रवचन,भाषण और षिक्षा का मिलाजुला समावेष होता है भले ही वह किसी भी वर्ण का हो। इसके बाद भी ब्राहम्ण वर्ण के लोगों में यह क्षमता कुछ विषेष होती है। ये चारों क्षमतायें एक दूसरे से इतनी मिली हुई होती है कि चारों को अलग अलग करना बहुत कठिन कार्य है फिर भी मैं इस कार्य को करने का प्रयास कर रहा हॅू। मैं स्पष्ट कर दॅू कि यह विषय मेरे लिए कठिन है किन्तु हमारी टीम ने कुछ सोच कर ही यह विषय मंथन के लिए निर्धारित किया है। मैं यह भी स्पष्ट कर दॅू कि मैं जो भी लिखता हॅू वह विषय हमारी टीम द्वारा घोषित होता है तथा उस विषय पर लम्बे समय तक आपस में विचार मंथन होने के बाद ही मैं लिखता हॅू। वह भी इस उददेष्य से कि कुछ नई 5बातंे दूसरों तक पहुच जायें और मुझे तथा टीम के साथियों को भी कुछ नई जानकारी मिल जाये। चारों विषय एक समान दिखते हुए भी चारों में कुछ भिन्नतायें हैं।
उपदेष-- अपना अनुभव, मस्तिष्क या बुद्धिग्राहय, गुण तथा तर्क प्रधान, तत्व, गंभीर,, कथनी और करनी की एकरुपता तथा उपदेषक के अपने विचार होते है। उपदेषक का हर वाक्य सत्य होना चाहिये, स्पष्ट होना चाहिये , द्विअर्थी नहीं।
प्रवचन-- अपना अनुभव, हृदयग्राहय, कलाप्रधान , सुपाच्य, कथनी करनी में एकरुपता, तथा काल्पनिक प्रस्तुति होता है।
भाषण-- दूसरों का अनुभव, हृदयग्राहय कलाप्रधान सुपाच्य कथनी करनी में एकरुपता का अभाव, काल्पनिक तथ्य से जुडा होता है। सत्य असत्य से कोई मतलब नहीं।
षिक्षा-- दूसरों के विचार, मस्तिष्कग्राहय, विचारप्रधान , तथ्यात्मक सत्य, संक्षिप्त स्पष्ट होता है किन्तु षिक्षा देने वाले की कथनी करनी में एकरुपता आवष्यक नहीं है।
इसी तरह उपदेषक प्रवचनकर्ता भाषण देने वाला और षिक्षक की भी कुछ अलग अलग भूमिकाएं होती हंै, भले ही चारों का काम ब्राहम्ण प्रधान क्यों न हो। उपदेषक की यह विषेषता होती है कि वह उपदेष देते समय हाथ नहीं हिलाता न ही श्रोताओं की प्रतिक्रिया की अपेक्षा करता है। उसके चेहरे में उतार चढाव नहीं होता। निर्लिप्त भाव से विचार प्रकट करता है। अपने विचारों की स्थापना के लिए अन्य महापुरुषों का नाम नहीं जोडता और प्रायः उपदेषक का अपना मौलिक चिंतन होता है। उपदेष के समय श्रोता आमतौर पर या तो बहुत जल्दी उठ जाते है अथवा उन्हे नींद आने लगती है। उपदेषक इस बात से कभी प्रभावित नहीं होता। उपदेषक प्रष्नोत्तर अवष्य करता है और प्रष्नोत्तर से अपनी बात समझाता है। उपदेषक का जीवन स्वाभाविक होता है, कोई बनावट नहीं होती। उसका कोई व्यक्तिगत उददेष्य भी नहीं होता। प्रवचनकर्ता बिल्कुल भिन्न होता है। वह अपने शरीर के विभिन्न अंगों के माध्यम से श्रोता को प्रभावित करने का प्रयास करता है। वह श्रोताओं की प्रतिक्रिया की भी हमेषा समीक्षा करता रहता है। उसके प्रवचन में विभिन्न रसों का समावेष होता है तथा वह अपनी बात समझाने के लिए काल्पनिक और असत्य उदाहरण सत्य के समान बनाकर प्रस्तुत करता है। वह प्रष्नोत्तर के अवसर नहीं देता। जीवन उसका भी स्वाभाविक ही होता है किन्तु उसके प्रवचन के साथ उसका कुछ व्यक्तिगत उददेष्य भी जुडा होता है। भाषण देने वाला भी अपने पूरे शरीर के विभिन्न अंगों को सक्रिय रखता है तथा प्रतिक्रिया की बहुत चिंता करता है। भाषण देने वाले का अपना चिंतन नहीं होता बल्कि वह अन्य विचारको के चिंतन को मिलाकर कलात्मक तरीके से प्रस्तुत करता है। वह अपने भाषण में कई प्रकार के रसों का समावेष करता है तथा उसका व्यक्तिगत उददेष्य भी निहित होता है। वह प्रष्नोत्तर का सहारा नहीं लेता। वह अपनी बात कहता है दूसरों की सुनना नहीं चाहता। उसकी कथनी करनी में आसमान जमीन का फर्क होता है। षिक्षक कुछ और भिन्न होता है। वह हाव भाव से निर्लिप्त होता है प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं करता। प्रष्नोत्तर के अवसर देता है। अपना ज्ञान नहीं जोडता न ही वह अपनी षिक्षा को अपने आचरण से प्रभावित होने देता है। उसका कोई व्यक्तिगत उददेष्य नहीं होता।
इस तरह चारों प्रवृत्तियों में अनेक समानताए होते हुए भी कुछ असमानताए होती हैं। चारों में सबसे अधिक सम्मान उपदेषक का होता है तथा सबसे कम भाषण देने वालों का। किन्तु यह बात भी सच है कि उपदेष सुनने के लिए शायद ही दो चार लोग इकटठे हांे और वे भी यदि दबाव न हो तो थोडी देर में उठ कर चले जाते है।
यदि हम वर्तमान वातावरण की समीक्षा करें तो वास्तविक और पूर्ण उपदेषक तो आपको मिलेंगे ही नहीं किन्तु आंषिक रुप से गुण रखने वाले उपदेषक भी बहुत कम मिलेंगे क्योंकि न तो योग्य उपदेषक दिखते है न ही उपदेष ग्रहण करने वालों की वैसी टीम और क्षमता इसलिए प्रवचनकर्ता ही लगभग उपदेषक मान लिये गये है। पुराने जमाने में जब बालक गुरु के आश्रम में जाता था तो गुरु ही अभिभावक उपदेषक और षिक्षक की भूमिका में होता था। अब षिक्षा एक प्रकार का नौकरी हो गई है। षिक्षक के लिए आवष्यक नहीं कि उसका व्यक्तिगत आचरण षिक्षा से जुडा हो किन्तु समाज में एक भावना बनी हुई है कि षिक्षक और गुरु एक समान होते है। यह भावना ठीक नहीं। वर्तमान समय में एक यह बुराई भी घुसती जा रही है कि पेषेवर लोग समाज को धोखा देने के लिए इसे पूरी तरह व्यवसाय बना लिये है। लेकिन इससे बडी खतरनाक बुराई यह आ गई है कि अपराधी तत्वों ने इन चारों सम्मानित व्यवसायों मंे अपना प्रवेष पा लिया है और वे इसका दुरुपयोग कर रहे है। इसलिए सबसे पहली आवष्यकता यह है कि इस प्रणाली से आपराधिक तत्वों को बाहर किया जाये। इस संबंध में मेरा एक सुझाव है कि वर्तमान सामाजिक वातावरण में गुरु और षिष्य परम्परा को पूरी तरह छोड दिया जाये। जब योग्य गुरु मिलते ही नहीं और धुर्त गुरुवों का प्रवेष बहुत अधिक है तो इस परम्परा को पूरी तरह छोड ही देना चाहिए। अनेक धुर्त लोग गुरुगोविंद दोउ खडे का उदाहरण देकर इस परम्परा का लाभ उठाना चाहते है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वतः के निर्णय करने की अंतिम स्वतंत्रता अपने पास रखनी चाहिये किसी दूसरे के पास नहीं चाहे वह कितना भी बडा उपदेषक हो अथवा कितना भी अच्छा प्रवचनकर्ता। हमें सब की सुनने किन्तु अपना निर्णय स्वयं करने के लिए तैयार रहना चाहिये। हमें यह भी ध्यान देना चाहिये कि ये प्रवृत्तियां जन्म से होने वाले ब्राहम्णों के लिए अनिवार्य नहीं है बल्कि योग्यता अनुसार कोई भी इस दिषा में किसी भी सीमा तक आगे बढ सकता हैं।
उपदेष और प्रवचन व्यक्ति के चरित्र निर्माण में सहायक होते है।
उपदेष और षिक्षा व्यक्ति की तर्क शक्ति जाग्रत करते हैं।
भाषण और षिक्षा व्यक्ति की क्षमता बढाते हैं किन्तु चरित्र निर्माण नहीं करते।
प्रवचन व्यक्ति को संस्कारित करते हैं। विचार शक्ति पर खराब प्रभाव डालते हैं। इन सबमें उपदेष देना और सुनना सबसे ज्यादा कठिन कार्य है किन्तु सबसे ज्यादा उपयोगी है।
भाषण देना और सुनना सबसे आसान है किन्तु सबसे कम उपयोगी है। माता पिता पहले गुरु होते हैं। उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। यदि उन्हे बचपन मंे ही अनुभव हो जाये कि उनका बालक प्रतिभाषाली है तो उसे प्रवचन और भाषण से बचाकर उपदेष और षिक्षा से जोडना चाहिये जिससे वह संस्कारित होने से बचे। उसे ऐसे संगठन और संस्थाओं से बचाना चाहिये जो बालको में संस्कारों का विस्तार करते हैं।
मैंने अपनी क्षमतानुसार इस विषय पर कुछ लिखा है आगे और चर्चा होगी तो अच्छा होगा।
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