साजिषों के अड्डे अब मंदिरों के नाम हो गये।
गजल
साजिषों के अड्डे अब मंदिरों के नाम हो गये।
अर्थतन्त्र में यहां सभी, देखिये गुलाम हो गये ।।
मौत बिक रही है यहां, आदमी जिये कैसे।
खून से भी अब ज्यादा, खंजरों के काम हो गये।।
आदमी उजाले से अब बचा रहा दामन ।
चेहरे अन्धेरे में, एक से तमाम हो गये ।।
अर्थहीन शब्द हो गये, धर्म की किताबों के।
देवता दुकानों में अब सभी नीलाम हो गये।।
नाम पर तरक्की के रास्ते हुये चौडे़ ।
फिर भी बात क्या है, यहां पांव बढ़ते जाम हो गये ।।
बन्दगी के हाथ अब यहां, जिन्दगी को लूटने लगे।
जाहिलों के हर तरफ यहां, देखिये मुकाम हो गये।।
कल तलक जो सीता का, कर रहे थे अपहरण यहां।
देखता हूँ आज वो ‘‘रसिक” मंदिरों में राम हो गये ।।
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