जीवन पथ भाग १ GT - 444
"जीवन पथ" श्री नरेन्द्र रघुनाथ सिंह द्वारा उपन्यास शैली की रचना है। इसके लिखने का कालखण्ड 2011 से 2017 तक रहा। वस्तुतः यह उपन्यास समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के उन सिद्वान्तोें पर आधारित है जो अनुसंधान रामानुजगंज सरगुजा छत्तीसगढ़ के जंगलों में दशकों तक श्रद्धेय बजरंग मुनि जी ने अपनी विलक्षण बौद्धिक क्षमता और सामाजिक मूल्यों के प्रति अगाध समर्पण के बल पर किया। श्री नरेन्द्र जी की साहित्यिक क्षमता और इन सामाजिक विषयों के प्रति गहरी समझ ने कई मूर्धन्य विचारकों तक को प्रभावित किया है। आप सब विद्वानों, सुधीजनों एवं सामाजिक विषयों के प्रति रूचि रखने वाले पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि ज्ञान तत्त्व में क्रमशः प्रकाशित ष्जीवन पथष् उपन्यास की कड़ियों पर अपनी राय जरूर रखें।
जीवन पथ
लेखकीय दृष्टिकोण
सदैव से ही जब से जीवन की सृष्टि हुई है, मनुष्य ने अनेक दृष्टिकोण के आधार पर जीवन का प्रबन्ध किया है। यथार्थ की समीक्षा का सिद्धान्त यह सिद्ध करता है कि कुछ सर्वकालिक सिद्धान्तों की प्रासंगिकता जीवन में सदैव बनी रहती है तो व्यक्ति अनेक में यथास्थिति परिवर्तन करके भी उन्हंे स्वीकार किए रहता है। वस्तुतः व्यवस्था की स्थापना के सन्दर्भ में यह यथास्थिति परिवर्तन का दृष्टिकोण ही, जिसे हम विश्लेषण या समीक्षा का नाम भी दे सकते हैं, हमे प्रकृति के उपभोग का अर्थ सिखाता है। यदि किसी सिद्धान्त में जड़ता है और कोई मनुष्य या मनुष्यों का समूह उसे प्रतिबद्धता पूर्वक स्वीकार किए रहता है तो उसे हठवादिता कहना ही ठीक रहेगा। मूलतः व्यवस्था जीवन में यथार्थ की कसौटी पर खरी उतरनी चाहिए। यदि किसी व्यवस्था में यह गुण न हो तो उसे प्रगतिशीलता की बाधा कहना उचित रहेगा। जीवन के प्रबन्ध के सन्दर्भ में यह यथार्थ का दर्शन है। वस्तुतः दर्शन, जीवन की कसौटी है। व्यावहारिक जीवन की जिस किसी भी सन्दर्भित वस्तुस्थिति से दर्शन के महत्व को नकार दिया जाता है तो वह वस्तुस्थिति अथवा जीवन-पथ, भ्रष्ट हो जाता है। जीवन मंे जब कभी-भी ऐसी संक्रामक स्थिति उत्पन्न होती है तो मनुष्य-मात्र का यह दायित्व सिद्ध होता है कि वह व्यावहारिक जीवन से जड़ सिद्धान्तों का उन्मूलन करे। मनुष्य-मात्र के ये प्रयास मानवता के परिप्रेक्ष्य में होनेे चाहिए, ये किसी भी स्तर पर व्यक्तिवाद की सीमा में बंधे हुए न हांे! प्रस्तुत उपन्यास की विषयवस्तु में मैने दर्शन के गुण-धर्म को मानक मानकर समाज में व्यवस्था के ढाँचे के निर्माण में भूमिका निभाने वाले विषय समाज, न्याय, धर्म, अर्थ, संविधान, राज्य व राष्ट्र के गुण-धर्म की विवेचना करते हुए इन विषयांे की व्यावहारिक कार्य प्रणाली की चर्चा की है। जिनका सारांश विषय के परिचय प्रबन्ध में प्रस्तुत है-
व्यवस्था का अर्थ-
व्यावहारिक अनुभव से यह बात सहजता पूर्वक प्रत्यक्ष होती है कि प्रबन्ध व्यक्ति की मौलिक चेतना की अनुभूति है। व्यक्ति अपनी प्रत्येक क्रिया को किसी न किसी प्रकार प्रबन्धित करता ही है, यद्यपि वह पूर्ण या अपूर्ण हो सकती है। जीवन में व्यवस्था का नियोजन व्यक्ति की इसी मौलिक चेतना का परिणाम है। लेकिन व्यक्ति की मौलिक चेतना से उत्पन्न इस व्यवस्था में कोई नियन्त्रण प्रणाली नहीं है, कोई प्रतिबन्ध नहीं है। यह तो ऐसा गुण प्रधान प्रबन्धन होता है जोकि क्रिया के आरम्भ से शुरु होता है और समापन के साथ समाप्त हो जाता है। मूलतः यह मौलिक व्यवस्था का गुण है। जबकि व्यवहार जगत में हमें कई प्रकार की व्यवस्था की आवश्यकता होती है। हमारी स्वचेतना का प्रबन्धतन्त्र हमारे व्यवहार जगत की व्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाता है, इसका क्या कारण है? इस विषय में मैं यह कहुँगा कि सृष्टि के प्रारम्भ से दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ अस्तित्व में है- सात्विक प्रवृत्ति और असात्विक प्रवृत्ति। सात्विक प्रवृत्ति के लोगों की संख्या बहुत अधिक होती है और असात्विक प्रवृत्ति के लोगों की बहुत कम, किन्तु असात्विक (दुष्ट) प्रवृत्ति के लोग बहुत शक्तिशाली होते हैं, क्योंकि ऐसे लोग बहुत अवसरवादी और शक्ति संग्रह के विषय में बहुत चालाक होते हैं। सामान्यतया सात्विक प्रवृत्ति के लोगांे के समूह को समाज कहते हैं और असात्विक प्रवृत्ति के लोग समाज विरोधी होते हैं। समाज और समाज विरोधी तत्वों के बीच सदैव संघर्ष चलता रहता है। समाज विरोधी तत्वों पर समाज के नियन्त्रण तथा समाज के सुचारु रुप से संचालन की प्रक्रिया को व्यवहार जगत में व्यवस्था कहते हैं।
जीवन और समाज व्यवस्था-
जीवन की व्युत्पत्ति नैसर्गिक रुप से होती है और इसका भौतिक प्रबन्धन समाज व्यवस्था के द्वारा। समाज व्यवस्था के गुण-धर्म की विवेचना हेतु इसके अन्वेषकों के समक्ष अक्सर यह प्रश्न होता है कि समाज क्या है? इसका यर्थाथपरक प्रबन्ध कैसे हो? क्योंकि जीवन की गतिशीलता समाज के लोक व्यवहार में नित नए परिवर्तन करती रहती है। वास्तव में समाज-विज्ञान का कोई भी अन्वेषक इन प्रश्नांे की उत्पत्ति के कारण में जीवन का प्रबन्ध खोजता है। समाज मूलतः किसी जैविक इकाई के रुप में उत्पन्न नहीं होता है और न भौतिक व्यवस्था का जन्म प्रकृति के गर्भ से हुआ है। इनके निर्माण में कोई ऐसा भौतिक तत्व भी शामिल नहीं है, जिसके गुण-धर्म का अन्वेषण हम किसी प्रयोगशाला में कर सकें! इन प्रश्नों में सत्यता निहित है, लेकिन सत्य तो यह भी है कि हमारे लोक व्यवहार से समाज भी प्रत्यक्ष होता है। क्योंकि यह ठीक है कि समाज की जीवन की तरह भौतिक उत्पत्ति नहीं होती है किन्तु यह भी सत्य है कि इसकी जीवन के प्रबन्ध के लिए व्यावहारिक संरचना तो होती ही है। जीवन की मूल-भूत आवश्यकताएं एवं व्यक्ति की परस्पर निर्भरता स्वतः ही समाज नाम की संस्था को आकृति प्रदान कर देती हैं। इस वस्तुनिष्ठ तर्क के आधार पर सार्वभौमिक समाज आकृति धारण करता चला जाता है। वस्तुतः यह सिद्धान्त है कि समाज नाम की संस्था का निर्माण व्यक्ति की जैविक अनुभूतियांे के द्वारा आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही होता है। हाँ कुछ प्रश्न इसके भौतिक ढाँचे के विषय में अवश्य उत्पन्न होते हैं, जैसे कि इसे कैसे व्यवस्थित किया जाए, क्यांेकि इसमें रुढ़ियों के जाल में उलझे हुए तथाकथित धर्म, पन्थ और सम्प्रदाय हैं, तथाकथित सभ्यता के झण्डाबरदारांे की जातियां और वर्ग हैं, आर्थिक असमानता है, राजनीतिक वैमनस्य है, जीवन पर शासन करने के ऐसे-ऐसे आश्चर्यचकित करने वाले व्यक्ति जनित उपाय हैं जो समाज की मूलभूत आकृति को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। इन विचित्र और विषमयकारी स्वार्थ सिद्ध परिस्थितियों में भौतिक समाज स्वयं को कैसे सन्तुलित रख सकता है! एक सामाजिक अनुसंधान से मैने यह सिद्धान्त प्राप्त किया है कि व्यक्ति आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो विशुद्ध भूमण्डलीकृत जीवन शैली स्वीकार करता आया है लेकिन निजता की रक्षा का बहाना करके व्यक्ति नें व्यक्तिवादी रुढ़ियांे का किसी पवित्र सिद्धान्त की तरह पालन किया है। प्रस्तुत तथ्य के अनुसार व्यवस्था के ढाँचे का निर्माण करने के लिए हमे निजता एवं भूमण्डलीकरण नामक विषयांे को भी परिभाषित करना चाहिए, क्योंकि समाज की संरचना के दृष्टिकोण की व्याख्या इस तर्क के आधार पर होनी चाहिए कि समाज व्यवस्था की व्यवस्थागत इकाई में सत्ता भाव नहीं होता है और यदि ऐसा होता है तो वह इकाई सामाजिक संस्था नहीं है। वस्तुतः व्यक्ति के चरित्र पर व्यवस्था का गुणात्मक प्रभाव पड़ता है। इसलिए समाज में भौतिक व्यवस्था के ढाँचे की संरचना सरकार के विधि प्रयोजन के अनुसार न होकर स्वराज्य की अवधारणा के आधार पर होनी चाहिए। प्रस्तुत विषय में इस अवधारणा की विवेचना की गयी है।
समाज व्यवस्था की संरचना का आधार-
समाज व्यवस्था के प्रबन्धकीय स्वरुप की विवेचना करने के क्रम में इसकी संरचना की सैद्धान्तिक अवधारणा की सूक्ष्म विवेचना करनी उपयुक्त होगी। एक सामाजिक अनुसंधान से मुझे यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि समाज में मौलिक व्यवस्था की स्थापना समाज के विभिन्न स्तरीय निकायों के दो स्वरुपों की क्रमिक अवस्थापना के अनुसार होती है। जिनमें प्रथम और तार्किक क्रम है- व्यक्ति-परिवार-गाँव अथवा शहर (या विभाजित इकाई)-जिला-प्रदेश-देश-समाज अथवा विश्व; देश, समाज व्यवस्था का अंग होता है, वह समाज व्यवस्था से कोई स्वतन्त्र इकाई नहीं होता है। यद्यपि यह सम्भव है कि वैश्विक समाज व्यवस्था की विभिन्न राष्ट्रीय और स्थानीय इकाईयांे में इन व्यवस्थागत इकाईयों के नाम व आकृति जरा बहुत बदल जाते हों लेकिन अन्ततः यह क्रम समाज की मूल-भूत इकाई से लेकर वैश्विक आधार तक प्रत्येक इकाई द्वारा निजता की सीमाओं को संरक्षित रखते हुए अपना सामाजिक विस्तार कर, उत्तरोत्तर इकाई में परस्पर समावेश का स्वनिर्मित प्रारुप है। व्यवस्था की स्थापना का यह क्रम समाज में विभिन्न स्तर पर आवश्यकता के अनुसार शक्ति विभाजन का मार्ग प्रशस्त करता है। क्योंकि इस क्रम की प्रत्येक व्यवस्थागत इकाई में उसके स्तर के अनुसार समाज की वास्तविक आकृति का समावेश होता है। इस विषय से सम्बन्धित दूसरा व रुढ़ क्रम है, व्यक्ति-परिवार-कबीला अथवा कुटुम्ब-जाति-सम्प्रदाय व पन्थ-वर्ग संघर्ष में उलझा हुआ देश व समाज! यद्यपि आधुनिक समाज में यह क्रम भी पहले अर्थात वास्तविक क्रम का आश्रय पाकर ही किसी न किसी प्रकार जीवित रहता है किन्तु इसका मूल दोष यह है कि यह प्रकार समाज के आन्तरिक ढाँचे में अपने स्वभाव के अनुसार विभिन्न व्यक्तियों के बीच वैचारिक अन्तरविरोधों, रुढ़ियों एवं जड़-धारणाओं के पनपने के अवसर उत्पन्न करता है तथा व्यवस्थागत शक्ति के गलत नियोजन व सत्ताखोर लोगांे की नीयत खराबी के कारण समाज में व्यवस्थागत ढाँचे के निर्माण व निर्वहन का व्यावहारिक प्रतिनिधित्व कर रहा है। इसे समाज का दुर्भाग्य कहना ही ठीक रहेगा कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था भी इस दूसरे क्रम को न केवल विधिक मान्यता प्रदान करती है बल्कि इसकी संरचना में भी इस तथाकथित क्रम की भूमिका होती है। भले ही हमारी संवैधानिक व्यवस्था इस सत्य को सैद्धान्तिक रुप से नकारती हो, लेकिन मौजूदा सामाजिक ढाँचे की बिनाह पर किया गया अनुसंधान राज्य के इस वक्तव्य को तर्कहीन सिद्ध कर देता है। व्यक्ति को सामाजिक तथा राज्यगत व्यवस्था के ढाँचे से इस दूसरे तथाकथित क्रम के प्रभाव का उन्मूलन करना होगा। वस्तुतः व्यवस्था का प्रथम क्रम उपयुक्त है क्यांेकि इसकी व्यवस्थागत इकाईयांे में सामाजिक गुण स्वतः निहित रहता है। हमारा सम्पूर्ण व्यवस्था तन्त्र (सामाजिक व राजनीतिक) इस प्रथम क्रम पर आधारित होना चाहिए। यह व्यवस्था की आवश्यकता है।
धर्म और उसका स्वरुप-
व्यवहार जगत में धर्म ऐसा विषय है जिसे समाज में अनेक दृष्टिकोण से परिभाषित किया गया है। यह बड़ा ही दिग्भ्रमित करनें वाला विषय है कि नितान्त अन्तरधार्मिक समानता की बातें करने वाला व्यक्ति भी आचरण के समय अपने संगठनात्मक धर्म को ही सर्वोपरि मानता है। व्यवहार जगत में मुझे, मनुष्य की यह प्रवृत्ति किसी मानसिक रोग से ज्यादा महसूस नहीं हुई। अलबत्ता इस वैचारिक जड़ता के अध्ययन से मुझे यह तर्क अवश्य प्राप्त हुआ है कि व्यवहार जगत में धर्म के दो स्वरुप प्रकट हैं, जिनमें पहला व मूल स्वरुप गुण प्रधान है। यह स्वरुप व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव का प्रतिनिधित्व करता है जिससे व्यक्ति देशकाल परिस्थिति के अनुसार मार्गदर्शन प्राप्त करता है। धर्म का दूसरा व रुढ़ स्वरुप संगठन प्रधान होता है। इसमें व्यक्ति की संगठनात्मक पहचान जैसे चोटी-दाढ़ी, वेश-भूषा, नाम, संख्या, पूजा-पद्धति व संगठन इत्यादि का नीतिगत महत्व रहता है। धर्म का यह तथाकथित स्वरुप ही आधुनिक सामाजिक ढाँचे का प्रतिनिधित्व कर रहा है, जिसके परिणाम स्वरुप समाज, सम्प्रदायों में विभक्त है। यह गम्भीर चिन्तन का विषय है कि क्या धर्म का दर्शन समाज के विभाजन का आधार प्रस्तुत कर सकता है? लेकिन व्यवहार जगत में तो यह विषय सत्य के रुप में स्थापित है। मेरे विचार से धर्म के इस रुढ़ स्वभाव का उन्मूलन होकर समाज में सर्वथा इसके गुण प्रधान स्वरुप की स्थापना होनी चाहिए। मूलतः धर्म, जीवन के सापेक्ष विषय है, यह कभी-भी निरपेक्ष नहीं होता है, यह देशकाल परिस्थिति के अनुसार हमारा मार्ग दर्शन करता है। प्रस्तुत उपन्यास की विषय-वस्तु में ऐसी शंकाआंे का निराकरण करने का प्रयास किया गया है।
समाज के परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता, सार्थक या निरर्थक -
यथार्थ के सामाजिक ढाँचे का आकलन करते हैं तो पाते हैं कि हमारा राजनीतिक व धार्मिक नेतृत्व समाज को अपनी सत्ता स्थापना के लिए लगातार वर्ग संघर्ष के लिए गुमराह कर रहा है और इसे विडम्बना कहना ही ठीक रहेगा कि मानव सभ्यता के इतिहास में सहिष्णुता व निरपेक्षता को अपनी जीवनचर्या से स्फूर्त करने वाला भारतीय समाज, आज उधार के दर्शन का अनुकरण कर अपनी संस्कृति के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। यह उधार का दर्शन क्या है? इस समय मैं धर्मनिरपेक्षता के अस्तित्व पर प्रश्न कर रहा हूँ, क्योंकि यह धर्मनिरपेक्षता, जिसे भाषाविदों ने सैक्युलरिज्म (समाजवाद) के मायने के रुप में भी तब्दील किया है, उन्होनेे धर्म व संगठन के गुणधर्म में कोई अन्तर नहीं किया या यूँ कहें कि दुनिया को सैक्यूलरिज्म अथवा तथाकथित धर्मनिरपेक्षता (साम्प्रदायिकता) को जन्म देने वाले आधुनिक सभ्यता के मार्गदर्शकों ने धर्म व संगठन के दर्शन को समझा ही नहीं था! दुनिया का कोई भी व्यक्ति इस विषय का अनुसंधान करे और यह सिद्ध करे कि क्या कोई भी संगठन किसी अन्य संगठन से स्पर्धा के समय निरपेक्ष रह जाता है? क्योंकि उसने यदि ऐसा किया तो निश्चित रुप से उसका अस्तित्व अन्य संगठनों मंे गौण हो जाएगा और कोई भी संगठन भला अपने अस्तित्व को समाप्त कैसे होनेे दे सकता है? दुनिया भर में धर्म निरपेक्षता का दर्शन विभिन्न कथित धार्मिक (साम्प्रदायिक) संगठनांे के संघर्ष के समय समाज के वर्गाे का निरपेक्षता पूर्वक मार्गदर्शन नहीं कर पाता है और समाज जगह-जगह पर साम्प्रदायिक संघर्षाे का शिकार हो जाता है। मूलतः मैं यहाँ पर यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि हमे समाज को निरपेक्ष बनाने के सतत प्रयास करने चाहिए, यदि हम ऐसा कर पाए तो समाज से साम्प्रदायिकता का अस्तित्व स्वतः ही समाप्त हो जाएगा और समाज धर्माचरण से ओत-प्रोत हो जाएगा। यद्यपि यह कार्य व्यक्ति-मात्र के लिए दुर्लभतम लक्ष्य की तरह है जिसे प्राप्त करना सरल कार्य नहीं है। लेकिन समाज के विभिन्न पन्थांे को, जिन्हें हम कथित तौर पर धर्म के रुप में स्वीकार करते हैं, उनके झण्डाबरदारों को धर्म के दर्शन की मीमांसा करनी चाहिए और उस मीमांसा के परिणाम स्वरुप जो सार्वभौमिक सिद्धान्त प्राप्त हों उसे अपने अनुयायियों को संयुक्त रुप से पालन करने का निर्देश देना चाहिए।
इस विषय को और भी विस्तार पूर्वक समझने के लिए मैं भारतीय दर्शन के वैचारिक प्रभाव को स्वीकार करना श्रेयष्कर समझता हूँ कि उसने धर्म का प्रत्यक्षीकरण किस प्रकार किया है? यह हमे शिक्षा देता है कि धर्म की कोई निश्चित आकृति नहीं होती, बल्कि यह तो देशकाल परिस्थिति के अनुसार अपनी आकृति धारण करता है। लोकतन्त्रीय राज्य में धर्म, न राज्य को निर्देशित करता है और न राज्य से अपने लिए निर्देश पाता है। इस सिद्धान्त का समाज की आकृति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। क्योंकि जो अवधारणा समाज को वर्गों में विभाजित कर देती है उसे पन्थ अथवा सम्प्रदाय ही कहा जा सकता है, धर्म का इससे कोई सम्बन्ध नहीं होता। मुझे नहीं पता कि दुनिया में इस धर्मनिरपेक्षता (सैक्यूलरिज्म) नाम के शब्द की व्युत्पत्ति कब और किस प्रकार हुई? क्योंकि समाज के सार्वभौमिक अर्थ को समझते हुए जीवन में मैने धर्म के जिस दर्शन को स्वीकार किया है उसमें किसी पन्थ एवं जाति की अपेक्षा में न तो व्यक्ति का स्वतन्त्र अस्तित्व गौण होता है और न समाज का। जरा समाज के मूल स्वरुप को समझते हुए व्यक्ति-मात्र समाज के सन्दर्भ में धर्म के दर्शन को प्रत्यक्ष तो करे, वह स्वयं से पूछे कि धर्म क्या है? क्योंकि जब तक दुनिया में सम्प्रदायवाद की अभिरक्षा के लिए धर्म को अनावश्यक रुप से निरपेक्ष कहने की गलती की जाती रहेगी तब तक जनसामान्य धर्म के गुण प्रधान स्वरुप को समझ ही नहीं पाएगा। धर्म कोई सम्प्रदाय या पन्थ नहीं होता है जो कभी इसे निरपेक्ष कहने या बनाने की कोशिश करनी पड़े। यदि निरपेक्षता के सन्दर्भ में ही धर्म को देखा जाए तो यह समाज का इस प्रकार मार्गदर्शन करता है कि इससे निरपेक्षता स्वतः ही उत्पन्न होती है, और निरपेक्षता का यही भाव, समाज में किन्हीं घटनाओं के प्रभाव से उत्पन्न हुए पन्थ, वर्ग और जातियों का निरपेक्षीकरण कर समाज में विलीन करने का मार्ग प्रशस्त करता है। लेकिन समाज पर सत्ता की स्थापना के लिए तथाकथित धर्मरक्षक और राजनेताओं ने धर्म के मूल स्वभाव को विष्मृत करके तथा सम्प्रदाय व पन्थ को धर्म के रुप में महिमामण्डित करके समाज के मूल स्वरुप को ही नष्ट कर दिया है। मैं आधुनिक समाज के विभिन्न घटकांे से यह प्रश्न करना चाहता हूँ कि विभिन्न अवसरों पर अपनी-अपनी संगठनात्मक पहचान को अनावश्यक रुप से परिलक्षित करते हुए क्या किसी पक्षहीन (वर्गहीन) समाज की रचना की जा सकती है? सम्प्रदाय एवं पन्थ का सन्दर्भित अर्थ ध्यान में रखते हुए हमे निरपेक्षता की परिभाषा पर जरा चिन्तन करना चाहिए! किसी पन्थ का कोई अवधारक जब अन्य की अवधारणा, भावना, परम्परा एवं सामाजिक ढाँचे के विरुद्ध कार्य करता है तो पहले उसे यह विचार भी कर लेना चाहिए कि ऐसा करके उसके सामने क्या परिणाम आनें वाला है? क्योंकि यदि हम समाज को निरपेक्ष बनाना चाहते हैं तो हमे पन्थ के महत्व को मृतप्राय करना ही होगा। अन्यथा पन्थ, जाति और वर्ग के आधार पर सत्ताखोरी करने वाले लोग समाज के वर्गाें को ऐसे रास्तों पर जाने के लिए गुमराह करते रहेंगे। क्या आधुनिक समाज ऐसे ही परिवेश में जीवन व्यतीत करता रहेगा? व्यक्ति मात्र को इस विषय पर अवश्य विचार करना चाहिए।
राजनीति का अर्थ और स्वरुप-
सामान्य व्यवहार में राजनीति के अर्थ पर विचार करें तो यह राज्य के प्रबन्ध की नीति के रुप में प्रत्यक्ष होता है। इसे राजनीति का लोकतन्त्रीय स्वरुप भी कहा जा सकता है। लेकिन समाज पर राज्य के व्यवस्थागत प्रभाव के कारण समाज के सामान्य व्यवहार में लोग राजनीति के वास्तविक गुण-धर्म से अलग इसे भेद-नीति के रुप में भी स्वीकार करते हैं। राज्य की कुटिलता के इस दुष्प्रभाव के कारण जन-सामान्य की मानसिकता राजनीति को व्यवस्था की प्रबन्ध नीति से बदलकर शासनकर्ता की नीति के रुप में स्वीकार कर लेती है। यह मानसिक प्रभाव व्यक्ति और व्यवस्था के बीच व्यावहारिक दूरी को बढ़ा देता है और इस नीति का वास्तविक प्रभाव राज्य की असफलता तथा व्यवस्था के प्रति समाज के असन्तोष के रुप में सामने आता है। प्रस्तुत उपन्यास की विषय-वस्तु के परिचय प्रबन्ध में, मैं यह विषय इंगित करूँगा कि राजनीति का अर्थ, व्यवस्था को शासन प्रणाली के रुप में स्थापित करने में नहीं बल्कि व्यवस्था के प्रबन्ध में निहित होता है। क्यांेकि प्रबन्ध अपने नियामक के प्रति उत्तरदायी होता है और लोकतन्त्र में शासन, जनता के प्रति उत्तरदायी होता है। वस्तुतः यह निष्कर्ष राजनीति के स्वभाव को शासननिष्ठ अथवा व्यक्तिवादी व्यवस्थानिष्ठ के स्थान पर समाजनिष्ठ (वस्तुनिष्ठ या समाज केन्द्रित) बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है। व्यवस्था पालन में इस नीति का अनुकरण करने से लोकतन्त्र सबल और जीवन पद्धति में प्रयोग हो पाता है। हमारी राजनीति का अर्थ और स्वरुप ऐसा ही होना चाहिए।
लोकतन्त्रीय व्यवस्था और संविधान-
मूलतः लोकतन्त्रीय व्यवस्था के कार्यान्वयन की सैद्धान्तिक अवधारणा यह होती है कि व्यवस्था (राज्य) के सम्पूर्ण कार्यकलाप का संचालन संविधान के अनुसार होता है। लेकिन यह भी सच है कि संविधान तो अमूर्त सत्ता केन्द्र है, व्यवस्था के प्रकार की निर्जीव विवेचना है। इसका मूर्त रुप मनुष्य है और इसका सजीव दर्शन मनुष्यकृत क्रिया। इस परिस्थिति में तो लोकतन्त्र का प्रभाव व्यवस्था संचालन में कार्यरत मनुष्य की इच्छा के अनुकूल ही आएगा। उसकी इच्छा का जैसा भी गुण-धर्म होगा, व्यवस्था का वैसा ही परिणाम हमे प्राप्त होगा। तब क्या मनुष्य की सत्ता पिपासा की निरंकुशता इस सार्वजनिक व्यवस्था पद्धति को अपनी इच्छा से ही राैंदती रहेगी? नहीं! इस पद्धति के अन्वेषकांे ने इसके सत्ता दोष के उन्मूलन का सरलतम प्रकार समाज को सुझाया है। वह प्रकार यह है कि यदि लोकतन्त्र किसी भी दशा में अपने मूल अर्थात समाज के प्रति उत्तरदायी नहीं होता है तो उसे लोकतन्त्र नहीं कहा जा सकता है और जिस संविधान के प्रावधानांे में अपने मूल के प्रति उत्तरदायित्व की प्रतिबद्धता नहीं होती है वह व्यवस्था का संवैधानिक प्रबन्ध नहीं होता है। उत्तरदायित्व की प्रतिबद्धता के अभाव में किसी भी संवैधानिक व्यवस्था के ढाँचे की वैसी ही स्थिति होती है जैसी कि किसी निरंकुश राजा या अधिनायक की अपने राज्य में होती है। राजनीतिशास्त्र की कसौटी पर भारत के संविधान की भाषा चाहे जितनी भी निपुण हो, लेकिन दुर्भाग्य से यह अपने नियामक के प्रति उत्तरदायी नहीं है। इसके वैधानिक प्रबन्ध की विवेचना में लोकतन्त्र का अभाव है। मूलतः यह देश में अलोकतान्त्रिक लोकतन्त्र की स्थापना करता है। इस कारण से जनता दिग्भ्रमित होकर अपनी व्यवस्था के ढाँचे को बिना समझे राजनेताआंे की नारेबाजी के भ्रम में पड़ी रहती है। भारत की जनता को अपने लोकतन्त्र को निरंकुश सत्ता केन्द्र की गुलामी से उबार कर पूर्णतः लोकतान्त्रिक बनाना होगा; तभी हम मानवता के ध्वजवाहक बन सकेगें। प्रस्तुत विषय में मैने इसी आधार पर अपनी व्यवस्था के गुण-धर्म की समीक्षा की है जिसके उचित या अनुचित होनेे का ऑकलन समाज करेगा।
अर्थव्यवस्था के विषय में-
प्रबन्ध के अभाव में जीवन का सुचारु होना असम्भव है। यदि प्रबन्ध में भी सामयिकता न हो तो वह जीवन को दिशाहीन कर देता है अर्थात प्रबन्ध उत्तरदायित्व में निहित और यथार्थप्रज्ञ होना ही चाहिए। जीवन में विकास की योजनाओं में भी प्रबन्ध अपनी इस कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। प्रस्तुत उपन्यास में मैने जीवन की अन्य विषय-वस्तुओं के साथ आर्थिक प्रबन्ध पर भी विचार किया है। प्रबन्ध के परिप्रेक्ष्य में देखंे तो भारत के आर्थिक प्रबन्ध की स्थिति असफल है। ऐसा नहीं है कि स्वतन्त्रता के बाद भारत ने आर्थिक प्रगति नहीं की है, वास्तव में इस काल में भारत ने बहुत आर्थिक प्रगति की है। लेकिन हमारी आर्थिक प्रगति में सर्वथा समग्रता का अभाव रहा है। मूलतः समग्रता के अभाव में प्रबन्ध के मानक को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। प्रबन्ध के मानक से दूर हटकर निर्धारित की गयी भारत की अर्थव्यवस्था के असफल रहने के दो मुख्य कारण हमारे सामने प्रकट हैं, एक तो आर्थिक असमानता और दूसरा नियोजन की समग्रता का अभाव। इन दोनांे कारणों से हमारी अर्थव्यवस्था का लाभ समाज के कुछ गिने-चुने लोग ही उठा पाते हैं या यूँ कहें कि स्वतन्त्रता के बाद के काल में हमारी अर्थव्यवस्था का भयंकर केन्द्रीयकरण हुआ है जो कि मूलतः हमारी आर्थिक नीतियों का परिणाम है। प्रस्तुत विषय में अर्थव्यवस्था के केन्द्रीयकरण के दुष्प्रभावांे को ध्यान में रखते हुए कुछ वैकल्पिक सिद्धान्तों पर विचार किया गया है। जिनमें ‘ऊर्जा कर‘ और ‘सम्पत्ति कर’ मुख्य हैं। यद्यपि देश में ऊर्जा व सम्पत्ति कर के विषय में विभिन्न विद्वान अपने-अपने मत स्पष्ट करते रहे हैं, किन्तु मेरे दृष्टिकोण में ऊर्जा व सम्पत्ति कर के माध्यम से अर्थव्यवस्था में निहित विशुद्ध श्रम (गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी और किसान) कर के प्रभाव से मुक्त हो जाएगंे या जीवनयापन में उन पर अति आंशिक कर-भार आएगा तथा श्रम नियोजन के अवसर बहुतायत पर विकसित होगें। यह सब कैसे हो सकेगा, इस विषय की विस्तृत विवेचना विषय में निहित है।
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