वैचारिक व्यवस्था परिवर्तन GT - 445
व्यवस्था परिवर्तन के लिए जनमत हो एक जुट :
हम सत्ता परिवर्तन के नहीं व्यवस्था परिवर्तन के पक्षधर हैं। व्यवस्था परिवर्तन के पहले लक्षण यह दिखते हैं की समाज में व्यवस्था की इकाइयां परिवार गांव जिला प्रदेश देश और विश्व तक जाती हैं यह हमारी भारतीय मान्यता है विदेश की मान्यता यह है की जाति धर्म संगठन राजनीतिक दल भाषा यह सब व्यवस्था की इकाइयां होंगी । इन दो संस्कृतियों के बीच लगातार संघर्ष चल रहा है । स्वतंत्रता के बाद पहले प्रकार की व्यवस्था को कमजोर करके दूसरे प्रकार की व्यवस्था को मजबूत किया गया । अब लक्षण दिख रहे हैं कि धीरे-धीरे पहले से चल रही व्यवस्था को कमजोर किया जा रहा है। धर्म के आधार पर संगठनों को नियंत्रित किया जा रहा है सांप्रदायिकता पर नियंत्रण लग रहे हैं जातीय आरक्षण के विरुद्ध भी वातावरण बन रहा है भाषा के मामले में भी हम ठीक दिशा में जा रहे हैं जाति जनगणना को भी देश का समर्थन नहीं मिल रहा है दलीय राजनीति भी धीरे-धीरे कमजोरी की जा रही है । पूरे भारत में ऐसा साफ दिख रहा है कि अब पक्ष विपक्ष की राजनीति नहीं चलेगी अब तो निष्पक्ष राजनीति चलेगी। इस तरह मेरे विचार से अब देश नई व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रहा है जिसमें परिवार गांव जिला प्रदेश देश और विश्व व्यवस्था की इकाइयां होंगी। संप्रदाय जाति भाषा पक्ष विपक्ष की राजनीति आदि समस्याएं समाप्त हो सकती हैं । इसके लिए आवश्यक है की केंद्र में वर्तमान व्यवस्था को दो तिहाई बहुमत मिले जिससे संवैधानिक तरीके से इस प्रकार के संशोधन किए जा सके क्योंकि जब तक विपक्ष की कमर नहीं टूट जाएगी तब तक आदर्श व्यवस्था लागू नहीं हो पाएगी । हमें सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति नहीं चाहिए हमें निष्पक्ष राजनीति चाहिए।
व्यवस्था कई प्रकार की होती है धार्मिक सामाजिक राजनीतिक आर्थिक पारिवारिक इन सब की व्यवस्थाएं अलग-अलग होती हैं। यदि हम इन व्यवस्थाओं में सब में एक साथ सुधार या बदलाव का प्रयत्न करते हैं तो उसे संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन कहते हैं लेकिन वर्तमान दुनिया में राजनीतिक व्यवस्था ने सभी व्यवस्थाओं को गुलाम बना लिया है इसलिए राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन को ही सबसे अधिक महत्व दिया जा रहा है । राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन को ही हम व्यवस्था परिवर्तन कर रहे हैं। राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन का पूर्ण लक्ष्य तो यह है की संविधान संशोधन में तंत्र की भूमिका अंतिम रूप से ना हो बल्कि सहायक की हो अंतिम भूमिका में लोक की भी भूमिका होनी चाहिए। संविधान लोक और तंत्र के बीच चेक एंड बैलेंस के आधार पर संशोधित या परिवर्तित होना चाहिए तंत्र के आधार पर नहीं । लेकिन यदि वर्तमान में ऐसा नहीं दिख रहा है तो वर्तमान में तंत्र में आई गंभीर बुराइयों को भी हम व्यवस्था परिवर्तन के साथ जोड़ सकते हैं। इन बुराइयों में सबसे बड़ी बुराई है की तंत्र जाति संप्रदाय लिंग क्षेत्र उम्र के आधार पर वर्ग संघर्ष को आधार बनाकर व्यवस्था करना चाहता है जबकि हम लोग परिवार गांव जिला प्रदेश राष्ट्र के आधार पर मिलजुल कर व्यवस्था करना चाहते हैं। इन दोनों के बीच में जो संघर्ष चल रहा हैइस संघर्ष में वर्तमान में चल रही व्यवस्थाओं को बदलने के नाम को हम व्यवस्था परिवर्तन दे रहे हैं अर्थात हम सब लोगों को चाहिए कि हम जातिवाद सांप्रदायिकता क्षेत्रीयता लिंग भेद उम्र भेद के विरुद्ध सामाजिक वातावरण बनाते चलें वर्तमान राजनीति पक्ष और विपक्ष के बीच बटकर वर्ग विद्वेष का लाभ उठाने का प्रयत्न कर रही है। हम सत्ता पक्ष और विपक्ष की राजनीति को पूरी तरह नकार दें हम निष्पक्ष राजनीति की शुरुआत करें । पक्ष विहीन राजनीति की शुरुआत करें निर्दलीय संसद की कल्पना करें प्रत्येक सांसद को समानता का अधिकार दें यह निष्पक्ष राजनीति हमारी व्यवस्था परिवर्तन के मार्ग की शुरुआत हो सकती है। मैं आपसे चाहता हूं कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के सड़े गले लोकतंत्र को नकार दीजिए।
हमें लोकतंत्र नहीं लोक्स्वराज चाहिए :
भारतीय राजनीति में पूरा का पूरा विपक्ष एक स्वर से मांग कर रहा है कि लोकतंत्र को बचाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। मैं लंबे समय से यह बात कह रहा हूं कि लोकतंत्र को हटाना आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है । हम इतने रद्दीलोकतंत्र को अब तक जिस तरह देख चुके हैं अब हम इसे ढोने के लिए तैयार नहीं है। यह पश्चिम की बीमारी है और हमें लोकतंत्र नहीं लोक स्वराज चाहिए । विपक्ष कहता है भारत को सुशासन चाहिए मैं कहता हूं समाज को स्वशासन चाहिए । देश के नेता कहते हैं देश सबसे बड़ा है मैं कहता हूं समाज सबसे बड़ा है । मेरा आपसे निवेदन है कि हमें अब इस प्रकार के लोक स्वराज की दिशा में सोचना शुरू कर देना चाहिए। हम तानाशाही और लोकतंत्र का विकल्प चाहते हैं हम तानाशाही या लोकतंत्र के बीच में से एक को चुनना ठीक नहीं समझते
हमारे कई मित्रों ने यह जानना चाहा है कि लोकतंत्र और लोक स्वराज में क्या अंतर होता है मैं उचित समझा कि मैं इस विषय पर अलग से आपको कुछ स्पष्ट कर दूं। लोकतंत्र लोक नियुक्त तंत्र होता है लोग स्वराज लोक नियंत्रित तंत्र होता है। दोनों में महत्वपूर्ण फर्क यह होता है की लोकतंत्र में संविधान में संशोधन का अधिकार तंत्र के पास होता है और लोग स्वराज में संविधान सभा अलग से बनती है। इसका अर्थ यह हुआ कि संविधान में संशोधन या बदलाव संविधान सभा और तंत्र दोनों एक मत होकर ही कर सकते हैं । इन दोनों इकाइयों का अलग-अलग चुनाव लोक अर्थात आम जनता करती है । यदि इन दोनों के बीच में किसी संवैधानिक मामले में असहमति हो जाए तो जनमत संग्रह द्वारा आम जनता का निर्णय अंतिम होता है यही है लोक स्वराज। इन दोनों के परिणाम बहुत अलग-अलग होते हैं इन दोनों का परिणाम यह होता है कि लोकतंत्र में समाज को कोई एक मान्यता नहीं है लोग स्वराज में समाज ऊपर होता है लोकतंत्र में तंत्र शासक होता है लोग स्वराज में तंत्र व्यक्ति का शासक और व्यक्ति समूह का मैनेजर होता है। लोकतंत्र में अव्यवस्था का होना निश्चित है लोग स्वराज में अव्यवस्था हो ही नहीं सकती और भी कुछ इसके अलग-अलग परिणाम दिखते हैं मेरे विचार से लोग स्वराज आदर्श स्थिति है और लोकतंत्र विकृत.
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