विविध वैचारिक GT 445

उच्चसिद्धांतों का पालन विचारक का काम राजनेता का नहीं :

मैंने अटल बिहारी वाजपेई के प्रधानमंत्री का कार्यकाल भी देखा है उस समय तो मैं बहुत सक्रिय भी था नरेंद्र मोदी का भी कार्यकाल देखा। अटल बिहारी वाजपेई राजनीति में सफल नहीं हो पाए नरेंद्र मोदी सफल हुए क्योंकि अटल बिहारी वाजपेई उच्च सैद्धांतिक नीतियों का पालन करते थे जबकि नरेंद्र मोदी व्यावहारिक राजनीति का पालन करते हैं। अटल बिहारी वाजपेई राजनीति में नैतिकता को बहुत महत्व देते थे नरेंद्र मोदी कूटनीति को बहुत महत्व देते हैं । इन दोनों के अलग-अलग कार्यकाल हुए हैं दोनों इमानदार थे लेकिन कार्य प्रणाली दोनों की अलग रही है । मैं तो अटल बिहारी वाजपेई का भी प्रशंसक हूं और वर्तमान समय में नरेंद्र मोदी का तो पक्षधर ही हूं । मैं यह मानता हूं की राजनीति कूटनीति का भाग होती है सिद्धांतों का नहीं । यदि आप उच्च सिद्धांतों पर चलना चाहते हैं तो आपको विचारक बनना चाहिए राजनेता नहीं। राहुल गांधी में गंभीर विचारक के गुण तो हैं राजनेता के नहीं है इसलिए राहुल गांधी अपनी राजनीति में बिल्कुल असफल सिद्ध हो रहे हैं। यदि सोनिया गांधी राहुल गांधी को राजनीति से अलग होने की छूट दे दें तो राजनीति छोड़कर राहुल एक विचारक बन सकते हैं अन्यथा राहुल जीवन भर इसी तरह बचपन में बिता देंगे

 

संविधान में शामिल विघटनकारी प्रावधानों की तत्काल सफाई की जरूरत :

कांग्रेस पार्टी और पूरा विपक्ष यह निर्धारण नहीं कर पा रहा है कि वह अगले चुनाव में क्या स्टैंड ले। कभी तो यह लोग कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी जनता में अलोकप्रिय हो गए हैं तथा उन्हें किसी भी स्थिति में बहुमत नहीं मिलेगा। दूसरी ओर यही लोग यह बात भी कहते हैं कि दो तिहाई बहुमत मिलना लोकतंत्र के लिए खतरा है। इसलिए हमारी लड़ाई लोकतंत्र बचाने के लिए है और किसी भी तरीके से भाजपा को दो तिहाई बहुमत न मिले। अब इन दोनों में से विपक्ष को क्या संभावना दिखती है यह बात साफ नहीं है। आज कांग्रेस पार्टी के एक बड़े नेता भूपेश बघेल ने यह कहा है कि यदि भारतीय जनता पार्टी 400 सीटों के आसपास पहुंच जाएगी तो वह संविधान में मनमाने बदलाव करेगी और यह बदलाव लोकतंत्र के लिए घातक होगा। स्पष्ट दिखता है कि भूपेश बघेल भारतीय जनता पार्टी के बहुमत के प्रति तो आश्वस्त है और उनके अनुसार वर्तमान चुनाव सत्ता संघर्ष न होकर संविधान बचाने का चुनाव है। राष्ट्रीय अध्यक्ष खड़गे ने भी कई बार यह बात दुहराई है कि यदि भारतीय जनता पार्टी को दो तिहाई बहुमत मिलता है तो भविष्य में कोई और चुनाव होने की संभावना नहीं है। हो सकता है कि अंतिम चुनाव हो। इस विषय पर मैंने भी बहुत लंबे समय तक काम किया है। मेरा भी यह मत है कि जब तक सत्ता पक्ष को दो तिहाई बहुमत नहीं मिलेगा तब तक वह संविधान में शामिल किए गए उस कूड़े कचरे को साफ नहीं कर पाएगा जो पिछली सरकारों ने समय-समय पर संविधान में शामिल कर लिया है। जातिवाद, आरक्षण, सांप्रदायिकता, क्षेत्रीयता, लिंग-भेद आदि अनेक ऐसे विघटनकारी प्रावधान संविधान में शामिल कर लिए गए हैं जिन्हें तत्काल सफाई करने की जरूरत है। भारत के संविधान निर्माताओं ने जिस तरह भारतीय विचारों की अवहेलना करते हुए पश्चिम का अपरिपक्व लोकतंत्र भारत पर थोप दिया उसमें भी बदलाव करने की जरूरत है। जिस तरह संविधान को तंत्र का गुलाम बना दिया गया उस प्रावधान में भी बदलाव करके लोक निर्भर अलग संविधान सभा के गठन की आवश्यकता है। संविधान सभा और संसद को बिल्कुल अलग-अलग होना चाहिए लेकिन सत्ता लोलुप नेहरू परिवार ने दोनों को एक कर दिया था। इसलिए मेरा सुझाव है कि अब विपक्षी दलों के बहकावे में न आकर नरेंद्र मोदी सरकार को दो तिहाई से अधिक इतना बहुमत देने की जरूरत है कि वह संविधान में शामिल किए गए कूड़े कचरे को आसानी से साफ कर सके। आइए हम आप मिलकर नए भारत की कल्पना करें।

 

अपराधियों और दबंगों से मुक्ती आवश्यक :

आज एक और खूंखार माफिया मुख्तार अंसारी की मृत्यु हो गई। मैंने अपने जीवन में अनेक ऐसे खूंखार अपराधियों का कार्यकाल देखा है। इनमें से अनेक से अहिंसक संघर्ष भी किया है और लड़ाई जीती भी थी। मेरा अपना अनुभव है कि ऐसे खूंखार अपराधियों में मुसलमानों की संख्या करीब 40 प्रतिशत है और उसके बाद ब्राह्मणों की संख्या है। राजपूतों और दलितों या आदिवासियों की संख्या भी मुसलमान और सवर्णों से बहुत कम है। लेकिन ऐसे दबंगों में वैश्य समाज के लोग अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं जबकि इन दबंगों से प्रभावित सबसे ज्यादा वैश्य समाज ही होता है। वैश्य समाज इन दबंगों से दोनों तरफ से पिसता है। इन दबंगों से सुरक्षा के लिए सरकार और राजनैतिक दल भी वैश्य समाज से टैक्स के रूप में बड़ी मात्रा में धन वसूल करते हैं। तो ये दबंग भी सारा पैसा वैश्य समाज से ही वसूल करके अपनी राजनीतिक छवि बनाते हैं। यही कारण है कि भारत का अधिकांश वैश्य समाज भारतीय जनता पार्टी में जुड़ता चला गया। यहां तक की अन्य राजनैतिक दल दबंगों को अपना भाई बनने लगे और भारतीय जनता पार्टी को बनिए की पार्टी कहा गया। इन दबंगों से मुक्ति के अभियान की शुरुआत नीतीश कुमार ने बिहार से की। नीतीश ने सिवान में लालू से लड़ाई लड़कर ऐसी दबंगई से मुकाबला किया। बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐसी एक श्रृंखला ही शुरू कर दी, जिसके आधार पर ये दबंग कमजोर किए जा रहे हैं। पिछले 10 वर्षों में इस मामले में न्यायालय ने भी अच्छा काम किया है। ऐसे दबंगों की ऐसी दुर्गति हुई है कि आज कोई राजनीतिक दल ऐसे लोगों के पक्ष में खड़ा होने से कतरा रहा है। पप्पू यादव को खड़ा करने के पहले राजनीतिक दलों को सोच विचार करना पड़ रहा है। मुख्तार अंसारी की मृत्यु पर सपा और बसपा ने ही दो-चार आंसू बहाकर अपना पिंड छुड़ा लिया है अन्यथा अब तक मुख्तार की मृत्यु पर कितना भी बड़ा हंगामा हो सकता था। सपा और बसपा ने मुख्तार की मृत्यु पर राजनैतिक संदेह व्यक्त किया है। मेरे विचार से ऐसा संदेह करना सिर्फ औपचारिकता है। लेकिन यदि मुख्तार की किसी योजना के अंतर्गत हत्या भी हुई हो तो हत्या करने वाला बधाई का पात्र है और अगले चुनाव में इसका लाभ उसे अवश्य मिलेगा, जिसने इस प्रकार के दबंगों से मुक्ति के मामले में एक अवैधानिक कदम उठाने का खतरा मोल लिया हो। मैं इस बात से पूरी तरह संतुष्ट हूं कि दबंगों से मुक्ति के मामले में देश ठीक दिशा में जा रहा है। जिस बिहार और उत्तर प्रदेश को दबंगों से मुक्त कराने के लिए किसी अवतारी पुरुष को आना पड़ता था वैसी मजबूरी वर्तमान में नहीं दिख रही है।

 

मुसलमानों को कट्टरता छोड़ बराबरी के मार्ग पर चलाना चाहिय :

वर्तमान भारत की सबसे बड़ी समस्या सांप्रदायिकता है। सांप्रदायिकता ने ही भारत का विभाजन कराया। विभाजन के बाद भी लाखों लोग मारे गए। इसके बाद भी सांप्रदायिकता कम नहीं हो पाई क्योंकि मुसलमान संगठित था और संगठन की ताकत पर कांग्रेस पार्टी मुसलमानों से दबी हुई थी। पूरे देश में चाहे वह कश्मीर हो या असम या उत्तर प्रदेश कहीं भी मुसलमानों का संगठित स्वरूप लगातार मजबूत होता जा रहा था । पिछले 10 वर्षों में स्थितियों में बदलाव आया है। हिंदू भी संगठित हुआ है, भारतीय जनता पार्टी हिंदुओं के साथ तालमेल कर रही है। इसके बाद भी मुसलमान परिस्थितियों के आधार पर हिंदुओं को बराबरी का अधिकार देने के पक्ष में नहीं है और यदि मुसलमान का एक वर्ग परिस्थितियों को समझना भी चाहता है तो विपक्षी दल उसे समझने नहीं देते। खूंखार अपराधी मुख्तार अंसारी के जनाजे में जिस तरह भीड़ हुई, वह सिद्ध करती है कि मुसलमान अभी भी समझौते के लिए तैयार नहीं है। राम मंदिर का केस एक ऐसा मामला था जिसमें मुसलमान यदि ठीक से परिस्थिति का आकलन करते तो भविष्य के झगड़ा खत्म हो सकते थे। लेकिन कट्टरवादी मुसलमानों का ग्रुप इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अब वाराणसी, मथुरा में भी वैसी ही परिस्थितिया बन रही है। धार में भी लगातार युद्ध का नया मैदान तैयार हो रहा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2004 के मदरसा कानून को अवैध घोषित करके एक नया मोर्चा खोल दिया है। देश भर के अनेक मस्जिदों के संबंध में चुपचाप नए तथ्य खोजे जा रहे हैं। मुसलमान जब तक बराबरी के आधार पर अन्य धर्म के लोगों के साथ बैठने को तैयार नहीं होगा तब तक उन्हें बलपूर्वक पीछे ढकेला जाएगा और इस कार्य की सीमा क्या होगी यह नहीं बताया जा सकता। क्योंकि मुसलमान जिस विपक्ष की ओट में खड़ा है वह विपक्ष ही समाप्त होता दिख रहा है। भारत में हिंदुओं का तो एक नेतृत्व मोहन भागवत, नरेंद्र मोदी के रूप में साफ-साफ दिख रहा है, लेकिन मुसलमानों के बीच ऐसा कोई स्पष्ट नेतृत्व नहीं उभर रहा है। मैं बहुत पहले से मानता रहा हूं कि सांप्रदायिकता को सिर्फ कुचला ही जा सकता है उसे कभी संतुष्ट नहीं किया जा सकता। गांधी के नेतृत्व में हमने सांप्रदायिकता को संतुष्ट करने का प्रयास किया। इसके परिणाम स्वरुप हमें एक तरफ भारत विभाजन मिला तो दूसरी तरफ गांधी हत्या का परिणाम मिला। अब हिंदू समाज वैसी गलती नहीं करना चाहता। अब सांप्रदायिकता को निर्दयता से कुचलने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। सावरकरवादियों ने तो अपना मार्ग बदल लिया है, उन्होंने तो नरेंद्र मोदी, मोहन भागवत का नेतृत्व स्वीकार कर लिया है, लेकिन अभी मुसलमानों की सांप्रदायिकता हिंदुओं के साथ समझौते के लिए तैयार नहीं है। इन चुनावों के बाद मुसलमानों को अंतिम निर्णय करना ही होगा या तो वे सांप्रदायिकता को छोड़कर बराबरी के मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो या समाप्त कर दिए जाएं। इसके अतिरिक्त और कोई तीसरा मार्ग नहीं है।