श्रम शोषण और शिक्षित बेरोजगारी : GT 446
श्रम शोषण और शिक्षित बेरोजगारी :
१४ एक समाचार प्रकाशित हुआ है कि भारत के शिक्षित लोगों में लगभग 80 प्रतिशत बेरोजगार हैं। इसके प्रति बहुत लोगों ने चिंता भी व्यक्त की है लेकिन कारण और समाधान आज तक कोई नहीं बता सका। जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय श्रमजीवियों की तुलना में शिक्षित लोगों की बहुत कमी थी। इसलिए उस समय श्रम की तुलना में शिक्षा को अधिक प्रोत्साहित किया गया और शिक्षित रोजगार को बहुत आकर्षक बनाया गया। जिससे श्रमजीवी अधिक से अधिक मात्रा में शिक्षा की ओर पलायन कर सके। वर्तमान भारत में शिक्षित लोगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। श्रमजीवी बहुत तेज गति से शिक्षा की तरफ पलायन कर रहे हैं। श्रम करने वाले की कमी हो गई है और शिक्षित की संख्या में बाढ़ आ गई है। ऐसे वातावरण में उचित था कि हम अपनी नीतियों में बदलाव करते लेकिन आज भी हम उसी गलत नीति पर लगातार चल रहे हैं और समस्या का रोना रोकर उससे लाभ उठाने का प्रयास कर रहे हैं। उचित तो यह होता की बदली हुई परिस्थितियों में श्रम और शिक्षा के बीच या अंतर कम किया जाता या दोनों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाता। लेकिन आज भी यदि हम शिक्षा को प्रोत्साहन और आकर्षक बनाकर श्रम को इसी तरह उपेक्षित बनाए रखते हैं तो इसमें भूल किसकी है? कल्पना करिए कि भारत का हर नौजवान बी॰ए॰, एम॰ए॰ पास कर जाए और वह श्रम न करके सरकारी नौकरी के लिए घर बैठा रहे तो इसमें गलती या तो उस नौजवान की है या हमारी व्यवस्था की है। किसी भी दृष्टि से इस परिस्थिति में समाज की कोई गलती नहीं है। शिक्षा को योग्यता का मापदंड घोषित करना चाहिए था रोजगार का नहीं। लेकिन हमारे बुद्धिजीवियों ने चाहे भूल से या श्रम शोषण की इच्छा से शिक्षा को रोजगार के साथ जोड़ दिया। आवश्यकता है कि इस गलती को सुधारा जाए। इसके लिए पहला काम यह करना चाहिए कि सरकारी कर्मचारियों का वेतन उस सीमा तक घटा दिया जाए जो बाजार में उपलब्ध है। दूसरा कार्य यह हो सकता है कि शिक्षा पर सरकार को सारा बजट रोक देना चाहिए और श्रमजीवियों पर लगा देना चाहिए। तीसरा काम यह भी हो सकता है कि न्यूनतम श्रम मूल्य 300 रुपये प्रति दिन से भी अधिक करके पूरे देश भर में रोजगार गारंटी की घोषणा कर दी जाए। तात्कालिक कदम तो ये हो सकते हैं लेकिन दीर्घकालिक कदम के रूप में डीजल, पेट्रोल, बिजली का मूल्य कई गुना बढ़ाकर सब प्रकार का टैक्स खत्म कर दिया जाए। जिससे श्रम का बाजार मूल्य अपने आप 700 रुपये प्रति व्यक्ति तक पहुंच जाए और इसके लिए सरकार को कुछ न करना पड़े। मेरे विचार से इस विषय पर एक बहस छेड़नी चाहिये।
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