30 जून प्रातः कालीन सत्र समाज व्यवस्था का एक मौलिक सिद्धांत है |

30 जून प्रातः कालीन सत्र
समाज व्यवस्था का एक मौलिक सिद्धांत है कि समाज, मार्गदर्शकों और रक्षकों की संयुक्त जिम्मेदारी से संचालित होता है। इन दोनों की भूमिकाएँ स्पष्ट रूप से विभाजित होती हैं। यदि समाज में अपराध करने वालों की संख्या कुल जनसंख्या के दो प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तो यह केवल रक्षकों की विफलता नहीं मानी जा सकती; इसमें मार्गदर्शकों की निष्क्रियता भी उतनी ही उत्तरदायी होती है। वहीं यदि यह संख्या दो प्रतिशत से कम है, तब उत्तरदायित्व मुख्यतः रक्षकों पर आता है।

वर्तमान विश्व में हिंसा के प्रति झुकाव तेजी से बढ़ रहा है। हर व्यक्ति के स्वभाव में आक्रोश और असहिष्णुता की तीव्रता देखी जा सकती है। यह स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि अब समाज का लगभग 90% हिस्सा किसी न किसी रूप में हिंसक प्रवृत्तियों से प्रभावित प्रतीत होता है। ऐसी परिस्थिति में केवल राज्य को दोषी ठहराना उचित नहीं है। इस प्रवृत्ति की जड़ें समाज के मार्गदर्शक तंत्र की विफलता में भी निहित हैं।

व्यक्ति के स्वभाव में बढ़ती हिंसा आज की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या बन चुकी है। हमें, समाज और सरकार – दोनों को – मिलकर इसे एक "आपातकालीन समस्या" के रूप में स्वीकार करना होगा। इस समस्या के समाधान हेतु हमें दो समानांतर दिशाओं में कार्य करना होगा:

  1. बचपन से ही हिंसा और बल-प्रयोग पर नियंत्रण:
    इसके लिए परिवार व्यवस्था को जागरूक और उत्तरदायी बनाना होगा। परिवार को अपने प्रत्येक सदस्य को अनुशासित करने की जिम्मेदारी लेनी होगी।
  2. धार्मिक और नैतिक मार्गदर्शन की शुद्धता:
    हमारे धर्मप्रचारकों को यह बात स्पष्ट रूप से समझनी चाहिए कि समाज में किसी भी प्रकार की हिंसा को न्यायोचित ठहराना नहीं, बल्कि उसे पूरी तरह निरुत्साहित करना उनकी जिम्मेदारी है।

साथ ही राज्य को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि सुरक्षा और न्याय उसके बुनियादी दायित्व हैं। किसी भी नागरिक को अपनी रक्षा और न्याय की चिंता स्वयं उठाने की आवश्यकता न पड़े — यह व्यवस्था की जिम्मेदारी होनी चाहिए।

इस प्रकार, परिवार, मार्गदर्शक तंत्र और राज्य — तीनों ही मिलकर व्यक्ति के स्वभाव में आ रहे इस नकारात्मक परिवर्तन को रोक सकते हैं।

आज हम जिस गंभीरता से वातावरणीय प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन की चिंता कर रहे हैं, उससे कहीं अधिक सजगता और संकल्प हमें मानव स्वभाव में बढ़ते ताप के प्रति दिखानी चाहिए। यदि यह अभियान वैश्विक स्तर पर नहीं प्रारंभ होता, तो भारत को इसकी पहल करनी चाहिए। यदि समाज नहीं करता, तो हम अपने परिवार से आरंभ करें। और यदि कोई साथ न दे, तो आप जैसे जागरूक मार्गदर्शक इस कार्य की शुरुआत करें।

साथ ही, यह भी आवश्यक है कि हम अपने शासकों और सरकारों पर दबाव डालें कि वे "सुरक्षा" और "न्याय" को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल करें।