जिस प्रकार किसी भले और सीधे-सादे कमजोर व्यक्ति को, बिना किसी गलती के भी, चालाक लोग डाँट देते हैं, वैसा ही हाल आज भारत में चुनाव आयोग का हो रहा है।

जिस प्रकार किसी भले और सीधे-सादे कमजोर व्यक्ति को, बिना किसी गलती के भी, चालाक लोग डाँट देते हैं, वैसा ही हाल आज भारत में चुनाव आयोग का हो रहा है।

हाल ही में हरियाणा के एक गाँव में सरपंच का चुनाव हुआ। उस चुनाव में चुनाव आयोग की कोई गलती नहीं थी। इसके बावजूद न तो सरकार ने और न ही न्यायपालिका ने आयोग की ओर से सफाई दी। उल्टा, खुलेआम चुनाव आयोग को बदनाम किया गया, जबकि वास्तविक गलती न्यायपालिका की थी।

सिद्धांत स्पष्ट है—जब न्याय और कानून आमने-सामने खड़े हों, तो हमेशा न्याय का पक्ष लिया जाना चाहिए, कानून का नहीं।

उस चुनाव में हुआ यह कि चुनाव अधिकारी से भूलवश एक केंद्र के वोट विपक्षी उम्मीदवार के खाते में दर्ज हो गए। नतीजतन, वास्तविक विजेता को हार का प्रमाणपत्र दे दिया गया। लेकिन जैसे ही चुनाव अधिकारी को अपनी भूल का पता चला, उसने तुरंत दोबारा गिनती की और गलती सुधार ली। इसके बाद, जिसे पहले हारा हुआ घोषित किया गया था, उसे जीत का प्रमाणपत्र सौंप दिया गया। स्पष्ट है, चुनाव अधिकारी और चुनाव आयोग ने न्याय किया।

फिर भी, हारा हुआ उम्मीदवार उच्च न्यायालय गया। उच्च न्यायालय ने कानून के आधार पर चुनाव अधिकारी के निर्णय को पलट दिया और परिणाम यह हुआ कि वास्तविक हारने वाला व्यक्ति वर्षों तक सरपंच बना रहा। जब मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा तो सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा मतपेटी खुलवाई और चुनाव अधिकारी के निर्णय को सही ठहराया।

अब प्रश्न है—इस पूरे प्रकरण में गलती किसकी थी? स्पष्ट रूप से चुनाव आयोग की नहीं, बल्कि उच्च न्यायालय की थी, जिसने कानून का साथ दिया और न्याय की अनदेखी की। परन्तु दुर्भाग्य यह है कि कोई यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने न्याय किया, जबकि हाईकोर्ट ने गलती की।

कल ही चुनाव आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर राहुल गांधी के हर आरोप का तथ्यात्मक उत्तर दिया। इसके बावजूद मीडिया चुनाव आयोग को गलत ठहराने में व्यस्त रहा, राहुल गांधी को नहीं। क्योंकि समाज में एक प्रवृत्ति है कि कमजोर को गलत ठहराने में सबको आनंद आता है—चाहे वह नेता हो, मीडिया हो या न्यायपालिका।