चोरी, डकैती और लूट

प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता उसका मौलिक अधिकार होता है । ऐसी स्वतंत्रता मे कोई भी अन्य किसी भी परिस्थिति मे तब तक कोई बाधा नही पहुंचा सकता जब तक वह स्वतंत्रता किसी अन्य की स्वतंत्रता मे बाधक न हो । कोई भी व्यवस्था किसी भी स्वतंत्रता की उस व्यक्ति की सहमति के बिना कोई सीमा नही बना सकती । इस तरह अपराध सिर्फ एक ही होता है और वह होता है किसी अन्य की स्वतंत्रता मे बाधा पहुचाना । अपराध दो प्रकार के होते है । 1 बल प्रयोग 2 धोखाधडी तीसरा कोई कार्य अपराध नही होता । मौलिक अधिकार भी चार प्रकार के होते है । 1 जीने की स्वतंत्रता 2 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 3 सम्पत्ति की स्वतंत्रता 4 स्वनिर्णय की स्वतंत्रता । इन चारो स्वतंत्रताओ की कोई सीमा उसकी सहमति के बिना तब तक नही बन सकती जब तक किसी अन्य की स्वतंत्रता मे बाधक न हो । अपराध भी पांच प्रकार के होते है । 1 चोरी डकैती और लूट। 2 बलात्कार 3 मिलावट कमतौल 4 जालसाजी धोखाधडी 5 हिन्सा और बल प्रयोग । इन सबमे भी हिंसा बल प्रयोग और धोखाधडी के बिना कोई कार्य अपराध नही होता ।

                 चोरी, डकैती और लूट एक ही प्रकार के अपराध होते है जिसमे किसी व्यक्ति की सम्पत्ति का कोई भाग छिपकर अथवा बल प्रयोग द्वारा अपने अधिकार मे कर लिया जाता है, किन्तु चोरी आम तौर पर छिपकर की जाती है और डकैती या लूट बल प्रयोग के द्वारा । डकैती और लूट मे कोई विशेष फर्क नही होता । यदि लुटेरे पांच से कम है तो उसे लूट कहते है और पांच या उससे अधिक है तो डकैती ।  

                  स्वतंत्रता के बाद आबादी करीब चार गुनी बढी है । सरकारो की आर्थिक अथवा तकनीकी सुविधाए आबादी की तुलना मे कई गुना अधिक बढी है । प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्तर बहुत सुधरा है । भीख मांगने वाले का भी स्तर उंचा हुआ है । इस तरह अपराधो का ग्राफ बहुत कम होना चाहिये था किन्तु आबादी की तुलना मे कई गुना अधिक बढ गया है । चोरी डकैती और लूट भी स्वतंत्रता के समय की तुलना मे पचीस गुना तक अधिक कह सकते है । ये अपराध निरंतर बढते ही जा रहे है । प्रश्न उठता है कि जब भारत भौतिक उन्नति के मामले मे दुनियां से कम्पीटिशन कर रहा है और विकासशील की जगह विकसित राष्ट्रो की श्रेणी मे शामिल हो रहा है तब ये चोरी, डकैती के अपराध स्वयं क्यो नही रूक रहे अथवा सरकारे सफल क्यो नही हो रही ।

         इस गंभीर प्रश्न पर गंभीरता से विचार मंथन हुआ । आम तौर पर लोग भय के कारण अपराधो से दूर रहते है । भय तीन प्रकार का हो सकता है । 1 ईश्वर का 2 समाज का 3 सरकार का । ईश्वर का भय निरंतर घटता जा रहा है । समाज को इस प्रकार छिन्न-भिन्न किया गया कि समाज का अस्तित्व रहा ही नही । कुल मिलाकर सरकार का भय ही एक मात्र आधार बचता है जिससे चोरी डकैती रूक सकती है । हम सरकार की अगर समीक्षा करे तो सरकार का भय भी इन अपराधो को रोकने मे सफल सिद्ध नही हो रहा है ।  

                भारत नकल करने के लिये प्रसिद्ध हो गया है । दुनियां के विकसित राष्ट्र अपराध नियंत्रण करने के बाद जन कल्याण के कार्य करते है तो भारत अपराध नियंत्रण को छोडकर भी जन कल्याण के कार्यो मे सक्रिय हो जाता है । स्पष्ट है कि बलात्कार और डकैती दोनो ही अपराध होते है । दोनो मे ही बल प्रयोग होता है । किन्तु डकैती की तुलना मे सरकारे बलात्कार को अधिक गंभीर अपराध मानती है । जबकि डकैती अधिक गंभीर अपराध होता है । डकैती मे किसी व्यक्ति के स्वामित्व की कोई वस्तु छीनकर उसपर अपना स्वामित्व बना लिया जाता  है। बलात्कार मे ऐसा नही होता । इसी तरह किसी धर्म ग्रन्थ का अपमान एक भावनात्मक मुददा है किन्तु उसे भी गंभीर अपराध बना दिया गया है । अवैध बंदूक और पिस्तौल किसी भी परिस्थिति मे रखना गंभीर अपराध होना चाहिये किन्तु बंदूक और पिस्तौल बिना लाईसेंस के भी रखना छोटा अपराध है और गांजा अफीम रखना गंभीर अपराध । किसी आदिवासी हरिजन को गाली दे देना बहुत बडा गंभीर अपराध बना दिया गया है । कोई व्यक्ति किसी की सहमति से वर्षो तक शारीरिक संबंध बनाकर उससे अलग होना चाहे तो वह बलात्कार का दोषी मान लिया जाता है । मै आज तक नही समझा कि यह बलात्कार की कौन सी परिभाषा है । कास्टिंग कौच को भी बलात्कार सरीखा अपराध मानने की चर्चा चल रही है जबकि वह शुद्ध सौदेबाजी है । सामाजिक बुराईया रोकने का काम समाज का है । सरकार का नही । सरकार का काम सिर्फ अपराध नियंत्रण है लेकिन सरकारे सब प्रकार की सामाजिक बुराईया भी रोकने का प्रयत्न करती है । एक सिद्धान्त है कि किसी दायित्व की मात्रा जितनी ही बढती जाती है उसकी गुणवत्ता की क्षमता उतनी ही घटती जाती है । सरकारो की शक्ति सीमित है । यदि सरकारे ओभर लोडेड होती है तो स्वाभाविक है कि उसकी गुणवत्ता घटेगी । सरकारे वास्तविक कार्यो को छोडकर वर्ग संतुष्टी के कार्यो को प्राथमिकता के आधार पर करना शुरू कर देती है जबकि उन्हे अपराध नियंत्रण पहले करना चाहिये था । जब तक जान बुझकर बुरी नीयत से किसी की भावनाओ को चोट न पहुंचाई जाये तब तक भावनाओ को चोट लगना किसी भी प्रकार का कोई अपराध नही माना जा सकता है । नीयत का महत्व है भावनाओ का नही । सरकारे भावनाओ का महत्व समझती है, नीयत से मतलब नही रखती है। इसका दुष्परिणाम होता है कि चोरी-डकैती सरीखे अपराध बढते चले जाते है । दुख की बात है कि हत्या, आतंकवाद जैसे गंभीर अपराधियो के मुकदमे बीस-बीस वर्ष चलते रहते है तो बलात्कार के मुकदमे मे त्वरित निपटारो की मांग और प्रयत्न हो रहे है । यहां तक मांग हो रही है कि बलात्कार को हत्या की तुलना मे भी अधिक गंभीर अपराध बना दिया जाये ।  

                            एक तरफ तो न्यायपालिका ओभर लोडेड है । चोरी डकैती हत्या के मुकदमे कई दशक तक चलते रहते है तो उत्तर प्रदेश मे खुलेआम अपराधियो को गोली मारने का भी आदेश क्रियान्वित किया जा रहा है । ये दोनो क्रियाए पूरी तरह एक दूसरे के विपरीत है । अच्छा तो यह होता कि न्यायिक प्रकृया के अंतर्गत गंभीर अपराधो मे छः महिने के अंदर निर्णय करना अनिवार्य कर दिया जाता तो गोली मारने की आवश्यकता ही नही पडती । किन्तु सरकारे न्यायिक प्रकृया को लंबा करते जाती है और यदा-कदा जनहित मे अलोकतांत्रिक तरीके अपना लिये जाते है । मेरे विचार से चोरी-डकैती लूट का अस्तित्व हमारे लिये एक कलंक है । छुआछूत से भी ज्यादा, गांजा और अफीम से भी ज्यादा । इसे हर हालत मे रोका ही जाना चाहिये । सरकारो को और समाज को भावना और बुद्धि के बीच के अंतर को समझना चाहिये । इस आधार पर अपनी प्राथमिकता तय करनी चाहिये । बिना विचारे दुनिया की नकल करना हमारे लिये आदर्श स्थिति नही है । इससे बचा जाना चाहिये ।  

गंभीर अपराधो की प्राथमिकताएं तय करते समय कुछ मापदंडो पर विचार होना चाहिये । 1 अपराध अपराधी की आवश्यकता थी अथवा इच्छा । 2 अपराध भावनावश हुआ या योजनापूर्वक 3 अपराध के द्वारा अपराधी को कोई भौतिक लाभ हुआ या नही । 4 पीडित पक्ष को भावनात्मक क्षति हुई अथवा भौतिक । इस तरह की अनेक प्राथमिकताओ पर विचार करने के बाद यह धारणा बनती है कि चोरी डकैती और लूट अन्य भावनात्मक अपराधो की तुलना मे अधिक गंभीर अपराध है । वर्तमान समय मे मेरा कथन कुछ विपरीत दिख सकता है किन्तु इस विषय पर चर्चा होनी चाहिये ।

प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता उसका मौलिक अधिकार होता है । ऐसी स्वतंत्रता मे कोई भी अन्य किसी भी परिस्थिति मे तब तक कोई बाधा नही पहुंचा सकता जब तक वह स्वतंत्रता किसी अन्य की स्वतंत्रता मे बाधक न हो । कोई भी व्यवस्था किसी भी स्वतंत्रता की उस व्यक्ति की सहमति के बिना कोई सीमा नही बना सकती । इस तरह अपराध सिर्फ एक ही होता है और वह होता है किसी अन्य की स्वतंत्रता मे बाधा पहुचाना । अपराध दो प्रकार के होते है । 1 बल प्रयोग 2 धोखाधडी तीसरा कोई कार्य अपराध नही होता । मौलिक अधिकार भी चार प्रकार के होते है । 1 जीने की स्वतंत्रता 2 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 3 सम्पत्ति की स्वतंत्रता 4 स्वनिर्णय की स्वतंत्रता । इन चारो स्वतंत्रताओ की कोई सीमा उसकी सहमति के बिना तब तक नही बन सकती जब तक किसी अन्य की स्वतंत्रता मे बाधक न हो । अपराध भी पांच प्रकार के होते है । 1 चोरी डकैती और लूट। 2 बलात्कार 3 मिलावट कमतौल 4 जालसाजी धोखाधडी 5 हिन्सा और बल प्रयोग । इन सबमे भी हिंसा बल प्रयोग और धोखाधडी के बिना कोई कार्य अपराध नही होता ।

                 चोरी, डकैती और लूट एक ही प्रकार के अपराध होते है जिसमे किसी व्यक्ति की सम्पत्ति का कोई भाग छिपकर अथवा बल प्रयोग द्वारा अपने अधिकार मे कर लिया जाता है, किन्तु चोरी आम तौर पर छिपकर की जाती है और डकैती या लूट बल प्रयोग के द्वारा । डकैती और लूट मे कोई विशेष फर्क नही होता । यदि लुटेरे पांच से कम है तो उसे लूट कहते है और पांच या उससे अधिक है तो डकैती ।  

                  स्वतंत्रता के बाद आबादी करीब चार गुनी बढी है । सरकारो की आर्थिक अथवा तकनीकी सुविधाए आबादी की तुलना मे कई गुना अधिक बढी है । प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्तर बहुत सुधरा है । भीख मांगने वाले का भी स्तर उंचा हुआ है । इस तरह अपराधो का ग्राफ बहुत कम होना चाहिये था किन्तु आबादी की तुलना मे कई गुना अधिक बढ गया है । चोरी डकैती और लूट भी स्वतंत्रता के समय की तुलना मे पचीस गुना तक अधिक कह सकते है । ये अपराध निरंतर बढते ही जा रहे है । प्रश्न उठता है कि जब भारत भौतिक उन्नति के मामले मे दुनियां से कम्पीटिशन कर रहा है और विकासशील की जगह विकसित राष्ट्रो की श्रेणी मे शामिल हो रहा है तब ये चोरी, डकैती के अपराध स्वयं क्यो नही रूक रहे अथवा सरकारे सफल क्यो नही हो रही ।

         इस गंभीर प्रश्न पर गंभीरता से विचार मंथन हुआ । आम तौर पर लोग भय के कारण अपराधो से दूर रहते है । भय तीन प्रकार का हो सकता है । 1 ईश्वर का 2 समाज का 3 सरकार का । ईश्वर का भय निरंतर घटता जा रहा है । समाज को इस प्रकार छिन्न-भिन्न किया गया कि समाज का अस्तित्व रहा ही नही । कुल मिलाकर सरकार का भय ही एक मात्र आधार बचता है जिससे चोरी डकैती रूक सकती है । हम सरकार की अगर समीक्षा करे तो सरकार का भय भी इन अपराधो को रोकने मे सफल सिद्ध नही हो रहा है ।  

                भारत नकल करने के लिये प्रसिद्ध हो गया है । दुनियां के विकसित राष्ट्र अपराध नियंत्रण करने के बाद जन कल्याण के कार्य करते है तो भारत अपराध नियंत्रण को छोडकर भी जन कल्याण के कार्यो मे सक्रिय हो जाता है । स्पष्ट है कि बलात्कार और डकैती दोनो ही अपराध होते है । दोनो मे ही बल प्रयोग होता है । किन्तु डकैती की तुलना मे सरकारे बलात्कार को अधिक गंभीर अपराध मानती है । जबकि डकैती अधिक गंभीर अपराध होता है । डकैती मे किसी व्यक्ति के स्वामित्व की कोई वस्तु छीनकर उसपर अपना स्वामित्व बना लिया जाता  है। बलात्कार मे ऐसा नही होता । इसी तरह किसी धर्म ग्रन्थ का अपमान एक भावनात्मक मुददा है किन्तु उसे भी गंभीर अपराध बना दिया गया है । अवैध बंदूक और पिस्तौल किसी भी परिस्थिति मे रखना गंभीर अपराध होना चाहिये किन्तु बंदूक और पिस्तौल बिना लाईसेंस के भी रखना छोटा अपराध है और गांजा अफीम रखना गंभीर अपराध । किसी आदिवासी हरिजन को गाली दे देना बहुत बडा गंभीर अपराध बना दिया गया है । कोई व्यक्ति किसी की सहमति से वर्षो तक शारीरिक संबंध बनाकर उससे अलग होना चाहे तो वह बलात्कार का दोषी मान लिया जाता है । मै आज तक नही समझा कि यह बलात्कार की कौन सी परिभाषा है । कास्टिंग कौच को भी बलात्कार सरीखा अपराध मानने की चर्चा चल रही है जबकि वह शुद्ध सौदेबाजी है । सामाजिक बुराईया रोकने का काम समाज का है । सरकार का नही । सरकार का काम सिर्फ अपराध नियंत्रण है लेकिन सरकारे सब प्रकार की सामाजिक बुराईया भी रोकने का प्रयत्न करती है । एक सिद्धान्त है कि किसी दायित्व की मात्रा जितनी ही बढती जाती है उसकी गुणवत्ता की क्षमता उतनी ही घटती जाती है । सरकारो की शक्ति सीमित है । यदि सरकारे ओभर लोडेड होती है तो स्वाभाविक है कि उसकी गुणवत्ता घटेगी । सरकारे वास्तविक कार्यो को छोडकर वर्ग संतुष्टी के कार्यो को प्राथमिकता के आधार पर करना शुरू कर देती है जबकि उन्हे अपराध नियंत्रण पहले करना चाहिये था । जब तक जान बुझकर बुरी नीयत से किसी की भावनाओ को चोट न पहुंचाई जाये तब तक भावनाओ को चोट लगना किसी भी प्रकार का कोई अपराध नही माना जा सकता है । नीयत का महत्व है भावनाओ का नही । सरकारे भावनाओ का महत्व समझती है, नीयत से मतलब नही रखती है। इसका दुष्परिणाम होता है कि चोरी-डकैती सरीखे अपराध बढते चले जाते है । दुख की बात है कि हत्या, आतंकवाद जैसे गंभीर अपराधियो के मुकदमे बीस-बीस वर्ष चलते रहते है तो बलात्कार के मुकदमे मे त्वरित निपटारो की मांग और प्रयत्न हो रहे है । यहां तक मांग हो रही है कि बलात्कार को हत्या की तुलना मे भी अधिक गंभीर अपराध बना दिया जाये ।  

                            एक तरफ तो न्यायपालिका ओभर लोडेड है । चोरी डकैती हत्या के मुकदमे कई दशक तक चलते रहते है तो उत्तर प्रदेश मे खुलेआम अपराधियो को गोली मारने का भी आदेश क्रियान्वित किया जा रहा है । ये दोनो क्रियाए पूरी तरह एक दूसरे के विपरीत है । अच्छा तो यह होता कि न्यायिक प्रकृया के अंतर्गत गंभीर अपराधो मे छः महिने के अंदर निर्णय करना अनिवार्य कर दिया जाता तो गोली मारने की आवश्यकता ही नही पडती । किन्तु सरकारे न्यायिक प्रकृया को लंबा करते जाती है और यदा-कदा जनहित मे अलोकतांत्रिक तरीके अपना लिये जाते है । मेरे विचार से चोरी-डकैती लूट का अस्तित्व हमारे लिये एक कलंक है । छुआछूत से भी ज्यादा, गांजा और अफीम से भी ज्यादा । इसे हर हालत मे रोका ही जाना चाहिये । सरकारो को और समाज को भावना और बुद्धि के बीच के अंतर को समझना चाहिये । इस आधार पर अपनी प्राथमिकता तय करनी चाहिये । बिना विचारे दुनिया की नकल करना हमारे लिये आदर्श स्थिति नही है । इससे बचा जाना चाहिये ।  

गंभीर अपराधो की प्राथमिकताएं तय करते समय कुछ मापदंडो पर विचार होना चाहिये । 1 अपराध अपराधी की आवश्यकता थी अथवा इच्छा । 2 अपराध भावनावश हुआ या योजनापूर्वक 3 अपराध के द्वारा अपराधी को कोई भौतिक लाभ हुआ या नही । 4 पीडित पक्ष को भावनात्मक क्षति हुई अथवा भौतिक । इस तरह की अनेक प्राथमिकताओ पर विचार करने के बाद यह धारणा बनती है कि चोरी डकैती और लूट अन्य भावनात्मक अपराधो की तुलना मे अधिक गंभीर अपराध है । वर्तमान समय मे मेरा कथन कुछ विपरीत दिख सकता है किन्तु इस विषय पर चर्चा होनी चाहिये ।