10 लोग भूखे हैं और 10 लोगों में से एक व्यक्ति को भरपेट खाना देने की क्षमता है तो हम थोड़ा-थोड़ा दसों को दें या एक व्यक्ति को भरपेट।
वर्तमान भारत में हमारी राजनीतिक व्यवस्था में एक बहुत बड़ी बीमारी घर कर गई है कि हम नमूने के तौर पर एक दो प्रतिशत लोगों को पर्याप्त सुविधाएं देकर पूरे समाज को उसके साथ जुड़ा हुआ मान लेते हैं। यह बीमारी आज की नहीं है यह बीमारी स्वतंत्रता के तत्काल बाद शुरू हो गई थी और आज तक चल रही है। हमारी न्यायपालिका नमूने के तौर पर किसी बलात्कार के केस या किसी अन्य गंभीर मामले को बहुत गहराई से जांच करके उस पर निर्णय करती है ऐसी गहराई से जांच एक दो प्रतिशत मामलों में ही होती है। हमारी न्यायपालिका हजारों में से किसी एक मुकदमे को आधार बनाकर उसे त्वरित न्यायालय में दे देती है इसका निर्णय तीन महीने या छ: महीने में आ जाता है और वह संतुष्ट हो जाती है। यही हाल हमारी विधायिका का भी है हम आरक्षण दे रहे हैं दलित या आदिवासी लोगों में से हम दो चार प्रतिशत को बहुत अधिक सुविधाएं देकर यह मान लेते हैं कि उस वर्ग को संतुष्ट कर दिया गया। हम करोड़ बेरोजगारों में से दो-चार प्रतिशत को नौकरी देकर यह घोषणा कर देते हैं कि हमने बेरोजगारी दूर कर दी मैं आज तक नहीं समझा यदि हमारे पास 10 लोग भूखे हैं और 10 लोगों में से एक व्यक्ति को भरपेट खाना देने की क्षमता है तो हम थोड़ा-थोड़ा दसों को दें या एक व्यक्ति को भरपेट। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था 10 में से एक आदमी का चुनाव करके उसे भरपेट खाना दे देती है नौ भले ही भूखे रह जाए यह सिद्धांत घातक है और इस सिद्धांत को बदला जाना चाहिए।
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