भारतीय राजनीति कितनी समाज सेवा कितना व्यवसाय
कुछ निष्कर्ष हैं।
- समाज के सुचारू संचालन के लिये भारत की प्राचीन वर्ण व्यवस्था पूरी दुनियां के लिये आदर्श रही हैं। बाद में आयी कुछ विकृतियों ने इसे नुकसान पहुॅचाया;
- आदर्श वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की उपलब्धियां सीमित होती है । मार्गदर्शक की सीमा सर्वोच्च सम्मान तक, रक्षक की सर्वोच्च शक्ति तक, पालक की सर्वोच्च सुविधा एवं धन संपत्ति तक तथा सेवक की सर्वोच्च सुख तक होती है ;
- आदर्श वर्ण व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्तियां भी अलग-अलग होती हैं। मार्ग दर्शक अर्थात ब्राह्मण मर सकता है मार नहीं सकता, हृदय परिवर्तन कर सकता है डरा नहीं सकता, सत्य छुपा सकता है किन्तु झूठ नहीं बोल सकता;
- आदर्श वर्ण व्यवस्था में रक्षक अर्थात क्षत्रिय कूटनीति का प्रयोग कर सकता हैं बल प्रयोग कर सकता हैं किन्तु उपदेश अथवा प्रवचन नहीं दे सकता। मरने और मारने के लिये तैयार होता है ;
- आदर्श वर्ण व्यवस्था में पालक अर्थात वैश्य जनहित में सच छुपा भी सकता हैं और झूठ भी बोल सकता हैं। मरने से भी बचेगा और मारने से भी बचेगा। लालच दे सकता हैं शत्रु को धोखा भी दे सकता हैं किन्तु प्रवचन उपदेश अथवा डर भय नहीं दिखा सकता;
- वर्तमान भारतीय राजनीति में कोई अच्छा व्यक्ति चुनाव में नहीं जीत सकता। यदि अपवाद स्वरूप जीत भी गया तो अच्छा नहीं रहेंगा और यदि कोई फिर भी अच्छा रह गया तो जल्दी ही निकाल दिया जायेगा;
- नीति निर्धारण में विचार महत्वपूर्ण होते हैं चरित्र नहीं। क्रियान्वन में चरित्र का महत्व हैं विचारों का नही;
- जो कुछ पुराना हैं वह सब सही हैं अथवा जो कुछ पुराना हैं सब गलत हैं ऐसी धारणा उचित नहीं हैं अतिवादी लोग ऐसी धारणा बनाकर उसे स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं;
- भारत की प्राचीन राजतंत्र प्रणाली आदर्श नहीं हैं, राजतंत्र या तानाशाही की तुलना में लोकतंत्र अधिक अच्छा हैं किन्तु अपर्याप्त और असफल हैं। लोकतंत्र की जगह लोक स्वराज अधिक अच्छी प्रणाली हैं;
- प्राचीन समय में ज्ञान और त्याग को अधिक सम्मान प्राप्त था। मध्यकाल में राजशक्ति और धनशक्ति ने ज्ञान और त्याग को प्रतिस्पर्धा से बाहर कर दिया। दस वर्ष पूर्व तक भारत में गुण्डा शक्ति सर्वोच्च स्थान पर थी जो अब कमजोर हो रही हैं;
- व्यवसाय के माध्यम से तीन प्रकार के लोग आगे बढते हैंः-1. जो सेवा के उद्देश्य से बिना लाभ हानि के लागत मूल्य पर व्यापार करते हैं 2. जो उचित लाभ लेकर तथा नैतिकता के आधार पर व्यापार करते हैं 3. जो मिलावट और कमतौल के माध्यम से अनैतिक व्यापार करते हैं।
राजनीति में भी तीनों प्रकार के लोग होते हैं। कुछ लोग बिना लाभ-हानि के राजनीति करते हैं। कुछ लोग भ्रष्टाचार की राजनीति करते हैं तो कुछ लोग राजनीति में हत्या, डकैती जैसे अपराधों का भी सहारा लेते हैं। भारतीय राजनीति में वर्तमान समय मे तीसरे प्रकार के लोग अधिक आगे बढते देखे गये हैं। पहले प्रकार के लोगों की असफलता को देखकर अब राजनीति में अच्छे लोगों का आकर्षण खत्म हो गया हैं क्योंकि व्यापार और राजनीति अथवा धन और सत्ता का पूरी तरह घालमेल हो गया हैं। सत्ता धन के साथ सामंजस्य बिठाकर चल रही हैं तो पूंजीपति भी सत्ता को अपने हाथ में रखने का पूरा प्रयास कर रहे हैं।
भ्रष्टाचार करना राजनेताओं की कुछ मजबूरी भी बन गया हैं। चुनाव में बेतहाशा खर्च करना पडता हैं। कार्यकर्ता आधारित चुनाव व्यवस्था होने के कारण कार्यकर्ताओं को भी खुश रखना पडता हैं। उन पर खर्च भी करना पडता हैं और उनके अवैध कार्य को संरक्षण देना भी मजबूरी बन गया हैं। परिवार,रिश्तेदार और मित्र भी बहुत अपेक्षा रखते हैं। इसलिये बिरले लोग ही स्वयं को भ्रष्टाचार से मुक्त रख पाते हैं। मैंने स्वयं देखा हैं कि चालीस वर्ष पूर्व जब मैं राजनीति में अच्छे पदों पर था तब मेरे साथ सक्रिय साथियों की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी। हमारे जिले के लोग विकास में बहुत पीछे होते हुए भी संतुष्ट थे। फिर भी हमारे सब साथी पूरी तरह ईमानदार रहे। आज उसी तरह के राजनीतिक पद रखने वालों की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत हैं क्षेत्र भी बहुत विकसित हुआ हैं फिर भी शायद ही कोई ईमानदार हो। यहाॅ तक कि पार्टी के लिये बेइमानी करने को ईमानदारी ही माना जाता हैं किन्तु ऐसा भी व्यक्ति मिलना मुश्किल हैं। बाद मे मैनें स्वयं प्रयोग किया और रामानुजगंज शहर का नगरपालिका अध्यक्ष बना तब मेरे सामने भी ऐसी ही मजबूरी आयी मैंने भी अपने मतदाताओं से सलाह लेकर दस प्रतिशत भ्रष्टाचार की छूट प्रदान की। सोचा जा सकता हैं कि राजनेताओं के सामने भी कुछ मजबूरियाॅ हैं और मतदाताओं के सामने भी। यदि किसी साधारण भ्रष्ट को किसी तरह हटने के लिये सहमत भी कर लिया जाये तो आगे आने वाला उससे कई गुना अधिक भ्रष्ट होना निश्चित दिखता हैं। ऐसे में मतदाता के पास क्या विकल्प हैं।
मैंने सन 55 से 84 तक पच्चीसों बार चुनावों का संचालन किया हैं और हर चुनाव में मतदाताओं को पैसा, शराब अथवा अन्य किसी प्रकार से उपकृत करना पडा हैं। मैंने तो एक बार मतदाताओं को सलाह दी थी कि यदि राजनीति पूरी तरह व्यवसाय बन गयी हैं तो आप किसी अच्छे या कम भ्रष्ट को प्राथमिकता दे। यदि ऐसा न हो तो ऐसा कोई चुने जो आपका अच्छा परिचित हो और सुख दुख के समय में काम आ सके और फिर भी कोई नही हैं तो तत्काल जो भी मिले तो वह ले लेना कोई अपराध नहीं हैं क्योंकि जब राजनीति व्यवसाय हैं तब मुफ्त में वोट देने की मूर्खता क्यों की जाये। इतना अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि किसी अपराधी या हत्यारें को किसी भी परिस्थिति में वोट न दिया जाये। वोट की सौदेबाजी कोई गलत कार्य नहीं हैं।
मेरे विचार से भारत की राजनीति पूरी तरह व्यवसाय बन गयी हैं और सबसे खतरनाक इसका अपराधीकरण की तरफ बढना हैं। अपराध मुक्त करना हमारी सर्वोच्च प्राथमिकता हैं फिर भी यह स्थिति आदर्श नही हैं और इसे पूरी तरह बदलना चाहिये। जो लोग मतदाताओं को बदलना चाहते हैं वे भी कहीं न कही नासमझ हैं जो लोग राजनेताओं को बदलना चाहते हैं वे भी या तो ढोंग कर रहैं हैं या गलती। न मतदाता बदल सकता हैं न ही राजनेता। हमें तो पूरी राजनीति को बदलना पडेगा और जब तक पावर इकठ्ठा होता रहेगा तब तक राजनीति का व्यवसायीकरण नहीं रोका जा सकता। यदि राजनेताओं की संवैधानिक शक्ति विकेन्द्रित हो जाये तो सारी समस्याओं का एक साथ समाधान हो सकता हैं न राजनेताओं को सुधारना पडेगा और न मतदाताओं को। इसलिये मेरा मत हैं कि हमे अन्य सब कार्य छोडकर राजनीतिक सत्ता के विकेन्द्रीयकरण की दिशा में आगे बढना चाहिये।
राजनीति बन गयी तवायफ नेता हुये दलाल,
ऐसे में क्या होगा भैया इस समाज का हाल,
संसद को एक पलंग समझ कर उस पर शयन किया
संविधान को मानकर चादर खींचा ओढ़ लिया
अब तक हमने बहुत सहा अब सहेंगे नहीं हम, चुप रहेंगे नहीं चादर हटा देंगे हम, सब कुछ दिखा देंगे हम, कचरा जला देंगे हम !!!!!
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