लोक संसद
लोक संसद
लोकतंत्र का अर्थ लोक नियंत्रित तंत्र होता है । तंत्र लोक का प्रबंधक होता हैं प्रतिनिधि नहीं । लोक और तंत्र के बीच एक संविधान होता है जो लोक का प्रतिनिधित्व करता है तथा लोक की ओर से तंत्र की सीमाएं निर्धारित करता है । लोकतंत्र में संविधान का शासन होता है और संसद सहित तीनो अंग संविधान के नियंत्रण में कार्य करते हैं । संविधान के नीचे संसद, संसद के नीचे कानून, कानून के अंतर्गत नागरिक होता है । कोई भी नागरिक, चाहे कितने भी बड़े पद पर हो, किन्तु कानून से ऊपर नही हो सकता । तंत्र ही कानून बनाता है और उसका पालन भी कराता है । किन्तु यदि कानून बनाने वाला और पालन कराने वाला तंत्र ही संविधान भी संषोधित, परिवर्तित करने लगे तो कानून और संविधान की अलग-अलग स्थिति ढोंग बन जाती है, जैसा भारत मे हो रहा है । तंत्र के पास जो शक्ति अर्थात ताकत होती है वह लोक की अमानत होती है, तंत्र का अधिकार नही । दुर्भाग्य से भारत मे तंत्र से जुड़ी तीनो इकाईयां संविधान से प्राप्त इस शक्ति को लोक की अमानत न समझकर अपना अधिकार समझने लगती है ।
मैने कई जगह देखा है कि कुछ लोग अपने व्यावसायिक या अन्य कुत्सित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये धर्म का सहारा लेते हैं । ये एक मंदिर बनाते हैं, उस मंदिर में किसी भगवान या साई बाबा की मुर्ति स्थापित करते हैं, और स्वयं उसके पुजारी बन जाते है । यह मंदिर और भगवान उस पुजारी के सारे गलत कार्यो मे अप्रत्यक्ष सहायक होता है । मेरा एक मित्र साधु बनकर, मंदिर बनाकर, भगवान को स्थापित करके राजनेताओं को महिलाएं सप्लाई करने का धंधा करता था । मैने उससे किनारा किया । यह कोई एक घटना नहीं हो सकती । ठीक इसी तरह राजनीति भी अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये मंदिर और भगवान बनाकर स्वयं पुजारी के रूप मे उसकी संचालन बन जाती है । आप विचार करिये कि भारत में राजनीति के नाम पर ऐसा कौन सा अपराध बचा है जो नहीं किया जा रहा । यहां तक कि नरेन्द्र मोदी जी भी संसद मे जाने के पहले उसकी सीढियों को प्रणाम करने का नाटक कर के लोक के समक्ष यह प्रमाणित करते है कि संसद एक मंदिर है और संविधान भगवान । वहां जाने वाला हर नेता संविधान की शपथ लेता है और जब मर्जी उस संविधान मे फेर बदल भी कर देता है । मै नही समझता कि इतना ढोंग करने का उद्देश्य क्या है ।
कुछ बाते स्वयं सिद्ध दिख रही है । 1 किसी भी संविधान का मुख्य उद्देश्य स्वतः कानून का पालन कर रहे नागरिको को भयमुक्त तथा कानून का उल्लंघन करने वालो को पालन करने के लिये मजबूर करना होता है । भारत मे संविधान के सक्रिय हुए लगभग सत्तर वर्ष हो गये और इतनी अवधि मे कानून का पालन करने वाले कानून से भयभीत हैं और उल्लंघन करने वाले लगभग भयमुक्त ।
2 संविधान का कार्य तंत्र से जुडे तीनो अंगो के बीच समन्वय स्थापित करना होता है । भारत मे तंत्र से जुडे दो अंग न्यायपालिका और विधायिका आपस मे इतना नीचे उतर कर अधिकारों की छीना झपटी में लगे हैं, जैसे दो लुटेरे लूट का माल बंटवारा करने मे झगड़ा करते हैं । स्पष्ट है कि लोक अर्थात समाज को वोट देने के अतिरिक्त सभी मामलो मे अधिकार विहीन करने का यह परिणाम है । आज हर प्रकार के अपराधियों का राजनीति के तरफ अधिक से अधिक बढ़ता आकर्षण इस बात का स्पष्ट संकेत है कि कही न कही लोक और तंत्र के बीच मालिक और गुलाम की स्थिति बिल्कुल विपरीत हो गई है । लोकतंत्र लोक नियंत्रित तंत्र की जगह तंत्र नियंत्रित लोक के समान बन गया है । स्थिति यहां तक खराब हो गई है कि अब तो जनहित की परिभाषा भी तंत्र ही करने लगा है । हमारे क्या अधिकार हों, यह तंत्र ही तय करेगा और तंत्र के क्या अधिकार हों वह स्वयं तय कर लेगा । हमारा वेतन कितना हो इसका अंतिम निर्णय तंत्र करेगा और तंत्र से जुडे लोगो का वेतन तंत्र स्वयं तय कर लेगा । उसमे कोई लोक से पूछने की आवश्यकता नहीं । हरियाणा में जनहित मे शराब बंद हुई और कुछ वर् बाद जनहित मे ही शराब चालू हो गई । क्योकि जनहित की परिभाषा करने का अंतिम अधिकार शराब बंद और चालू करने वाले के पास ही था । उसने जब चाहा तब जनहित की मनमानी परिभाषा बना दी और यदि कही संविधान उसमे बाधक बना तो जनहित मे संविधान की ही व्याख्या बदल दी । इस प्रकार भारत का संविधान संसद का गुलाम है । गुलाम संविधान को माध्यम बनाकर भारत का तंत्र सत्तर वर्षो से समाज को गुलाम बनाकर रखे हुए है ।
समस्या क्या है, यह बताने वाले तो आपको गली-गली मिल जायेगे, किन्तु हमारा उद्देश्य सिर्फ समस्या का रोना नहीं है, बल्कि समाधान की चर्चा करना हैं । अनेक गुलाम यह कहते हुए भी दिख जाते है कि यदि हम सुधर जायेगे तो सब कुछ सुधर जायेगा । मै ऐसी गुलाम मानसिकता वालों मे शामिल नहीं हॅू । मैं तो समस्या के समाधान और उस समाधान मे अपनी प्रत्यक्ष भूमिका की चर्चा करना चाहता हूँ ।
संविधान मे व्यापक संशोधन की आवश्यकता है, यह मैं भी समझता हूँ । किन्तु यदि हमने अपनी सुरक्षा के लिये किसी पहरेदार को बंदूक देकर सुरक्षा कर्मी नियुक्त किया और वह पहरेदार ही उस बंदूक से मुझे समाप्त करके सब कुछ ले लेने की नीयत कर ले तो यह तय करना बहुत कठिन है कि प्रारंभ कहां से किया जाये और उसका तरीका क्या हो? स्पष्ट है कि वह बंदूक उसके हाथ से लेना सबसे पहली प्राथमिकता है । आज हमारा संविधान ससंद के कब्जे में है और उस संविधान को संसद से मुक्त कराने के बाद ही हम कुछ अन्य व्यापक संशोधन की बात सोच सकते हैं । इसलिये हमारी सबसे पहली प्राथमिकता यह है कि संविधान संशोधन के संसद के असीम अधिकारो की स्थिति मे कुछ फेर बदल हो । इस संबंध में कई प्रस्ताव हैं जिनमे एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव यह है कि एक लोक संसद भी बने और यह लोक संसद वर्तमान संसद के समकक्ष हों । इसका चुनाव और चुनाव प्रणाली संसद के ही समान हो और साथ-साथ हो । किन्तु लोक संसद और वर्तमान संसद के अधिकार और दायित्व बिल्कुल अलग अलग हों । अर्थात लोक संसद वर्तमान संसद के संविधान संशोधन के एक मात्र अधिकार को छोड़कर किसी भी कार्य मे कोइ्र भूमिका अदा नहीं कर सकेगी । यदि कोई संविधान संशोधन का प्रस्ताव लोक संसद अथवा वर्तमान संसद के समक्ष आता है तो लोक संसद और वर्तमान संसद अलग-अलग बैठकर सहमति के द्वारा ही संविधान संशोधन कर सकते हैं । यदि दोनो के बीच किसी विषय पर पूरी सहमति नही बनी और अंत तक टकराव कायम रहा तो उक्त संविधान संशोधन के लिये जनमत संग्रह अनिवार्य होगा । लोक संसद का कार्य सिर्फ संविधान संशोधन तक होगा । इसलिये उसकी सक्रियता बहुत कम होगी । इससे जुड़े लोगो का कोई वेतन नही होगा, कोई अलग से ऑफिस भी नही होगा । लोक संसद का चुनाव निर्दलीय होगा यदि आवश्यक समझा जाये तो लोक संसद को चार कार्य और भी दिये जा सकते है । 1 राईट टू रिकाल का प्रावधान बनाना, 2 लोकपाल की नियुक्ति और नियंत्रण, 3 संसद सदस्यो के वेतन भत्ते का निर्धारण । 4 किन्ही दो संवैधानिक इकाइयों के बीच टकराव की स्थिति मे निपटारा करना । इसके अतिरिक्त लोक संसद की कोई भूमिका नही होगी ।
प्रश्न उठता है कि यह कार्य होगा कैसे । संविधान संशोधन के अतिरिक्त कोई और मार्ग नही है । संविधान संशोधन के अब तक दुनिया मे चार मार्ग दिखते हैं । 1 जय प्रकाश जी का अर्थात संसद मे जाकर संविधान संशोधन । 2 अन्ना हजारे का मार्ग जिसमे प्रबल जनमत खड़ा करके संविधान संशोधन करने हेतु संसद को सहमत करना । 3 ट्यूनीशिया और मिस्र का मार्ग । 4 लीबिया का मार्ग । अंतिम दो मार्ग भारत में अनावश्यक और अनुपयुक्त हैं । प्रथम दो मार्गो का प्रयोग किया जा सकता है । इन दोनो पर निरंतर सक्रियता बनी हुई है । राजनीति मे जाकर संविधान संशोधन के प्रयास मे कुछ संगठन निरंतर सक्रिय है । हरियाणा मे रणवीर शर्मा भी लगातार इस कार्य मे लगे हुए है । दूसरी ओर व्यवस्था परिवर्तन अभियान कमेटी अन्ना मार्ग से चलकर लगातार जनमत जागरण का प्रयास कर रही है । मुख्य रूप से दो प्रस्तावो पर अधिक जोर दिया जा रहा है । 1 परिवार, गांव, जिले को संवैधानिक अधिकार । 2 लोक संसद की स्थापना । इन दोनो विषयो पर पिछले एक वर्ष से निरंतर संपूर्ण भारत मे एक साथ जनमत जागरण किया जा रहा है । इन दोनो प्रयासों से कौन सा सफल होगा, यह नहीं कहा जा सकता, किन्तु दोनो प्रयास अलग अलग निरंतर जारी हैं और लोग अपनी-
अपनी रूचि अनुसार जुड़ते जा रहे हैं । यहां तक कि व्यवस्था परिवर्तन अभियान कमेटी की ओर से सत्रह, अठारह, उन्नीस मार्च को नोएडा में एक राष्ट्रीय सम्मेलन की भी योजना बनी है । कमेटी ने आम लोगो से शामिल होने का भी निवेदन किया है ।
मै एक विचारक हॅू । उम्र और स्वास्थ के हिसाब से आवागमन या सक्रियता कठिन है । फिर भी मै एक विचारक के रूप मे इन प्रयासो का सहयोग और समर्थन करता हॅू । साथ ही मै एक आस्थावान हिन्दू होने के आधार पर ईश्वर से भी निवेदन करता हॅू कि समाज व्यवस्था को गंदी राजनीति की गुलामी से मुक्त होने मे सहायता करे ।
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