मौलिक अधिकार और वर्तमान भारतीय वातावरण
दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति के तीन प्रकार के अधिकार होते हैं- 1 मौलिक अधिकार 2 संवैधानिक अधिकार 3 सामाजिक अधिकार । मौलिक अधिकार को ही प्राकृतिक, मानवीय या मूल अधिकार भी कहते हैं। व्यक्ति के वे प्रकृति प्रदत्त अधिकार जिन्हें राज्य सहित कोई भी अन्य उसकी सहमति के बिना तब तक कटौती नहीं कर सकता जब तक उसने किसी अन्य व्यक्ति के वैसे ही अधिकारों का उल्लंघन न किया हो, उन्हें मौलिक अधिकार कहते है। मौलिक अधिकार प्रकृति प्रदत्त होते है , संविधान प्रदत्त नहीं। संविधान तो व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की गारण्टी मात्र देता है।
मौलिक अधिकार सिर्फ एक ही होता है और वह होता है प्रत्येक व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता। मौलिक अधिकार की कोई सीमा नहीं होती। अपने अधिकारों की सीमा व्यक्ति स्वयं तय करता है । इन अधिकारों की सीमा वहाॅ तक होती है जहाॅ से किसी अन्य की स्वतंत्रता की सीमा प्रारंभ होती हो । यदि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता किसी अन्य की स्वतंत्रता में बाधक होती है तब संविधान या समाज इसमें हस्तक्षेप करता है, अन्यथा नहीं। मौलिक अधिकारों के चार भाग होते हैं-1 जीने का अधिकार 2 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता 3 सम्पत्ति 4 स्वनिर्णय। ये चारों अधिकार सिर्फ व्यक्तिगत ही होते है, सामूहिक नहीं होते । ये अधिकार अहस्तांतर्णीय भी होते है अर्थात किसी अन्य के मौलिक अधिकारों का उपयोग कोई अन्य नहीं कर सकता। इस तरह व्यक्ति को किसी भी मामले में अपने विचार रखने का अधिकार मौलिक अधिकार है। किन्तु वह अधिकार किसी अन्य व्यक्ति पर प्रभाव नहीं डाल सकता। व्यक्ति को विचार अभिव्यक्ति तक ही स्वतंत्रता है किन्तु यदि कोई अभिव्यक्ति विचार प्रचार की दिशा में बदल जाती है तो वह संवैधानिक या सामाजिक अधिकार स्वरुप ग्रहण कर लेती है। कोई भी क्रिया विचार अभिव्यक्ति में नहीं शामिल होती। इस तरह नारे लगाना जुलूस निकालना विचार अभिव्यक्ति का भाग नहीं है । क्योेंकि वह समूहगत है, विचार प्रचार है तथा दूसरों की स्वतंत्रता का हनन भी है।
प्रत्येक व्यक्ति का यह स्वभाव होता है कि वह स्वयं तो अधिक से अधिक स्वतंत्रता चाहता है किन्तु दुसरों को अपनी इच्छानुसार संचालित होते हुए देखना चाहता है । यहीं से विवाद शुरु होता है। एक व्यक्ति शराब पीकर अपना और अपने परिवार का नुकसान कर रहा है। तो उसका पडोसी उसे बलपूर्वक इस नुकसान से रोकना अपना अधिकार समझता है। वह पडोसी यदि यज्ञ करता है और शराबी यह कहकर यज्ञ में बाधा पहुचाता है कि वह भूखा है और पडोसी घी तेल जला रहा है तब भी पडोसी उस शराबी को ही गलत कहता है क्योंकि शराब पीना बुरा है और यज्ञ करना अच्छा। ये दोनों ही नियम पडोसी ने बनाये है और दोनों में शराबी की सहमति नहीं है। मेरे विचार में यह व्यवस्था उस शराबी के स्वनिर्णय के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। आप उस शराबी को समझा सकते है,बहिष्कार कर सकते है किन्तु आप उसकी स्वतंत्रता में बाधा नहीं पहुचा सकते। आज ऐसा दिखता है कि सरकार तो अधिकांश मामलों में व्यक्ति के स्वनिर्णय के तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने के कानून बनाती ही है, कभी कभी सामाजिक व्यवस्थाएॅ भी ऐसा अतिक्रमण करने लगती है।
पांच प्रकार के कार्य ही मूल अधिकारों का उल्लंघन करते है -1 चोरी, डकैती, लूट 2 बलात्कार 3 मिलावट, कमतौलना 4 जालसाजी, धोखाधडी, छलकपट 5 हिंसा, बलप्रयोग, आतंक। कोई छठवा कार्य ऐसा नहीं होता जिसे अपराध कहाॅ जा सके। यदि कोई व्यक्ति इन पांच कार्यो से बच जाता है तो वह किसी के मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं करता और उसे अपराधी नहीं कहा जा सकता।
दुनिया में मौलिक अधिकार के संबंध में दो प्रकार के समूह है।-1 हम लोग जो मौलिक अधिकार को प्राकृतिक अधिकार मानते है और दूसरे वे लोग जो मौलिक अधिकार को संवैधानिक या सामाजिक अधिकार मानते है। साम्यवादियों को छोडकर अन्य सभी हिन्दू या इसाई हमारी विचारधारा के पक्षधर माने जाते है। तो साम्यवादी तथा कुछ मुसलमानों को छोडकर अन्य मुसलमान दूसरी विचारधारा के माने जाते है। दोनो विचारधाराओं के बीच टकराव लम्बे समय से चल रहा है। पहली विचारधारा मानने वाले देशो में लोकतंत्र है तो दूसरी विचारधारा मानने वालों में अधिकांश तानाशाही है। भारत में लोकतंत्र है किन्तु भारत की राजनैतिक व्यवस्था में 70 वर्षो तक दूसरे प्रकार के लोगों का अधिक प्रभाव रहा । अब मोदी के बाद हम लोगों का प्रभाव बढना शुरु हुआ है।
प्रत्येक व्यक्ति का एक ही सामाजिक दायित्व होता है और वह होता है सहजीवन अर्थात स्वयं सहजीवन का पालन करना और दूसरों को सहजीवन की ट्रेनिंग देना। कोई भी व्यक्ति अकेला न होकर परिवार ,गाॅव से लेकर समाज रुपी संगठन का सदस्य होता है। व्यक्ति जब परिवार का सदस्य होता है तब उसके मौलिक अधिकार तब तक निष्क्रिय हो जाते है जब तक वह उस परिवार का सदस्य है। इसका अर्थ हुआ कि परिवार में रहते हुए अपनी पारिवारिक सीमा के अंदर भी कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकता जब तक परिवार की सहमति न हो। इसे हम इस प्रकार भी कह सकते है कि परिवार के प्रत्येक सदस्य के मौलिक अधिकार परिवार रुपी संगठन के पास अमानत के रुप में सुरक्षित रहते हैं जिनका उपयोग वह परिवार छोडने का निर्णय करके ही कर सकता है ,अन्यथा नहीं। यही मान्यता गाॅव राष्ट्र या अन्य संगठनों के साथ भी उसकी होती है। सामान्यतया मौलिक अधिकार व्यक्ति के पास एक सुरक्षा कवच या हैंडब्रेक के समान होते है जो आपातकालीन तथा विशेष परिस्थिति में ही उपयोग किये जा सकते है अन्यथा नहीं। इसका अर्थ हुआ कि मौलिक अधिकार का शायद ही कभी उपयोग करने का आवश्यकता पडती हो अन्यथा वे व्यक्ति के पास निष्क्रिय कवच के रुप में सुरक्षित रहते हैं। जो व्यक्ति बार बार मौलिक अधिकार की दुहाई देता है या उपयोग करता है वह आदमी अच्छा नहीं माना जाता । इसी तरह की विशेष परिस्थिति में व्यक्ति को बलप्रयोग का भी अधिकार प्राप्त है। उसके लिए भी तीन परिस्थितियाॅ आवश्यक हैं- 1 आपके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता हो 2 आपको न्याय प्राप्ति का कोई अन्य मार्ग उपलब्ध न हो 3 उस परिस्थिति से बच निकलने का कोई अन्य तरीका आपके पास न हो। यदि इन तीनों के अतिरिक्त आपने किसी अन्य आधार पर बल प्रयोग किया तो वह आपका अपराध माना जायेगा। दुर्भाग्य से हमारे संविधान निर्माताओं को इस बात का ज्ञान नहीं था कि मौलिक अधिकार की परिभाषा क्या है, इसलिए उन्होने कुछ मौलिक अधिकारों को बाहर कर दिया। तो कुछ अनावश्यक अधिकारों को मौलिक अधिकार में शामिल कर लिया। आज अनेक नासमझ रोजगार, भोजन, शिक्षा , स्वास्थ, मतदान आदि को भी मौलिक अधिकार कहते फिरते हैं तो कुछ लोग धर्म आदि को मौलिक अधिकार में गिनते है। ये सब मौलिक अधिकार नहीं है ये या तो स्वनिर्णय के अन्तर्गत आते है या संवैधानिक अधिकारों के।
सहजीवन व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है । भारत में तीन संगठन ऐसे माने जाते है जो मौलिक अधिकारो को नहीं मानते । वे या तो राज्य को बडा मानते है या धर्म को या राष्ट को। वे तीन साम्यवाद संगठित इस्लाम और संघ परिवार हैं। ये तीनों ही अधिकारों की तो बहुत बात करते है किन्तु कर्तव्यों की नहीं करते। जबकि सहजीवन के लिए सिर्फ कर्तव्य ही कर्तव्य आधार होते है,अधिकार नहीं। साम्यवाद सबसे खतरनाक विचारधारा है और संगठित इस्लाम सबसे अधिक खतरनाक जीवन पद्धति किन्तु धार्मिक इस्लाम नहीं। कोई भी साम्यवादी कभी सहजीवन के सिद्धांत को नहीं मानता। जहाॅ वह अल्पमत में होगा वहाॅ स्वतंत्रता की मांग करेगा और जहाॅ बहुमत में होगा वहाॅ सबकी स्वतंत्रता छीन लेगा। भारत का हर साम्यवादी पग पग पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता दिखता है किन्तु कोई भी साम्यवादी चीन या रुस र्में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत नहीं करता। साम्यवाद की आंतरिक व्यवस्था में कोई साम्यवादी को प्रत्यक्ष रुप से कितनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है यह सब जानते है। भारत के साम्यवादी लोकसभा अध्यक्ष की दुर्गति भी हमने देखी है। इसी तरह इस्लाम में भी जो लोग संगठित इस्लाम से जुडे हुए है वे भी कभी सहजीवन को स्वीकार नहीं करते। टी बी बहस में ऐसे अनेक दाढी वाले मुल्ला बैठकर अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक स्वतंत्रता की दुहाई देते है किन्तु कभी पाकिस्तान में धार्मिक स्वतंत्रता की चर्चा नहीं करते। कभी ये मुल्ले यह नहीं कहते कि इस्लाम में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किस सीमा तक है । आजकल कालेजो में यह साम्यवादी और कट्टरपंथी इस्लाम का गठजोड जिस तरह मौलिक अधिकारों की बात कर रहा है इससे ऐसा लगता है कि अब उनके अंत का समय आ गया है। अब भारत का आम नागरिक यह समझ गया है कि इन दोनों को सहजीवन सीखने के लिए मजबूर करना आवश्यक है। यही कारण है कि भारत का आम नागरिक संघ परिवार को एक बुराई समझते हुये भी शत्रु का शत्रु मित्र होता है के समान प्रिय लगने लगा है।
मैं मानता हॅू कि वर्तमान परिस्थितियों में संघ परिवार जो कुछ कर रहा है वह ठीक है। फिर भी मुझे लगता है कि संघ परिवार को शाहरुख खान, आमिर खान, प्रशांत भूषण सरीखे मध्यमार्गियों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। हरमिंदर कौर के कथन का दिया गया उत्तर तो उत्तर दाता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानी जा सकती है किन्तु हरमिंदर कौर का विरोध किसी भी रुप में उचित नही कहा जा सकता । इस घटना ने हरमिंदर कौर के प्रति समाज में सहानुभूति का भाव पैदा किया है। साक्षी महराज भी जब भी बोलते है तो वह भाषा कट्टरपंथी मुसलमानों से ही मेल खाती है किन्तु वर्तमान में उन्होने जनसंख्या नियंत्रण समान नागरिक संहिता अथवा कब्रगाह की भूमि के मामले में जो कुछ कहा वह विचार करने योग्य है। यदि हम भारत की राजनैतिक स्थिति का आकलन करे तो भारत मौलिक अधिकारों की सुरक्षा की दिशा में निरंतर आगे बढ रहा है। अब साम्यवादी और कट्टरपंथी मुसलमानों का प्रभाव घट रहा है। देश की राजनीति में नरेन्द्र मोदी, नीतिश कुमार ,अखिलेश यादव प्रमुख राजनैतिक प्रतिद्वंदी के रुप में आगे आ रहे है। अरविंद केजरीवाल समेत अन्य सभी नेता पिछडने की दिशा में है। स्पष्ट है कि मौलिक अधिकारों के मामले में भारत की प्रगति संतोषजनक है। संघ परिवार से भी भविष्य में कोई खतरा नहीं है क्योंकि हिन्दुओं ने भले ही वर्तमान खतरे को टालने के लिए संघ परिवार को ढाल बनाया हो किन्तु खतरा टलते ही आम भारतीय सहजीवन को अपना मार्ग बना लेगा ऐसा विश्वास है । साम्यवाद तो अपनी बुरी स्थिति देखकर कट्टरपंथी इस्लाम के कंधे पर बंदूक रख चुका है। अब इस्लाम को समझना है कि वह मौलिक अधिकारों की धारणा को स्वीकार करता है या अपने समापन का मार्ग प्रशस्त करता है । इसका निर्णय इस्लाम को करना है किसी अन्य को नहीं। या तो इस्लाम अपने कठमुल्लों का साथ छोडकर धार्मिक इस्लाम और सहजीवन की ओर बढेगा और या समाप्त होगा। दुनिया में और विशेष कर भारत में मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए ये संभावनाए और आवश्यकताए स्पष्ट दिखती है।
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