न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सीमाएं

दुनियां की वर्तमान सामाजिक व्यवस्था आदर्श सामाजिक व्यवस्था से बहुत अलग है । आदर्श व्यवस्था में समाज सबसे उपर होता है और राष्ट्र या धर्म सहायक । वर्तमान में समाज से भी उपर राष्ट्र और धर्म बन गये है । यह दूरी बढती जा रही है । आदर्श व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है । प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता प्राकृतिक रूप से समान होती है । इसकी सीमा कोई अन्य नहीं बना सकता । इस स्वतंत्रता की सुरक्षा ही न्याय है । न्याय देना सम्पूर्ण मानव समाज का दायित्व है । वर्तमान स्थिति में राज्य न्याय को परिभाषित करने लगा है तथा राज्य ही व्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं भी बनाने लगा है । आदर्श व्यवस्था में पूरी दुनियां का एक संविधान होना चाहिये जिसमें दुनियां के प्रत्येक व्यक्ति की समान भूमिका हो। प्रत्येक व्यक्ति को सर्वप्रथम विश्व नागरिक होना चाहिये । वर्तमान समय मे दुनियां का ऐसा कोई संविधान नहीं बना है ना ही प्रत्येक व्यक्ति को विश्व नागरिकता प्राप्त है। वर्तमान समय में राष्ट्र संप्रभुता सम्पन्न इकाई है और विश्व व्यवस्था राष्ट्रो की सहमति असहमति पर निर्भर करती है ।

       भारत भी वर्तमान विकृत समाज व्यवस्था के अंतर्गत एक संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र है जिसे अपना संविधान बनाने एवं क्रियान्वित करने की अनियंत्रित स्वतंत्रता है । आवश्यक है कि हम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सीमाओं की चर्चा भारत की वर्तमान व्यवस्था तक सीमित रहकर करें । भारत में लोकतंत्र है जिसका अर्थ होता है न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका का समन्वित स्वरूप । संविधान के अनुसार तीनों के कार्य इस प्रकार अलग-अलग बंटे हुये हैं कि सबके अधिकार तथा हस्तक्षेप बराबर हों । विधायिका न्याय को परिभाषित कर सकती है, न्यायपालिका उक्त परिभाषा के अनुसार न्याय की समीक्षा करके न्याय अन्याय को अलग-अलग करती है और कार्यपालिका न्यायिक समीक्षा के आधार पर क्रियान्वयन करती है । प्रत्येक व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी ही न्याय है और यह प्राकृतिक अधिकार सिर्फ स्वतंत्रता तक सीमित होता है इसलिये न्यायपालिका को एक विशेषाधिकार दिया गया है, कि यदि विधायिका द्वारा किया गया कोई संविधान संशोधन व्यक्ति की प्राकृतिक स्वतंत्रता के विरूद्ध हो तो न्यायपालिका उक्त संविधान संशोधन को अमान्य घोषित कर सकती है । अन्य किसी मामले में न्यायपालिका किसी संविधान संशोधन की समीक्षा नहीं कर सकती ।

जिस तरह व्यक्ति को प्रकृति प्रदत्त स्वतंत्रता प्राप्त है उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति को सहजीवन अपनाने की बाध्यता भी है । इस बाध्यता को क्रियान्वित कराना विधायिका का काम है और कार्यपालिका तदनुसार क्रियान्वित करती है । इसका अर्थ हुआ कि यदि कोई व्यक्ति अपनी सीमाएं तोडता है तो विधायिका और कार्यपालिका मिलकर उसे दंडित कर सकते है जिससे वह अपनी सीमाएं ना तोड सके । विधायिका इस मामले में संविधान संशोधन करती है और न्यायपालिका उसकी तब तक समीक्षा नहीं कर सकती जब तक वह संशोधन व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के विरूद्ध ना हो । इस प्रकार संविधान के अनुसार न्यायपालिका की सीमाएं भी निश्चित हैं । भारत में लोकतंत्र है और इसलिये व्यक्ति से राज्य तक के बीच में प्रशासन की विभिन्न सीढियां बनी हुयी है । इसका अर्थ हुआ कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका संविधान के अनुसार कार्य करने के लिये बाध्य है । विधायिका भी संविधान के अनुसार ही कानून बना सकती है और कार्यपालिका कानून के अनुसार ही कार्य कर सकती है, कानून से हटकर नहीं । कार्यपालिका का कोई भी अधिकार प्राप्त व्यक्ति कानून से हटकर कोई आदेश नहीं दे सकता और कोई व्यक्ति बिना आदेश के कार्य नहीं कर सकता । यदि विधायिका या कार्यपालिका की कोई भी इकाई अपनी सीमाओं को तोडती है तो न्यायपालिका उसकी समीक्षा करके उसे अपनी सीमा में रहने के लिये बाध्य कर सकती है । इसका अर्थ हुआ कि संविधान समीक्षा के साथ-साथ संविधान के द्वारा न्यायपालिका को यह दायित्व भी दिया गया है कि संविधान के विरूद्ध बनने वाले किसी कानून, कानून के विरूद्ध पारित किसी प्रकार के आदेश तथा आदेश के विरूद्ध की जाने वाली किसी क्रिया को अलोकतांत्रिक घोषित करके उस क्रिया को रोक सके । न्यायपालिका ऐसे आदेश को गैरकानूनी घोषित कर सकती है किन्तु कोई नया आदेश नहीं दे सकती । कोई नया आदेश विधायिका ही दे सकती है ।

       जब भारत का संविधान बना तो संविधान भारतीय चिंतन मनन से दूर हटकर विदेशो की नकल मात्र था इसलिये उसमें कुछ कमजोरियां रह गयी । इन कमजोरियों का लाभ उठाकर न्यायपालिका और विधायिका ने समय-समय पर अपनी मनमानी करने की कोशिश की । यह कोशिश सर्वप्रथम विधायिका के द्वारा शुरू की गयी जब संविधान बनने के दो वर्ष बाद ही पंडित नेहरू के नेतृत्व में संविधान संशोधन करके न्यायपालिका की शक्ति को कमजोर कर दिया गया। उसके बाद संविधान संशोधन करके कार्यपालिका के प्रमुख राष्ट्रपति के भी अधिकार सीमित कर दिये गये । सन् 1973 में न्यायपालिका ने असंवैधानिक तरीके से स्वयं को विधायिका के समकक्ष स्थापित कि या। 1975 में इंदिरा गांधी ने फिर से तानाशाही थोपने का प्रयास किया जो 1977 में विफल हो गया । लगभग दस वर्ष बाद न्यायपालिका ने असंवैधानिक तरीके से विधायिका को और कमजोर करना शुरू किया जनहित याचिका सुनना या कालेजियम सिस्टम बनाना इसी तरह का प्रयास रहा है और न्यायपालिका का यह प्रयत्न 2012 तक निरंतर जारी रहा । 2012 के बाद विधायिका सक्रिय हुयी और नरेन्द्र मोदी के आने के बाद विधायिका न्यायपालिका से अप्रत्यक्ष टकराव में शामिल हो गयी । यह टकराव निरंतर जारी है । न्यायपालिका स्वयं को सर्वोच्च समझती है क्योंकि उसे संविधान के विभिन्न प्रावधानों की समीक्षा का सर्वोच्च अधिकारी मान लिया गया है । दूसरी ओर विधायिका अपने को संविधान संशोधन की सर्वोच्च अधिकार सम्पन्न इकाई मानती है । वर्तमान समय में न्यायपालिका इस सम्बन्ध में लगभग एकजुट है किन्तु विधायिका अन्य टकरावों के कारण न्यायपालिका से सम्बन्धों को विशेष महत्व नहीं दे रही है, इसलिये यह टकराव अभी प्रत्यक्ष संघर्ष न होकर शीत युद्ध टिका हुआ है । न्यायपालिका को बहुत विशेष परिस्थिति को छोडकर कभी भी विधायी या कार्यपालिक आदेश नहीं देने चाहिये लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत की न्यायपालिका दिन रात केवल विधायी और कार्यपालिक आदेश पारित करने में ही सक्रिय रहती है ।

जनहित क्या है इसको सिर्फ विधायिका ही परिभाषित कर सकती है न्यायपालिका नहीं क्योंकि न्यायपालिका व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा तक ही सीमित है । सुरक्षा के अतिरिक्त न्यायपालिका व्यक्ति के हित की कोई चिंता नहीं कर सकती । व्यक्ति के हित की चिंता व्यवस्था का काम है, न्यायपालिका का नहीं । इसका अर्थ हुआ कि न्यायपालिका को जनहित की याचिकाएं सुनने का कोई अधिकार नहीं है । न्यायपालिका अर्थात न्यायाधीशो को जनहित याचिका के माध्यम से अपनी वरीयता सिद्ध करने में आंनद आने लगा और उसका परिणाम हुआ कि न्यायपालिका के अपने सारे कार्य पिछडते चले गये । कितनी खराब स्थिति है कि न्यायपालिका राष्ट्रपति को निर्देश देती है कि फांसी की सजा का निर्णय अधिकतम किस समय सीमा में किया जाये या प्रधानमंत्री कितने महिनों तक किसी फाइल को रोककर रख सकते है । उन्हीं न्यायाधीशो ने कभी यह सीमा नहीं बनायी कि न्यायपालिका द्वारा किसी गंभीर आपराधिक मामले में निर्णय देने की समय सीमा क्या हो । आपराधिक मामले जीवन पर्यन्त चलते रहे और न्यायालय जनहित की चिंता करता रहे । यह धारणा जनहित के विरूद्ध है लोकतंत्र के भी विरूद्ध है और संविधान की मूल भावना के भी विरूद्ध है । न्यायपालिका की उच्श्रृंखलता वर्तमान संवैधानिक व्यवस्था को कमजोर करने में महत्वपूर्ण कारण सिद्ध हो रही है । अब तक जो कुछ भी हुआ उसे हम भूल जाये । विधायिका ने 70 वर्ष पूर्व गलतियां की उसे भी भूल जाने की आवश्यकता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि विधायिका की गलतियो का लाभ उठाकर न्यायपालिका तानाशाही की ओर बढना शुरू कर दे । भारत की जनता न किसी अव्यवस्था को स्वीकार करेगी न तानाशाही को । न्यायपालिका समाज में निरंतर यह विचार फैला रही है कि यदि विधायिका गलती करेगी तो न्यायपालिका का उसे रोकने के लिये आगे आना उसकी मजबूरी है । यह धारणा पूरी तरह गलत है । सबसे उपर भारत की जनता है, विधायिका से भी उपर, न्यायपालिका से भी उपर और संविधान से भी उपर । विधायिका से उपर न्यायपालिका तो कभी हो ही नहीं सकती क्योंकि विधायिका की गलतियो के लिये पांच वर्ष में समाज समीक्षा कर सकता है किन्तु यदि न्यायपालिका ने गलती कर दी तो उसकी समीक्षा कौन कर सकता है । उसकी समीक्षा न विधायिका कर सकती है न मतदाता । सन् 1975 में जब भारत में तानाशाही आयी थी तथा न्यायपालिका ने भी विधायिका और कार्यपालिका के समक्ष सरेन्डर कर दिया था तब भारत की जनता आगे आयी थी इसलिये न्यायपालिका को गंभीरतापूर्व अपनी सीमाओं को समझना चाहिये । यदि कहीं समाज को न्यायपालिका के विरूद्ध खडा होना पडा तो वह ज्यादा बुरा कालखंड होगा ।

अंत में मेरा सुझाव है कि न्यायपालिका और विधायिका अपनी-अपनी संवैधानिक सीमाओं को समझे और सर्वोच्च बनने के प्रयत्न से अपने को दूर कर लें । संविधान सर्वोच्च है और संविधान पर नियंत्रण के कोई भी प्रयास अनुचित माने जायेंगे, चाहे वे विधायिका के द्वारा किये जायें या न्यायपालिका के द्वारा ।