कट्टरवाद, उग्रवाद और आतंकवाद

स्वतंत्रता और सहजीवन का संतुलन प्रत्येक व्यक्ति की अनिवार्य आवश्यकता है । आमतौर पर ऐसा संतुलन बन नहीं पाता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी संगठन से जुड जाता है और उसकी प्राथमिकताएं बदलती रहती है । किन्तु प्रत्येक व्यक्ति को सहजीवन अवश्य सीखना चाहिये । परिवार व्यवस्था स्वतंत्रता और सहजीवन के संतुलन सिखाने का सबसे अच्छा आधार है । किन्तु परिवार व्यवस्था कमजोर हो रही है और तालमेल टूट रहा है । यही कारण है कि पूरी दुनियां के प्रत्येक व्यक्ति में धीरे-धीरे कट्टरवाद बढ रहा है । वर्ण व्यवस्था का कमजोर होना भी इसका एक मुख्य कारण है ।

अब तक पूरी दुनियां में आतंकवाद की कोई साफ परिभाषा नहीं बन सकी है । संयुक्त राष्ट्र भी ऐसी परिभाषा बनाने के लिये प्रयत्नशील है । कट्टरवाद, उग्रवाद तथा आतंकवाद एक-दूसरे साथ जुडे हुये शब्द है इसलिये विषय कठिन होते हुये भी इस पर चर्चा आवश्यक है, विशेष रूप से वर्तमान स्थिति में जब सारी दुनियां उग्रवाद और आतंकवाद से परेशन होकर उसका कोई न कोई समाधान करने का प्रयास कर रही है ।

व्यक्ति से लेकर संपूर्ण समाज तक व्यवस्था की अनेक इकाई होती है । व्यक्ति से लेकर समाज तक के बीच की इकाईयां अंतिम इकाई नहीं होती । किन्तु जब कोई व्यक्ति बीच की किसी इकाई को अंतिम इकाई मानकर उपर की अन्य इकाईयो का अस्तित्व अस्वीकार कर देता है, तब उस व्यक्ति के स्वभाव में कट्टरता शुरू हो जाती है । इस कट्टरता के कारण उस व्यक्ति का सहजीवन सीमित हो जाता है । इसका अर्थ होगा कि वह व्यक्ति अपनी इकाई को अंतिम मानकर उसके साथ अच्छा तालमेल करता है तथा समाज की दूसरी इकाईयों के साथ सामन्जस्य नहीं बिठा पाता है । ऐसी कट्टरता जब दूसरी इकाईयों से टकराव का कारण बनती है तब व्यक्ति के स्वभाव में कट्टरवाद उग्रवाद मे बदल जाता है और जब ऐसा उग्रवाद सामूहिक हिंसा का रूप ले ले तब व्यक्ति को आतंकवादी मान लिया जाता है । कट्टरवाद सिर्फ विचारों तक सीमित होता है, उग्रवाद कभी-कभी हिंसा का रूप ले लेता है और आंतकवाद स्थायी रूप से सामूहिक हिंसा के रूप में बदल जाता है । वैसे तो कट्टरवाद कई आधार पर आता है और उग्रवाद तथा आतंकवाद में बदलता रहता है किन्तु वर्तमान विश्व में धार्मिक और राष्ट्रीय आधार पर बढने वाला आतंकवाद ज्यादा खतरनाक हो चुका  है। इसकी गति लगातार बढती ही जा रही है और इसका कोई समाधान नहीं दिख रहा है । दुनियां में दो प्रकार के लोग है, बुद्धिजीवी और भावना प्रधान । बुद्धिजीवी लोग आतंकवाद को संचालित करते हुये भी अप्रत्यक्ष रहते है और भावना प्रधान लोग ऐसे बुद्धिजीवियों से प्रभावित होकर आतंकवाद को कार्यान्वित करते है । बुद्धि प्रधान लोग सुरक्षित रहते है और भावना प्रधान लोग सक्रिय होने के कारण प्रत्यक्ष परिणाम भुगतते है । इन दोनो को यह अप्रत्यक्ष गठजोड उग्रवाद और आतंकवाद की रोकथाम में बडी बाधा है क्योंकि बुद्धिजीवी लोग प्रत्यक्ष दिखते नहीं और सारी बागडोर उन्हीं के हाथ में रहती है । किसी समस्या की जड तक पहुंचे बिना पत्तों तक सीमित रहकर समाधान नहीं होता । इसी तरह क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच भी बहुत अंतर होता है । इन दोनो को अलग-अलग ना समझने के कारण भी समाधान खोजना कठिन होता है । कोई व्यक्ति स्वतंत्रता संघर्ष में लगा है या आतंकवाद में यह अंतर करना भी कठिन होता है ।

हम वर्तमान भारत की समीक्षा करे तो धर्म के नाम पर भारत में लगभग नब्बे प्रतिशत मुसलमान धार्मिक कट्टरवाद से प्रभावित है । उन्हें बचपन से ही कुछ इस प्रकार की संगठनात्मक शिक्षा दी जाती है कि वे अपने धार्मिक संगठन को ही समाज से उपर मानना शुरू कर देते है । इतना ही नहीं वे दुनियां को इस्लाम में बदलने को अपना पहला लक्ष्य मान लेते है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ये निरंतर सक्रिय रहते है और इन्हीं कट्टरवादी मुसलमानों में से बडी संख्या मे लोग उग्रवादी हो जाते है जो हिंसा पर विश्वास करते है । ऐसे लोग भारत की लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था की अपेक्षा अपनी धार्मिक संगठनात्मक व्यवस्था को अधिक महत्व देते है । ऐसे ही उग्रवादी मुसलमानों में से कुछ अति भावना प्रधान लोग आतंकवाद की तरफ चले जाते है । आमतौर पर मुसलमानों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती है और उनमें साहस बहुत अधिक होता है इसलिये कुछ लोग रोजगार के आधार पर भी आतंकवाद की तरफ बढ जाते है । इस प्रकार के इस्लामिक प्रयत्नों के खिलाफ कुछ कट्टरवादी हिन्दुओं में प्रतिक्रिया होती है । ऐसी प्रतिक्रिया संघ, विश्व हिन्दू परिषद्, बजरंग दल, शिवसेना आदि के नाम पर संगठित हो जाती है और लोग उग्रवाद की दिशा में बढ जाते है । ऐसे ही उग्रवादियों मे से कुछ लोगो ने पिछले पांच दस वर्षो में आतंकवाद की दिशा में बढने का प्रयास किया किन्तु प्रारंभ में ही प्रशासनिक झटका खाने के कारण हिन्दू आतंकवाद आगे नहीं बढ सका । इसका एक कारण यह है कि आमतौर पर हिन्दू कट्टरवादी नही होता बल्कि यदि कायरता और कट्टरता में से एक का चुनाव करना हो तो वह मुसलमानों के ठीक विपरीत कट्टरता की जगह कायरता को चुनना अधिक पसंद करता है । मैं मानता हूँ कि कट्टरता और कायरता के बीच क्या उचित है यह कहना वर्तमान में कठिन है, किन्तु हिन्दू और मुसलमान के बीच यह कायरता और कट्टरता का अंतर साफ देखा जा सकता है । स्पष्ट है कि भारत में धार्मिक आतंकवाद की जो भी घटनाएं होती है उनमें लगभग सबमें मुसलमानों का ही अधिक हाथ पाया जाता है । संघ परिवार के लोग कट्टरवाद तक सीमित है और आंशिक रूप से उग्रवाद के तरफ भी चले जाते है किन्तु आतंकवाद की दिशा में नहीं बढ पाते । मैंने स्वयं देखा है कि संघ परिवार के लोग हिंसा प्रोत्साहित तो करते है किन्तु स्वयं उससे दूर रहते है ।

राष्ट्रीय आधार पर भी भारत चीन से आयातित साम्यवादी उग्रवाद का निरंतर शिकार रहा है । साम्यवाद पूरी तरह राजनैतिक कट्टरवाद है और लगभग हर साम्यवादी उग्रवादी विचारों का संवाहक माना जाता है । ऐसे ही उग्रवादियों मे से कुछ भावना प्रधान लोग नक्सलवाद के चंगुल में फंस जाते है, जिन्हें हम आतंकवादी भी कहते है ।

कट्टरवाद, उग्रवाद और आतंकवाद में मूलभूत अंतर होता है । कट्टरवाद अपने आंतरिक विचारो तक सीमित होता है । उग्रवाद हिंसक टकराव में बदल जाता है और आतंकवाद एक पक्षीय हिंसा में । एक मूलभूत फर्क और होता है कि उग्रवादी अपने निश्चित लक्ष्य पर आक्रमण करता है तथा असंबद्ध लोगो को मारने में उसकी कोई सक्रियता नहीं होती । आतंकवादी इस बात की परवाह नहीं करता कि मरने वाला कौन है ? वह असंबद्ध लोगो को भी मारना कर्तव्य मानता है । ऐसा आंतकवादी चाहे धार्मिक हो या नक्सलवादी किन्तु अधिक से अधिक हत्या करना उसका उद्देश्य होता है इसलिये आतंकवाद को वर्तमान समय में सबसे बडी समस्या माना जा रहा है क्योंकि उसमें असंबद्ध लोग ही अधिक मारे जाते है । एक प्रश्न और उठता है कि भगत सिंह ने जो किया उसे किस श्रेणी में माना जाये ? मेरे विचार से किसी राजनैतिक संवैधानिक गुलामी से मुक्ति के लिये यदि कोई हथियार उठाता है और वह कट्टरवाद तक सीमित है, उग्रवाद या आतंकवाद तक नहीं । ऐसे प्रयत्नों को आतंकवाद के साथ नहीं जोडा जा सकता है, किन्तु यदि कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था में गोडसे बनकर गांधी की हत्या कर दे तो वह व्यक्ति अवश्य ही उग्रवादी माना जाना चाहिये । आज भी लोकतांत्रिक भारत में जो लोग भगत सिंह अथवा सुभाष चंद्र बोस के नाम पर हिंसा का समर्थन करते है ऐसे लोग कट्टरवादी तो है ही उनमें से अनेक उग्रवादी भी हो सकते है । इस प्रकार की विचारधारा का किसी भी रूप में समर्थन नहीं किया जा सकता । भले ही वह उग्रवाद के विरूद्ध ही क्यों न हो ? हमें लोकतांत्रिक भारत में कानून का सहारा लेना चाहिये और यदि प्रशासन हमारे विरूद्ध है तो ऐसे प्रशासन को बदला जा सकता है किन्तु कानून हाथ में लेकर कट्टरवाद और उग्रवाद की इस्लामिक अवधारणा का अनुकरण नहीं किया जा सकता । मेरा यह स्पष्ट मत है कि आतंकवाद को सिर्फ कुचला ही जा सकता है चाहे वह बुद्धिजीवियों द्वारा कराया जाये अथवा भावना प्रधान लोगो द्वारा किया जाये । आतंकवादियों से बात करने या उनके हृदय परिवर्तन की वकालत करने वाले लोगो का या तो प्रशासनिक या कानून स्तर पर कोई इलाज हो अथवा इनका सामाजिक बहिष्कार किया जाये । पूरी र्निममता से आतंकवाद को नष्ट करना चाहिये । उग्रवाद को रोकने के लिये कानून के अनुसार भय और दंड का सहारा लिया जा सकता है किन्तु आतंकवाद और उग्रवाद का प्रारंभ कट्टरवाद से होता है यदि कट्टरवाद को ही प्रारंभ में नियंत्रित करने का प्रयास हो तो ’’न रहेगा बांस न बजेगी बासुरी’’ । आतंकवाद को तो सिर्फ सरकार ही कुचल सकती है और उग्रवाद के लिये भी कानून का सहारा लेना पडेगा किन्तु कट्टरवाद को न कोई सरकार रोक सकती है न कानून । कट्टरवाद सिर्फ समाज ही रोक सकता है और समाज की पहली इकाई है परिवार । इसलिये किसी भी रूप में कट्टरवाद को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये चाहे वह धार्मिक कट्टरवाद हो अथवा राष्ट्रीय । वर्तमान समय में पूरी दुनियां और विशेषकर भारत के लिये आतंकवाद सबसे बडी समस्या है । इसमें भी मुस्लिम आतंकवाद सबसे उपर है । हमारी राजनैतिक व्यवस्था को इसे प्राथमिक समस्या मानकर और अधिक सक्रिय होना चाहिये जिससे आम शांतिप्रिय लोगों का धैर्य टूटने न लगे । अभी न्यूजीलैंड की घटना ऐसे धैर्य टूटने का प्रत्यक्ष उदाहरण है । मानवता और भाईचारा के नाम पर आतंकवाद को कुचलने में किसी भी प्रकार की कमजोरी बडे संकट का रूप धारण कर सकती है । विश्व को भी सतर्क होना चाहिये और भारत को भी । भारत को शरणार्थी समस्या पर मानवता की जगह आतंकवाद नियंत्रण को अधिक प्राथमिकता देनी चाहिये ।