समस्याओं के समाधान के असफल प्रयत्न

समस्याओं के समाधान के असफल प्रयत्न और उसके कारण

राजनीति कभी आदर्श नहीं होती । राजनीति सिर्फ सिद्धांतों तक सीमित नहीं होती । राजनीति व्यावहारिक होती है । राजनीति समाज व्यवस्था में सहायक होती है, न तो कभी समाज सेवा होती है और न ही व्यवसाय । व्यवसाय के लिये एक अलग से समूह होता है जिसे पालक कहते है और समाजसेवा के लिये भी नियुक्त समूह सेवक कहा जाता है । राजनीति कभी मार्गदर्शक भी नहीं होती । वह तो सिर्फ व्यवस्थापक होती है । दुर्भाग्य से भारत की राजनीति दुनियां की अंध नकल कर रही है । वह व्यवस्थापक की जगह मार्गदर्शक, व्यवसाय अथवा सेवा कार्य को माध्यम बना रही है । एक तरफ तो राजनीतिज्ञ समाज का मार्गदर्शन करने लगे है तो दूसरी ओर उन्होंने राजनीति को पूरी तरह व्यवसाय भी बना लिया है और तीसरी ओर वे लोग समाज सेवा का भी सारा दायित्व अपने ऊपर ले लिये है ।

 

समाज में दो प्रकार के लोग होते हैः- पहला त्याग प्रधान और दूसरा संग्रह प्रधान । राजनीति में न तो कोई त्याग प्रधान व्यक्ति दिखता है न ही ऐसा व्यक्ति राजनीति में सफल होता है । कोई भी भावना प्रधान या शरीफ आदमी राजनीति में आगे नहीं बढ़ सकता । राजनीति में अधिकतम चालाक व्यक्ति ही सफल हो पाता है । इसलिये हर राजनेता शराफत की जगह चालाकी को अधिक महत्व देता है ।

 

वर्तमान समय में भारत की राजनीति दुनियां के अन्य देशों की तुलना में अधिक गंदी हो गई है, अनैतिक हो गयी है तथा एक प्रकार से अप्रत्यक्ष रूप से पूरी तरह व्यवसाय बन गई है । ’’फूट डालो और राज करो’’ सबसे अच्छा मार्ग माना गया है । वामपंथी और साम्यवादी तो इतने बेशर्म होते हैं कि वे वर्ग संघर्ष को खुले आम सबसे सफल माध्यम घोषित करते हैं । अन्य दल भी चुपचाप वर्ग संघर्ष को बढ़ावा देते है, भले ही अप्रत्यक्ष क्यों न हो । सभी राजनैतिक दल बिल्लियों के बीच बंदर की भूमिका को सबसे सफल मार्ग मानते है । बंदर की भूमिका यह होती है कि बिल्लियों की रोटी कभी बराबर नहीं होने देता और रोटियों को बराबर करने में निरन्तर सक्रिय दिखता है । इसके साथ-साथ छोटी रोटी वाली बिल्ली के मन में असंतोष की ज्वाला जलाये रखना भी उसका कर्तव्य हो जाता है । यह कार्य पूरी तरह अप्रत्यक्ष हो और सफलतापूर्वक बढ़ता रहे इसके लिये हर राजनेता यह प्रयत्न करता है कि किसी भी समस्या का या तो समाधान ही न हो और यदि उस समस्या का कोई समाधान प्रारम्भ हो जाये तो उसके बाई प्रोडक्ट के रूप में कोई एक अन्य समस्या का विस्तार हो । इस तरह कुल मिलाकर समस्याओं का भंडार कभी कम नहीं होगा और राजनेता की आवश्यकता समाज में निरन्तर बनी रहेगी । स्वतंत्रता के बाद लगातार भारत इस दिशा में बहुत तेजी से चलता रहा परिणामस्वरूप जितनी समस्याओं का समाधान हुआ उससे अधिक समस्याएं उस समाधान के परिणास्वरूप बढ़ती चली गई । हमारे राजनेताओं को अधिक से अधिक सक्रियता और रोजगार के अवसर मिले । इन नई पैदा हुई समस्याओं के समाधान से भी अन्य नई समस्याएं पैदा हुई और यह क्रम बराबर जारी है ।

 

आर्थिक समस्याओं को दूर करने लिये कुछ महत्वपूर्ण प्रयास हुये । अमीरों पर प्रत्यक्ष कर लगा कर गरीबों को प्रत्यक्ष सहायता के रूप में सस्ता राशन, सस्ती शिक्षा व स्वास्थ्य या सस्ता कपड़ा दिया गया दूसरी ओर गरीबों पर अप्रत्यक्ष कर लगा कर अमीरों को अप्रत्यक्ष मदद की गई । आवागमन को सस्ता किया गया, कृषि उत्पादों पर अप्रत्यक्ष कर लगाया गया । सत्तर वर्षों से गरीबी हटाओ का नारा दिया गया लेकिन सत्तर वर्षों में लगातार गरीब-अमीर के बीच आर्थिक असमानता बढ़ती रही । श्रमजीवियों के साथ भी इसी तरह का छल हुआ । श्रम का मूल्य प्रत्यक्ष रूप से बढ़ा दिया गया और उन्हें बढे़ हुये मूल्य पर रोजगार गारंटी नही दी गई । परिणाम हुआ कि श्रम का मूल्य बुद्धि की तुलना में बहुत कम बढ़ा और गरीब-अमीर की खाई बढ़ती चली गई । कुछ वामपंथी मित्रों ने तो अमीरी रेखा की मांग उठाकर इस असमानता का लाभ उठाने का असफल प्रयास भी किया । महिला सशक्तिकरण के नाम पर भी आँख बंद करके विदेशों की नकल की जा रही है । महिलाओं को अपनी सुरक्षा के लिये बल प्रयोग की ट्रेनिंग दी जा रही है । उन्हें कानून तोड़ने के लिये प्रशिक्षित और प्रोत्साहित किया जा रहा है । धूर्त महिलाएं इसका लाभ उठा रही है । इसके परिणामस्वरूप परिवार व्यवस्था लगातार कमजोर होती जा रही है । बलात्कार की घटनाएं भी लगातार बढ़ रही है क्योंकि अब सामाजिक भय किसी तरह का रहा ही नहीं । शरीफ पुरूष निरंतर धूर्त महिलाओं के द्वारा प्रताड़ित हो रहे है और संगठित होने की दिशा में सक्रिय है । परिवार एक प्राथमिक संगठन है और परिवार में महिला पुरूष अलग अलग हो नहीं सकते है। फिर भी हमारी गंदी राजनीति महिला पुरूष के बीच भेद पैदा करने के लिये महिला सशक्तिकरण का नारा लगाती है । आदर्श राज्य व्यवस्था का सिर्फ एक ही दायित्व होता है सुरक्षा और न्याय । इसका अर्थ होता है स्वतंत्रता की सुरक्षा और उच्श्रृंखलता पर नियंत्रण । प्राथमिकताओं के कार्य में अपराध नियंत्रण सर्वोच्च प्राथमिकता होती है । कृत्रिम समस्याओं का समाधान दूसरे नंबर पर आता है । वैश्विक समस्याएं तीसरे नंबर पर व सामाजिक समस्याएं चौथी होती है । भारत में इस क्रम को उलट दिया गया । सबसे ऊपर अस्तित्वहीन समस्याओं का समाधान किया जा रहा है, दूसरे नंबर पर सामाजिक समस्या का, तीसरे नंबर पर वैश्विक समस्याओं का, सबके बाद सुरक्षा और न्याय का महत्व है । अस्तित्वहीन समस्याओं में मंहगाई, बेरोजगारी, गरीबी, महिला उत्पीड़न, दहेज प्रथा जैसी अनेक समस्याएं है । इन समस्याओं का जितना ही समाधान किया जायेगा उतनी ही नई-नई समस्याएं पैदा होगी लेकिन हमारी सरकारे इन समस्याओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है । सुरक्षा और न्याय के लिये आम लोगों को बंदूक और पिस्तौल के लाइसेंस दिये जाते है तो शराब और गांजा के लिये उन्हें जेलों में बंद कर दिया जाता है । अपराध नियंत्रण की जगह जनकल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकताएं दी जाती है क्योंकि हमें आँख बंद करके विदेशों की नकल करनी है और उस नकल से हमारा राजनैतिक स्वार्थ भी पूरा होता है । स्वतंत्रता के तत्काल बाद ऐसा किराया कानून बना था जो आज तक भारत में समस्याएं बढ़ा रहा है लेकिन किसी नेता की यह हिम्मत नहीं है कि इस गलत कार्य को भूल घोषित कर दे । उस समय स्वतंत्रता की जगह समानता का नारा दिया गया था जबकि समानता का नारा बहुत घातक है । स्वतंत्रता के समय रेल डिब्बे में चार श्रेणियां होती थी । उनमें से समानता के नाम पर तृतीय और इंटर क्लास को समाप्त कर दिया गया । आज इनकी जगह छः श्रेणियां करनी पड़ी किन्तु समानता के प्रयत्न को गलत नहीं माना जा रहा है जबकि समानता के प्रयत्न हमेशा स्वतंत्रता में बाधक होते है । ग्रामीण रोजगार के नाम पर भी गांव में प्रत्यक्ष सहायता दी गई और आवागमन को सस्ता करके रोजगार का शहरों की ओर केन्द्रियकरण कर दिया गया । परिणाम यह हुआ कि गांव रोजगार विहीन हो गये और शहर रोजगार केन्द्रित । वर्तमान समय में भी रोजगार विहीन क्षेत्रों में बड़े बड़े रोजगार खोलने की गलत नीति बढ़ाई जा रही है । इससे तो और अव्यवस्था फैलेगी । बड़े रोजगार आवागमन मंहगा होने के कारण शहरों से निकलकर गांव की ओर जाये यह एक अच्छी शुरूआत हो सकती है लेकिन जो किया जा रहा है वह उसके विपरीत है ।

 

पर्यावरण प्रदूषण दूर करने के नाम पर भी जो प्रयत्न हो रहे है वे पूरी तरह गलत है । जब तक आवागमन सस्ता रहेगा तब तक रोजगार धंधे शहरों की ओर बढ़ते रहेगें । कृत्रिम ऊर्जा महंगी नही होगी तब तक पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता ही रहेगा । विकास की गति तेज करने के लिये कृत्रिम ऊर्जा के अधिकतम उपयोग को प्रोत्साहित किया जाये, मनुष्य और पशु को बेरोजगार कर दिया जाये, यह पश्चिम के देशों की अंध नकल है । इसके कारण पर्यावरण प्रदूषण अधिक तेज गति से बढ़ रहा है। ट्रैक्टर पर सब्सीडी तथा साइकिल पर भारी कर लगाया जाता है । मैं नहीं समझता कि यह नीति कितनी उपयोगी है । प्रदूषण बढ़े और फिर पेड़ लगाकर उसका समाधान हो इसकी अपेक्षा प्रदूषण ही न बढ़े यह अधिक कारगर नीति हो सकती है किन्तु प्रयत्न विपरीत हो रहे है । साम्प्रदायिकता को भी लगातार बढ़ाया जा रहा है । जिस दिन भारतीय संविधान में धर्म और जाति को शामिल किया गया । हिन्दू कोड बिल और जातीय आरक्षण को लागू किया गया उसी दिन स्पष्ट हो गया था कि राजनेताओं की नीयत ठीक नहीं हैं । अब भी अल्पसंख्यक तृष्टिकरण के नाम पर लगातार ऐसे कानून बन रहे है जो बहुसंख्यकों के मन में कुंठा के आधार हो रहे है । अल्पसंख्यक इस प्रकार के कानूनों को अपना मौलिक अधिकार मानकर निरन्तर संघर्षरत है तो बहुसंख्यक अब स्वतंत्रता के अतिरिक्त कोई अन्य प्रतिबंध स्वीकार नही करना चाहते । आज भारत की सबसे बड़ी समस्या के रूप में राजनेताओं के द्वारा बनाई गई अल्पसंख्यक तृष्टिकरण की नीति ही सामने दिख रही है । जातिवाद को दूर करने के नाम पर भी जो कानून बन रहे है उनके कारण सारे देश में लगातार जातीय टकराव बढ़ता जा रहा है । यह समस्या किसी भी रूप में सामाजिक बुराई नहीं है बल्कि राजनैतिक बुराई का परिणाम है । यदि इसी तरह चलता रहा तो हजारों वर्षो के बाद भी जातीय टकराव कभी समाप्त नहीं होगा, बल्कि बढ़ता ही चला जायेगा । इसी तरह हमारी सरकार आम लोगों को अन्याय के विरूद्ध कानून तोड़ने की शिक्षा देती है । हमने खुलकर देखा है कि आदिवासियों को कानून तोड़ने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है और उसके परिणामस्वरूप जब नक्सलवाद आता है तब नक्सलवाद का समाधान शुरू होता है । सोनभद्र में आदिवासियों ने अन्याय के विरूद्ध बल प्रयोग किया । अहिंसक गांधीवादियों तक ने उसका समर्थन किया । वे आदिवासी कानून तोड़ने के कारण मारे गये । मरने वाले मर गये मारने वाले फाँसी तक चढ़ेगे, सरकार मरने वालो को सरकारी धन लुटाकर वोट बैंक बनायेगी और प्रोत्साहित करने वाले तथाकथित समाजसेवी व राजनेता अपनी दुकान किसी दूसरी ओर ले जाकर अपनी नई दुकानदारी शुरू कर देगे । कानून बदलने की बात नहीं होती है कानून तोड़ने को प्रोत्साहित किया जाता है । अपराधों की भी एक गलत परिभाषा बना दी गई है । इस गलत परिभाषा के कारण अनैतिक और गैरकानूनी कार्य भी अपराध दिखने लगता है । भारत में अपराधियों का कुल प्रतिशत डेढ़़ से दो के आसपास है । गलत परिभाषा के कारण वह प्रतिशत निन्यानवें प्रतिशत तक दिखने लगता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश तक यह अंतर समझ नही पाते । परिणामस्वरूप अनावश्यक अस्तित्वहीन समस्याओं का विस्तार होने लगता है। हमारी सरकार, पुलिस और न्यायालय जुआ और शराब को ही अपराध समझने लगते है । इस भूल के कारण न्यायिक प्रक्रिया लम्बित होती जाती है । फूलन देवी ने बीस वर्ष पहले कई लोगों की खुलकर हत्या की थी अब तक उस मुकदमें का निपटारा नहीं हुआ है, भले ही निर्भया बलात्कार केस जैसे कम महत्व के अपराध को फूलन की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण मान कर न्यायपालिका और विधायिका अपनी पीठ थपथपाना चाहती है। किसानों की मृत्यु पर ही बहुत नाटकबाजी होती है । सारा देश जानता है कि जिस तरह सस्ती कृत्रिम ऊर्जा के कारण तकनीकों का विस्तार हो रहा है और सब चीजे सस्ती हो रही है उससे छोटा किसान टिक ही नही सकता या तो वह खेती छोड़ दे या आत्महत्या कर ले । कोई मजदूर आत्महत्या नहीं कर रहा । मजदूर के पास जमीन भी नहीं है, तकनीक भी नहीं है । हमारी सरकार किसानों को सहायता दे देकर उन्हें खेती छोड़ने भी नही दे रही है और खेती को लाभदायक भी नही बनने दे रही है । जब तक वस्तुओं के मूल्य नहीं बढ़ने दिये जायेगे तब तक खेती अलाभकारी ही रहेगी चाहे आप कितनी भी सहायता दे दें । हमारी सरकारे उल्टी दिशा से काम कर रही है। सरकारों ने अनावश्यक रूप से जमीन की सीलिंग कर दी थी। उस सीलिंग के कारण बहुत अव्यवस्था हुई। हमारी सरकार इस गलती को भी स्वीकार करने की पहल नहीं कर रही । विचारकों की जगह निकम्मे और ढोंगी, चापलूस पुरस्कृत किये जाते है । इसके कारण भी चारण और भाट की प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ती जा रही है । स्वतंत्र विचार मंथन कहीं बढ़ ही नहीं पा रहा । संगठनों की बाढ़ आई हुई है और संस्थाएं कमजोर होती जा रही है । समस्याओं के समाधान से नई-नई समस्याएं पैदा हो रही है और उन नई समस्याओं के समाधान से और भी नई समस्याएं पैदा होगी । यह क्रम लगातार सत्तर वर्षों से जारी है ।

 

सारा चित्र निराशाजनक है । राजनैतिक सत्ता लगातार नई नई समस्याएं पैदा कर रही है और आहवान कर रही है कि हम लोग समाधान करें । हम चाहे जितना भी प्रयत्न कर ले किन्तु समस्याएं कम नहीं होगी बल्कि बढ़ती ही जायेगी क्योंकि जब तक राजनैतिक सत्ता ही मालिक की भूमिका में रहेगी तब तक कोई समाधान नहीं होगा । हम लोग गुलाम सरीखे पांच वर्ष में एक बार वोट देकर अनेक उम्मीदवारों में से किसी एक को अपना मालिक चुनने की सहमति दे दें, यह लोकतंत्र नहीं है किन्तु इसे ही लोकतंत्र कहा जा रहा है। अब भारत के लोगों को आँख बंद करके नकल करने की अपेक्षा विचार मंथन करके नई लोकस्वराज प्रणाली पर सोचना चाहिये। सरकारों की सक्रियता बहुत कम हो जाये, अर्थव्यवस्था को पूरी तरह स्वतंत्र कर दिया जाये। राज्य व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति की सुरक्षा की गारंटी तक सीमित रहे तथा अन्य जनकल्याणकारी कार्य समाज की अन्य इकाईयां अपनी सक्रियता में संभाल ले। विचारकों की टीम मार्गदर्शन तक सीमित रहे, वे न राज्याश्रित हो न राज्य निर्देशित हो। इस तरह लोकस्वराज की दिशा की शुरूवात हो सकती है। वर्तमान स्थिति निराशाजनक होते हुये भी समाधान असंभव नहीं है। विचार मंथन से प्रारंभ किया जाये आगे समाधान के मार्ग अपने आप दिखते चले जायेंगे ।