हिन्दू कोड बिल

कुछ मान्य सिद्धांत प्रचलित हैः-

1 व्यवस्था तीन के संतुलन से चलती है- 1 सामाजिक 2 संवैधानिक 3 आर्थिक । यदि संतुलन न हो तो अव्यवस्था निश्चित है । वर्तमान समय में संवैधानिक व्यवस्था ने अन्य दो को गुलाम बना कर अव्यवस्था पैदा कर दी है ।

2 प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता असीम होती हैं । कोई भी इकाई उसकी सहमति के बिना उसकी स्वतंत्रता की कोई सीमा नहीं बना सकती न ही उसकी स्वतंत्रता में कोई बाधा पैदा कर सकती है ।

3 व्यक्ति किसी संगठन के साथ जूड़ जाता है तब उसकी स्वतंत्रता पूरी तरह संगठन में विलीन हो जाती है अर्थात् संगठन छोड़ने की स्वतंत्रता के अतिरिक्त उसकी कोई स्वतंत्रता नहीं होती ।

4 परिवार एक संगठनात्मक इकाई होती है, प्राकृतिक इकाई नहीं । परिवार के किसी सदस्य का परिवार में रहते हुये कोई पृथक अधिकार या अस्तित्व नहीं होता ।

5 महिला,पुरुष, बालक, वृद्ध के आधार पर कोई वर्ग नहीं बन सकता क्योकि परिवार रुपी संगठन में सब समाहित होते है ।

6 महिला और पुरुष को अलग-अलग वर्गो में स्थापित करना राजनैतिक षडयंत्र होता है । भारत के सभी राजनैतिक दल इस षडयंत्र के विस्तार में पूरी तरह शामिल रहते है ।

7 धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्रीयता, उम्र, लिंग, व्यवसाय आदि के आधार पर कोई राज्य कोई आचार संहिता नहीं बना सकता क्योकि ये सब व्यक्ति के व्यक्तिगत आचरण हैं या सामाजिक व्यवस्था ।

                जब से भारत में अंग्रेजो का आगमन हुआ तब से ही उन्होने भारत की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी को वर्गो में बांटकर वर्ग निर्माण के प्रयत्न शुरु कर दिये थे । आवश्यक था कि इसके लिए परिवारों की आपसी एकता को छिन्न-भिन्न किया जाता । यही सोचकर अंग्रेजो ने भारत में महिला और पुरुष के नाम पर अलग अलग अधिकारों की कूटनीतिक संरचना शुरु कर दी । परिवार के अलग-अलग अधिकारों की संवैधानिक मान्यता का कुचक्र रचा गया । इस कुचक्र का ही नाम हिन्दू समाज कुरीति निवारण प्रयत्न रखा गया । कुरीतियां मुसलमानों में अधिक थी हिन्दुओं में कम किन्तु अंग्रेजो को सिर्फ हिन्दुओं की कुरीति ही दिखी । इस उद्देश्य से हिन्दुओं की आंतरिक पारिवारिक व्यवस्था के अंदर कानूनी व्यवस्था को प्रवेश कराने का कुचक्र शुरु किया गया । कुछ सरकारी चापलूसों ने समाज सुधार की आवाजे उठाई और उन आवाजो को आधार बनाकर अंग्रेजो ने कानून बनाने शुरु कर दिये । ऐसी ही आवाज उठाने वाले चापलुसों में भीमराव अम्बेडकर का भी नाम आता है । भीमराव अम्बेडकर की स्वतंत्रता संग्राम में किसी प्रकार की कोई भूमिका नहीं रही है । कुछ लोग तो ऐसा भी मानते है कि अम्बेडकर जी अप्रत्यक्ष रुप से अंग्रेजो की मदद कर रहे थे । यदि यह सच न भी हो ता इतना तो प्रत्यक्ष है कि अम्बेडकर जी हर मामले में गांधी के भी विरुद्ध रहते थे तथा सामाजिक एकता के भी । स्वतंत्रता संघर्ष के जिस कालखण्ड में सामाजिक एकता की बहुत जरुरत थी उस समय अम्बेडकर जी सामाजिक न्याय के नाम पर सामाजिक टकराव के प्रयत्न में लगे हुये थे । अम्बेडकर जी हिन्दू कुरीति निवारण की आवाज उठाते थे और अंग्रेज उस आवाज को आगे बढ़ाते थे । वही अम्बेडकर जी जब भारत के कानून मंत्री बन गये तब उन्होने हिन्दू कोड बिल के नाम से उस आवाज को कानूनी स्वरुप देना शुरु किया । इस आवाज में उन्हें पंडित नेहरु का भरपूर सहयोग मिला । पंडित नेहरु इस तरह की तोड़फोड़ क्यों चाहते थे यह पता नहीं है किन्तु अम्बेडकर जी के दो उद्देश्य हो सकते है या तो वे प्रधानमंत्री पद के लिए आदिवासी, हरिजन, अल्पसंख्यक तथा महिलाओं को मिलाकर बहुमत बनाना चाहते थे अथवा उनके अंदर हिन्दुत्व के विरुद्ध प्रतिशोध की कोई आग जल रही थी जिसके परिणामस्वरुप वे हिन्दूओं की सामाजिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करना चाहते थे । कारण चाहे जो हो लेकिन नेहरु अम्बेडकर की जोड़ी अपने उद्देश्यों में हिन्दू कोड बिल के माध्यम से सफल हो गई । मैं नहीं कह सकता कि इस मामले में सरदार पटेल चुप क्यों रहे । जिस तरह करपात्री जी ने तथा संघ परिवार से जुड़े समूहो ने हिन्दू कोड बिल का खुलकर विरोध किया उस विरोध में सरदार पटेल कहीं शामिल नहीं दिखे । यहाँ तक कि राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद ने भी लीक से हटकर हिन्दू कोड बिल का विरोध किया किन्तु नेहरु अम्बेडकर के सामने वे अलग थलग कर दिये गये । मैं स्पष्ट कर दॅू कि हिन्दू कोड बिल बनाने की मांग नेहरु अम्बेडकर के द्वारा स्वतंत्रता के तत्काल बाद शुरु कर दी गई थी ।

           परिवार व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने वाले कई कानून तो अंग्रेज धीरे धीरे लागू कर चुके थे । अंग्रेजो ने ही समाज सुधार के सारे प्रयत्न सिर्फ हिन्दुओं तक सीमित किये थे और मुसलमानों को उससे दूर रखा था । अंग्रेजो के पूर्व विवाह और विवाह विच्छेद एक सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें कानून का कोई दखल नहीं था । परिवार का आंतरिक अनुशासन परिवार के लोग मिलकर तय करते थे । पारिवारिक सम्पत्ति के मामले में भी कानून का हस्तक्षेप नहीं था । अंग्रेजो ने धीरे धीरे इन सब सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप किया और स्वतंत्रता के बाद तो हिन्दू कोड बिल के माध्यम से उसको पूरा कर ही दिया गया । हिन्दू कोड बिल के नाम पर चार विशेष कानून बनाये गयेः-

1 बालक के बालिग होने की उम्र 18 वर्ष निश्चित कर दी गई । 18 वर्ष से कम उम्र का बालक परिवार का सदस्य नहीं होगा बल्कि परिवार उसका संरक्षक होगा ।

2 विवाह की उम्र 18 से 21 तक की निश्चित कर दी गई । उससे कम उम्र में परिवार और समाज की सहमति से भी कोई विवाह अपराध बना दिया गया । सगोत्र विवाह को भी अपराध मान लिया गया । स्त्री और पुरुष के संबंध विच्छेद अर्थात तलाक को भी प्रतिबंधित कर दिया गया ।

3 उत्तराधिकार की सामाजिक व्यवस्था को कानूनी बना दिया गया ।

4 गोद लेने की प्रथा को भी कई कानूनों में जकड़ दिया गया । साथ ही तलाकशुदा महिलाओं के लिए अलग से गुजारा भत्ता का कानून लागू कर दिया गया ।

       यदि हम हिन्दू कोड बिल के इन प्रावधानों की समीक्षा करे तो सभी प्रयत्न अनावश्यक अनुचित और विघटनकारी दिखते है । कोई भी कानून समाज सुधार नहीं कर सकता क्योंकि समाज सुधार समाज का आंतरिक मामला है और वह विचार परिवर्तन से ही संभव है, कानून से नहीं। फिर भी चूकि अंग्रेजो की नीयत खराब थी और वे ऐसे सुधारो का श्रेय कानूनो के माध्यम से स्वयं लेना चाहते थे इसलिए उनके अप्रत्यक्ष शिष्य अम्बेडकर और नेहरु ने हिन्दू कोड बिल के माध्यम से उस कार्य को आगे बढ़ाया । स्वाभाविक रुप से बालक और बालिका परिवार के सामूहिक सदस्य माने जाते थे जिनका पालन पोषण करना पूरे परिवार की सामूहिक जिम्मेदारी थी । मैं नहीं समझता कि इस कार्य के लिए कानून की आवश्यकता क्यों पड़ी और कानून ने इसमें कितना सुधार किया । विवाह की उम्र 18 से 21 तक तय की गई । इस उम्र के बंधन ने भी अनेक समस्याएँ पैदा की । बलात्कार बढ़े , हत्याये बढ़ी, पारिवारिक जीवन में अविश्वास बढ़ा । कानून ने समस्यायें बढ़ाई अधिक और समाधान कुछ नहीं किया । हिन्दूओं पर एक पत्नी का तुगलकी फरमान लागू कर दिया गया । मैं आज तक नहीं समझ सका कि इस कानून की आवश्यकता क्या थी । कल्पना करिये कि लड़कियो की संख्या 50 से अधिक होती तब ऐसी अविवाहित लड़कियो के लिए इस अंधे कानून ने क्या प्रावधान रखा था । कोई महिला और पुरुष कितने लोगों से साथ आपसी संबंध बनाते है इसकी गिनती और चौकीदारी करना राज्य का काम नहीं है क्योंकि यह तो सामाजिक व्यवस्था का विषय है । सपिंड विवाह पर प्रतिबंध लगाना क्यों आवश्यक था?, जब सामाजिक मान्यता में ही सगोत्र विवाह वर्जित है इसके बाद भी यदि कोई व्यक्ति सगोत्र या सपिंड विवाह कर ले और परिवार या समाज को आपत्ति न हो तो कानून को इसमें क्यों दखल देना चाहिए । उत्तराधिकार के कानून तो कई गुना अधिक अस्पष्ट और अव्यावहारिक है । इन नासमझों ने समाज सुधार के नाम पर दहेज के लेन देन पर भी रोक लगा दी । पता नहीं इन्हें समाज की और पारिवारिक व्यवहार की इतनी भी जानकारी क्यों नहीं रही । सत्ता के नशे में चूर इन लोगों ने हिन्दू कोड बिल के नाम से ऐसे ऐसे कानून बना दिये जो आज तक समाज के लिए अव्यवस्था के आधार बने हुये है । वे नासमझ तो कन्या भ्रुण हत्या की रोकथाम के लिए भी कानून बना चुके है जबकि कन्या भ्रुण हत्या समस्या है या समाधान यह आज तक तय नहीं हो पाया है ।

        हम स्पष्ट देख रहे है कि महिला और पुरुष के अनुपात में महिलाओं की बढती हुई संख्या के परिणाम स्वरुप पुरुष प्रधान व्यवस्था मजबूत होती चली गई थी । पिछले 100 वर्षो से धीरे-धीरे यह अनुपात बदलकर महिलाओं की घटती हुई संख्या के रुप में सामने आया है । स्पष्ट है कि इस बदलाव के कारण सभी समस्याओं का स्वरुप विपरीत हो रहा है महिलाएँ अपने आप सशक्त हो रही हैं । कानून इस महिला सशक्तिकरण में किसी प्रकार की कोई भूमिका अदा नहीं कर सका है । आधे से अधिक परिवारों में विवाह की कानूनी उम्र से भी बहुत अधिक की उम्र में विवाह होने लगे है । फिर भी ये कानून बनाने वाले निरंतर अपनी पीठ थपथपाते रहते है । कुत्ता किसी गांव में चलती हुई गाड़ी को दौड़ाता है और गाड़ी जाने के बाद पीठ थपथपाता है कि मैंने उस गाड़ी को दौड़ाकर एक खतरे से गांव को बचा लिया जबकि दुनिया जानती है कि गाड़ी के जाने में कुत्ते का कोई योगदान नहीं है । यदि कानून से ही सब कुछ हो सका है तो आज छोटी-छोटी बच्चियों से भी बलात्कार बढने का दोष किसका? उत्तराधिकार के कानून तो और भी अधिक विवाद पैदा करने वाले है । सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक परिवर्तन का आधार है कानून नहीं । देश के सारे राजनेताओं ने एड़ी से लेकर चोटी तक का जोर लगा लिया कि भारत की विवाहित लड़कियां अपने माता-पिता से सम्पत्ति का हिस्सा लेने की आदत डालें और पिता के परिवार से विवाद पैदा करें । इन्होनें इस कुत्सित नीयत की असफलता के बाद और भी कई कड़े कानून बनाये और अब भी बनाने की सोच रहे है । किन्तु धन्य है भारत की महिलाएँ जो आज भी लगभग इनके प्रयत्नो से मुक्त हैं । आज भी इक्का दुक्का महिलायें ही ऐसी मिलेंगी जो अपनी सोच में इतना पतित विचार शामिल करती हो ।

            जब किसी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरूद्ध एक मिनट भी किसी के साथ रहने के लिये बाध्य नही किया जा सकता । जब तक की उसने कोई अपराध न किया हो तब किसी को पति पत्नी के बीच सम्बंध के अनुबंध तोडने से कैसे रोका जा सकता है? किसी को किसी भी परिस्थिति मे किसी भी समझौते के अंतर्गत एक साथ रहने के लिये बाध्य नही किया जा सकता । फिर ये विवाह या तलाक छुआछुत निवारण जैसे अनावश्यक कानून क्यो बनाये जा रहे है । मेरे विचार से तो ये कानून न सिर्फ गलत है बल्कि इसके लिये कानून बनाने वाले अपराधी भी है । यदि दो व्यक्तियो के बीच कोई ऐसा समझौता होता है जो एक की स्वतंत्रता का उलंघन तब व्यवस्था ऐसे समझौते की समीक्षा कर सकती है और किसी पक्ष को दंडित कर सकती है किन्तु किसी भी परिस्थिति मे उसकी इच्छा के विरूद्ध किसी के साथ रहने या साथ रखने के लिये मजबूर नही कर सकती । यहां तक की यह अपवाद बच्चो पर भी लागु होता है । जन्म लेते ही व्यक्ति का एक स्वतंत्र अस्तित्व हो जाता है और उसके स्व निर्णय मे बाधक कोई कानुन किसी भी परिस्थिति मे नही बनाया जा सकता । स्पष्ट है कि हिन्दू कोड बिल सामाजिक सुधार के उद्देश्य से ना लाकर हिन्दूओं की पारिवारिक व्यवस्था को तहस-नहस करने के उद्देश्य से लाया गया था । इतना अवश्य है कि परिवारों में कानून के हस्तक्षेप के कारण मुकदमें बाजी का जो अम्बार लग रहा है उसे ही यदि सफलता मान लिया जाये तो हिन्दू कोड बिल पूरी तरह सफल है । हिन्दू कोड बिल ने परिवारों के आपसी संबंधो को तोड़ा है । आप सोच सकते है कि यदि पति-पत्नी के बीच न्याय के नाम पर अविश्वास की दीवार खड़ी होगी तो कैसे भविष्य में बच्चे पैदा होंगे और किस तरह उनके संस्कार होंगे । हिन्दू कोड बिल न्याय के नाम पर सिर्फ ऐसी अविश्वास की दीवार खड़ी करने मात्र में सक्रिय है ।

              इस उद्देश्य में एक और गंध आती है कि यह कोड बिल हिन्दुओं और मुसलमानों की आबादी के अनुपात में भी बदलाव का एक प्रयत्न था । कौन नहीं जानता कि अम्बेडकर और नेहरु हिन्दूओं के लिए अधिक अच्छे भाव रखते थे या मुसलमानों के लिए । यह कोड बिल मुसलमानों पर लागू नहीं हुआ अर्थात मुसलमानों को चार शादी करने की और अपनी आबादी बढ़ाने की पूरी स्वतंत्रता होगी किन्तु हिन्दू एक से अधिक शादी नहीं कर सकता । साफ-साफ दिखता है कि ऐसा कानून बनाने वालो की नीयत में खोट था । यदि इन दोनों की महिलाओं के प्रति नीयत ठीक रहती तो ये महिला सुधार कार्यक्रम से मुस्लिम महिलाओं को बाहर नहीं करते । किन्तु इनकी निगाहे कही और थी और निशाना कही और ।  आज भी यह साफ दिखता है कि इस तरह के प्रयत्नों का परिणाम आबादी के अनुपात में असंतुलन के रुप में दिखा है । आदर्श स्थिति तो यह होती कि सरकार को पारिवारिक और सामाजिक मान्यताओं में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए था किन्तु यदि हस्तक्षेप भी करना था तो कम से कम धर्म के नाम पर हिन्दूओं के साथ बूरा नहीं सोचना चाहिए था किन्तु इन लोगों ने किया और उसके दुष्परिणाम आज तक स्पष्ट दिख रहे है । हिन्दू कोड बिल भारत के हिन्दूओं की छाती में एक ऐसी कील की तरह चुभा हुआ है जो निरंतर दर्द पैदा कर रहा है किन्तु समाधान नहीं दिखता । अब हिन्दुओं का मात्र इतनी ही राहत दिख रही है कि अब मुसलमान भी ऐसी कील के प्रभाव से अछूता नहीं रहेगा । अब सत्ता बदली है । हिन्दू कोड बिल के सरीखे ही अब मुस्लिम कोड बिल बनाने की शुरुवात हुई है । मैं समझ रहा हॅू कि अब मुस्लिम समुदाय को तीन तलाक या ऐसे ही अन्य समाज सुधार के उठाये गये कदमों से बहुत कष्ट होगा । अंधेर नगरी चौपट राजा की 70 वर्षों की कानूनी व्यवस्था में आपने बहुत माल-मलाई खाई है । अब फांसी चढ़ने की बारी है तो चिल्लाने से समाधान क्या है ।

           फिर भी मैं तीन तलाक या अन्य मुस्लिम कोड बिल को एक आदर्श स्थिति नहीं मानता । आदर्श स्थिति तो यह होगी कि हिन्दू कोड बिल सरीखे परिवार तोड़क समाज तोड़क कानूनों को समाप्त कर दिया जाये । व्यक्ति एक इकाई होगा उसमें कानून के द्वारा महिला पुरुष का भेद नहीं होना चाहिए । सबके सम्पत्ति के अधिकार तथा संवैधानिक अधिकार बराबर होने चाहिए किसी के साथ कोई भेद भाव न हो । किसी की स्वतंत्रता में कानून तब तक हस्तक्षेप न करे जब तक उसने कोई अपराध न किया हो । समाज एक स्वतंत्र इकाई है और उसे सबकी सहमति से सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजने और करने की स्वतंत्रता हो । चाहे कोई किसी भी उम्र में विवाह करे, चाहे कोई कितना भी दहेज का लेन देन करे, चाहे कोई कितने भी विवाह करें या चाहे परिवार में पुरुष प्रधान हो या महिला । यह कानून का विषय नहीं है । इस विषय को परिवार और समाज पर छोड देना चाहिए। इस आधार पर भारत के हिन्दूओं को हिन्दू कोड बिल का विरोध करना चाहिए। मुस्लिम कोड बिल का समर्थन नहीं। मुसलमानों ने हिन्दू कोड बिल का विरोध न करके जो मूर्खता की है वह मूर्खता हिन्दूओं को नहीं करनी चाहिए और हिन्दू मुसलमान सबको मिलकर एक स्वर से धार्मिक आधार पर बनने वाले या बन चुके कानूनों को समाप्त करने की मांग करनी चाहिए ।

             समय आ गया है कि हम सब हिन्दू मुसलमान राजनेताओ के प्रभाव मे आकर आपस मे टकराने के अपेक्षा एक जुट होकर हिन्दूकोड बिल तथा मुस्लिम कोड बिल का विरोध करे और इस विरोध की शुरूआत मुसलमानो की ओर से होनी चाहिये । क्योकि पहली भूल भारत के मुसलमानो ने ही की है कि उन्होने हिन्दू कोड बिल का विरोध नही किया । साथ ही हिन्दुओ को भी चाहिये कि वे पूरी ताकत से हिन्दू कोड बिल सरीखे परिवार तोड़क समाज तोड़क कानूनो का भरपूर विरोध करे और ऐसे कानूनो से समाज को मुक्ति दिलावे ।